Thursday, September 25, 2014

मोदी का अमेरिका दौरा और भारत से बढ़ती अपेक्षाएं


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे से पहले ऐसी खबरें आ रही हैं कि ओबामा इस मुलाकात में मोदी से इस्लामिक स्टेट के खिलाफ चल रहे युद्ध में मदद मांग सकते हैं। इसे अमेरिका की कमजोरी समझा जाए या फिर उसकी एक और चालाकी। अमेरिका का स्वार्थ के बारे में कहा जाता है कि जब वो आपके हित की बात करता है तो उसमें कहीं न कहीं उसका हित छिपा होता है। सो, भारत से मदद की गुहार लगाने के पीछे भी निश्चित तौर पर उसका अपना ही स्वार्थ होगा।

भारत से क्या मतलब 
सवाल ये उठता है कि भारत अमेरिका का साथ क्यों दे? ऐसा अमेरिका ने भारत का विश्वास जीतने के लिए क्या किया है कि भारत अमेरिका के लिए अपने सैनिकों का खून बहाए। 90 के दशक में भारत में लगातार आतंकवादी हमले बढ़े तो भारत ने वैश्विक मंचों पर खड़े होकर अपनी आवाज उठाई और पूरे विश्व को आतंक के खतरे के खिलाफ आगाह किया। लेकिन पश्चिमी ताकतों के कान पर जूं नहीं रेंगी। किसी भी देश ने खुलकर आतंकवाद के खिलाफ भारत का समर्थन नहीं किया। उन्होंने इन हमलों की निंदा तो की, लेकिन कभी भारत को विशेष मदद नहीं दी। यहां तक कि पाकिस्तान में चल रही आतंक की फैक्ट्रियों को भी पश्चिमी देश अनदेखा करते रहे। 

जब खुद को दर्द हुआ
आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की आंख तब खुली जब आतंकवादियों ने न्यू याॅर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर को मिट्टी में मिला दिया। उस दिन अमेरिका को ये एहसास हुआ कि आतंकवाद का दर्द क्या होता है। तब जाकर उसने अल कायदा के खिलाफ निर्णायक युद्ध छेड़ा। 9/11 के बाद भारत में भी अनेक आतंकी हमले हुए, लेकिन भारत ने उन्हें अपने अकेले के दम पर झेला और मुकाबला किया। भारत कभी किसी देश के सामने मदद के लिए नहीं गिड़गिड़ाया। और आज अमेरिका उसी भारत से मदद चाहता है, जिसके दर्द को कभी वो समझता नहीं था।

नहीं मानना चाहिए प्रस्ताव
अगर ऐसा कोई भी प्रस्ताव अमेरिका की तरफ से भारत के समक्ष रखा जाए तो उसे कतई स्वीकार नहीं करना चाहिए। ये युद्ध अमेरिका के ही बोए हुए बीजों का परिणाम है, सो फसल भी उसे खुद ही काटनी होगी। एशियाई देशों में अशांति और आतंक फैलाने के लिए अमेरिका ने ही कई संगठनों को पाला-पोसा था और आज वही संगठन नया रूप धरकर अमेरिका के खिलाफ लामबंद हो गए हैं। तो भारत उसकी मदद क्यों करे? 

नहीं बन सका विजेता
क्षेत्रीय अशांति को बढ़ावा देना अमेरिका की पुरानी नीति है, जिसके दम पर वो दुनिया का चैधरी बना हुआ है। भारत और पाकिस्तान के बीच अशांति बढ़ाने में भी अमेरिका ने कोई कमी नहीं की। पर आज यही नीति उसके सामने सबसे बड़ा खतरा बनकर खड़ी है। अफगानिस्तान और इराक में युद्ध लड़ते-लड़ते अमेरिका की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। हजारों सैनिकों की जान गंवाकर और खरबों डाॅलर खर्च करने के बावजूद अमेरिका विजेता नहीं बन पाया है और उसके सिर पर आतंक का खतरा लगातार मंडरा रहा है। इसलिए अमेरिका चाहता है कि अपनी डगमगाती नैया में कुछ सवार और चढ़ा लिए जाएं। अमेरिका अपनी लड़ाई को पूरे विश्व की लड़ाई बनाना चाहता है। चालीस देश उसके साथ आ चुके हैं और उसे अब भारत का भी सहयोग चाहिए।

दक्षिण एशिया की शांति
जब पूरे विश्व में जगह-जगह से हिंसा की ज्वालाएं सुलग रही हैं, ऐसे में दक्षिण एशियाई क्षेत्र लंबे समय से शांति और तरक्की की राह पर चल रहा है, खासतौर से भारत, चीन और जापान की स्थिति अमेरिका की आंख की किरकिरी बना हुआ है। इसलिए अमेरिका भारत को भी इस युद्ध में खींचना चाहता है। भारत और अमेरिका की दोस्ती नए शिखर पर पहुंचे ये हर भारतीय भी चाहता है और अमरीकी भारतीय भी चाहता है। पर उचित यही रहेगा कि ये दोस्ती अमेरिका के युद्ध कुचक्र से दूर रहे।

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