Wednesday, February 26, 2014

स्टिंग आॅपरेशन और एक दिन की नैतिकता!

"There are well known instances of bad journalism, like unfair reporting, pronouncement of guilt without fair trial , invasion of privacy, insensitive portrayal of victims." -N Ravi, Editor, The Hindu (July 6, 2012)

एक दौर था जब पत्रकारिता तीक्ष्णता और बुद्धिमत्ता का काम था। समय बदला और पत्रकारिता धीरे-धीरे टीआरपी और सर्कुलेशन का नाम हो गया। जितनी ज्यादा टीआरपी और सर्कुलेशन उतने ज्यादा विज्ञापन, जितना ज्यादा विज्ञापन उतनी ज्यादा इनकम। भारत में प्रिंट मीडिया का इतिहास खासा पुराना है, सो कुछ अखबारों को अगर छोड़ दिया जाए तो अधिकांश अखबारों ने फिर भी पत्रकारिता की गरिमा को बचा रखा है। लेकिन इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में 24 घंटे वाले खबरिया चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए नित नए हथकंडे आजमा रहे हैं। इनमें स्टिंग आॅपरेशन भी एक ऐसा ही हथकंडा है, जो चैनल को कुछ समय के लिए अच्छी टीआरपी दिला देता है।

इन स्टिंग आॅपरेशनों ने किसी को नहीं बख्शा है- नेता, संत, महात्मा, डाॅक्टर, ब्यूरोक्रेट, काॅरपोरेट, बाॅलीवुड, टीचर, प्रोफेसर सब इसकी जद में आ चुके हैं। देश में राजनीतिक और धार्मिक स्टिंग आॅपरेशन सबसे ज्यादा बिके हैं। पर यहां मौलिक प्रश्न यही उठता है कि स्टिंग आॅपरेशन करके दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले खुद कितने दूध के धुले हैं। स्टिंग आॅपरेशन के दौरान नैतिकता की बार-बार दुहाई देने वाले खुद कितने नैतिक हैं। सच पूछा जाए तो नैतिकता का आधार इतना ऊंचा है कि अगर हर चीज में नैतिकता को ही आधार बना दिया जाए तो देश के तमाम व्यवसायिक संस्थान और व्यवस्थाओं को चलाना असंभव है। शायद की कोई ऐसा पेशा है जिसे विशुद्ध नैतिकता के आधार पर चलाया जा सकता है। नैतिकता हर मोड़ पर आपके सामने अपने प्रश्न लेकर खड़ी मिलेगी। इसलिए कई बार आपको व्यवहारिकता की राह पकड़नी होती है। देश की कानून व्यवस्था कुछ ऐसी है कि घर से निकलने से लेकर अपने आॅफिस पहुंचने तक आप जाने-अनजाने तमाम नियम तोड़ते हैं। पर व्यवहारिक दृष्टि से उनको नजरंदाज किया जा सकता है। लेकिन स्टिंग आॅपरेशन करने वाले उस दिन नैतिकता का ऐसा पैमाना लेकर स्टूडियो में बैठते हैं कि सामने वाले को विश्व का सबसे बड़ा अपराधी और खुद को स्टिंग करने वाला सबसे बड़ा वीर घोषित कर डालते हैं। अगर चैनल नैतिकता के लिए इतने ही ज्यादा मचल रहे हैं तो फिर विज्ञापन लेने में नैतिकता को आधार क्यों नहीं बनाते, पेड न्यूज का काॅन्सेप्ट क्यों तेजी से फल-फूल रहा है। सही मायने में तो ये चैनल द्वारा ओढ़ी गई एक दिन की नैतिकता होती है, जिसका वे चिल्ला-चिल्लाकर ढोल पीटते हैं।

वास्तव में स्टिंग आॅपरेशन विश्वासघात का खेल है, जिसमें आप दूसरे को अपना बनाकर उसकी पीठ में छुरा भोंकते हैं। लेकिन इस स्टिंग को जनहित में बताकर नैतिकता के दायरे के अंदर धकेल दिया जाता है। देश में टीवी पत्रकारिता के उदय से लेकर अब तक तमाम स्टिंग आॅपरेशन किए गए, उसमें चैनल का पहला उद्देश्य जनहित के बजाय अपनी टीआरपी बढ़ाना था। लेकिन उस स्टिंग को परोसा कुछ इस तरह जाता है कि मानो उस चैनल से ज्यादा जनहितकारी संसार में कोई नहीं। भले ही स्टूडियो से उठने के बाद एडिटर महोदय खुद सेटिंग और गेटिंग का खेल खेलते हों, लेकिन कैमरे के सामने उनसे बड़ा नैतिकतावादी दूसरा कोई नहीं। खबरें किस तरह दबाई और भड़काई जाती हैं, कई संस्थानों के साथ काम करने के बाद इसका मुझे खूब अनुभव है। खबर को लिखते और पेश करते वक्त एक पत्रकार जितना शुद्धतावादी दिखता है, असल जिंदगी में उतना होता नहीं। लेकिन दूसरों से उसकी अपेक्षा ये रहती है कि नैतिकता की नंगी तलवार पर चलकर दिखाए।

भारतीय रेल में सफर के दौरान पहले एक परंपरा थी, लोग अपना खाना बांटकर खाते थे। अगर किसी का बच्चा भूखा रो रहा है, तो सहयात्री अपना खाने का डिब्बा खोलकर उसकी भूख मिटाने में देर नहीं लगाता था। इस परंपरा में जहरखुरानों को एक सुनहरा मौका नजर आया और उन्होंने यात्रियों को नशीला पदार्थ खिलाकर लूटना शुरू कर दिया। इसका नजीता यह हुआ कि आज रेल में कोई अपना खाना नहीं बांटता। मुझे लगता है कि ये स्टिंग आॅपरेशन समाज में थोड़े से बचे विश्वास को भी खा जाएंगे। 

Tuesday, February 25, 2014

तेंदुआ आया तेंदुआ आया!

मेरठ शहर में तेंदुआ घुस आया है। उसने कैंट जनरल हाॅस्पिटल को अपना ठिकाना चुना है। मेरठ पुलिस की पूरी फोर्स और आर्मी के जवान अपनी पूरी ताकत झोंकने के बावजूद अभी तक उसे पकड़ने में नाकाम साबित हुए हैं। मीडिया फोटोग्राफरों और कैमरामैनों के लिए ये एक लाइफटाइम फोटो आॅपोच्र्युनिटी है। इसलिए वे अपनी जान पर खेलकर भी इस तेंदुए को अपने कैमरे में कैद करना चाहते हैं। आम लोगों को मजमा लगाने का नया ठिकाना और बातें छौंकने का नया मुद्दा मिल गया है। और बच्चों को स्कूल से छुट्टी मिल गई है। अब तक कई लोग जख्मी हो चुके हैं। सो, अब इस तेंदुए का बचना मुश्किल है। मनुष्य अपने खून का बदला जरूर लेगा। ये खून अगर आपसी लड़ाई में बहा होता तो एक बार को बदला छोड़ भी दिया जाता, लेकिन एक पिद्दी से जानवर की इतनी हिम्मत की इंसान का खून बहाय! इस जानवर को सबक सिखाकर ये बताना जरूरी है कि मनुष्य ने अब बहुत विकास कर लिया है, धरती का कोई भी जानवर अब उससे ज्यादा शक्तिशाली नहीं है।

आखिर क्यों
ऐसी घटनाएं पहले भी सामने आ चुकी हैं, और हर ऐसे मौके पर उपदेश दिया जाता है कि मनुष्य जब जानवरों के इलाके में घुसेगा तो जानवरों को भी मनुष्य के इलाके में घुसने को मजबूर होना पड़ेगा। इस प्रकार की घटनाओं में या तो मनुष्य खुंखार जानवर को मौत के घाट उतारकर अपनी वीरता और सक्षमता को स्थापित कर देता है या फिर खुद जानवर अपनी जान बचाकर भाग जाता है। अब हो ये रहा है कि जंगली जानवरों द्वारा मनुष्य के क्षेत्र में अतिक्रमण की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। हालांकि जंगली जानवर बिल्कुल नहीं चाहते कि मनुष्य के इलाके में घुसें, उन्हें तो अपने जंगल में ही मजा आता है, लेकिन उनके हरे-भरे जंगलों में अब कंक्रीट के जंगल खड़े होते जा रहे हैं। लिहाजा जानवर अब अंदाजा नहीं लगा पा रहे कि कब वो भटककर कंक्रीट के जंगल में पहुंच जाते हैं।

हस्तिनापुर वन्यक्षेत्र
मेरठ से सटा हस्तिनापुर वन्यक्षेत्र तमाम तरह की प्रजातियों का घर है। यहां तकरीबन 350 तरह की पक्षियों की प्रजातियां चिन्हित की जा चुकी हैं। इसके अलावा कई प्रकार के स्तनधारी, सांप, तितलियां, तेंदुए, हिरण, जंगली बिल्ली, गीदड़, लोमड़ी, जंगली सुअर, अजगर, घडि़याल और डाॅलफिन भी इस क्षेत्र में पाए जाते हैं। इस पूरे वन्यक्षेत्र पर इन समस्त प्रजातियों का प्रथम हक है और वही यहां की मालिक हैं। लेकिन इंसान ने तेजी से इनके इलाके में अतिक्रमण किया है। खुद वन विभाग की मिलीभगत से पेड़ों का अवैध कटान कर क्षेत्र को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। गंगा नदी से सटे वेटलैंड पर आसपास के किसान जमकर पटान कर रहे हैं, जिससे वेटलैंड में पाए जाने वाली प्रजातियां नष्ट होने की कगार पर हैं।

विकास और संतुलन
विकास की अंधी दौड़ में हम प्रकृति का जमकर दोहन कर रहे हैं। विकास होना जरूरी है, लेकिन आंखें बंद करके नहीं होना चाहिए। अभी तक जिन भी क्षेत्रों में आधारभूत विकास को बढ़ावा दिया वहां इतना अंधाधुंध विकास कर दिया गया कि वहां की प्रकृति को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। विकास का कोई चेक-डैम नहीं बनाया जाता। विकास आया, पैसा आया, पैसी की भूख आई और उस भूख के लिए प्रकृति तहस-नहस कर दी गई। अभी पिछले ही साल उत्तराखंड में प्रकृति ने भारी तबाही मचाकर पूरे क्षेत्र को साफ कर दिया। उत्तराखंड में पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर पहाड़ों पर प्रकृति के साथ जबरदस्त छेड़छाड़ आज भी जारी है। और भविष्य के लिए खतरा जस का तस मुंह बाय खड़ा है। जबकि इन घटनाओं में सिर्फ एक ही संदेश छिपा होता है कि ‘चेत जाओ और भविष्य के लिए सबक लो’।

Saturday, February 15, 2014

केजरीवाल की 'काइयां राजनीति'

अंग्रेजी अखबारों में लिखा जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल ‘‘श्रूड पाॅलिटिक्स’’ कर रहे हैं। शब्दकोष पर सर्च करें तो हिंदी में ‘श्रूड’ का अर्थ आता है-चतुर, चालाक, धूर्त या तीक्ष्ण। लेकिन अंग्रेजी के श्रूड शब्द के लिए हमारे इलाके में हिंदी का एक बेहद सटीक शब्द प्रचलित है और वो है- काइयां या काइयांपन। अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर हिंदी में ‘काइयां राजनीति’ सबसे ज्यादा फिट बैठता है। अपने 49 दिनों के कार्यकाल में उन्होंने कुछ खास किया न धरा, पर सुर्खियां जमकर बटोरीं। लोगों को लगता था कि एक नए मिजाज का निजाम मिला है, कुछ बदलाव लाएगा। निजाम ने बदलाव की बातें तो खूब कीं, लेकिन बदलाव ला नहीं पाया। और ऐन मौके पर जनता को दुराहे पर छोड़कर मैदान छोड़ गया।

चलना मेरा काम नहीं अड़ना मेरी शान
यदि अरविंद केजरीवाल के हिसाब से चला जाता तो आज वह लोकपाल बिल भी नहीं पास हो पाता जो संसद में पास हुआ। अन्ना ने उस बिल पर खुशी जताई लेकिन केजरी को खुश करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। ये केजरीवाल का अडि़यल रुख ही था जिसकी वजह से बिल पास होने में देर लगी। कम से कम आज देश को लोकपाल मिलने का रास्ता तो साफ हुआ, उसमें परिवर्तन तो बाद में भी किए जा सकते हैं। केजरीवाल की बातों में केवल शिकायत ही शिकायत होती है, मानों उन्हें हर चीज से प्राॅब्लम है। गणतंत्र दिवस परेड से प्राॅब्लम, राष्ट्रपति से प्राॅब्लम, प्रधानमंत्री से प्राॅब्लम, अदालत से प्राॅब्लम, जज से प्राॅब्लम, पुलिस से प्राॅब्लम, मीडिया से प्राॅब्लम, बिजली से प्राॅब्लम, पानी से प्राॅब्लम, घर से प्राॅब्लम, लाल बत्ती से प्राॅब्लम। और जब इन समस्याओं को सुलझाने के लिए दिल्ली की जनता ने उन्हें सत्ता प्रदान की तो वो और ज्यादा प्राॅब्लम पैदा करने लगे। 

कैमरे की भूख
49 दिनों तक उन्होंने हर रोज नई घोषणा की, लेकिन किसी भी एक घोषणा को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाए। जितने भी दिन आपको काम करने के लिए मिले थे, उनमें भी आपने ज्यादातर समय धरना देने में गंवा दिया। ऐसा लगा मानो उनको हर वक्त मीडिया अटेंशन की जरूरत है और उन्होंने मीडिया का जमकर दोहन भी किया। उनके कंधों को हर वक्त मीडिया के सहारे की जरूरत दिखाई दी। इससे यही लगा कि वो काम करने के बजाय उसे दिखाना ज्यादा चाहते थे, यानि नापो ज्यादा फाड़ो कम। आप तो निकल लिए, पर अब उन लोगों का क्या होगा जिन्होंने आपके कहने पर बिजली के बिल जमा नहीं किए। आपने लोगों को ऐसे सब्जबाग आखिर क्यों दिखाए जो आप पूरे नहीं कर सकते थे?

आरोपों की राजनीति
पहले से खिंची किसी भी लकीर को छोटा करने के दो ही तरीके होते हैं। या तो उस लकीर को मिटाकर छोटा करो या फिर उसके बगल में एक बड़ी लकीर खींच दो। केजरीवाल ने एक बड़ी लकीर खींचने के बजाय पुरानी लकीर को मिटाकर छोटा करने के फाॅर्मूला अपनाया। जिस शक्ति से उन्हें दिल्ली की जनता के जीवन में परिवर्तन के लिए इस्तेमाल करना चाहिए था, उन्होंने वो सारी शक्ति दूसरों को फंसाने, उन पर आरोप लगाने और नए-नए खुलासे करने में झोंक दी। मोहल्ला सभा और जनलोकपाल दोनों का विचार बहुत अच्छा था, लेकिन केजरीवाल खुद को इतना बड़ा समझने लगे कि वो सारे नियमों को ताक पर रखकर इन दोनों विधेयकों को पास करने चल दिए। उनके हिसाब से पूरा विपक्ष भ्रष्ट और चोर है, लेकिन एक अल्पमत सरकार को विपक्ष की हर मोड़ पर जरूरत होती है। पर केजरीवाल को पूरा विपक्ष अपनी ईमानदारी के सामने सिर्फ एक कुकरमुत्ता नजर आया। और यही कुकरमुत्ते विधानसभा में उन पर भारी पड़े।

लोकसभा की तैयारी
इस्तीफे के कदम से यही बात साफ होता है कि केजरीवाल की पूरी नजर लोकसभा चुनाव पर है। वो दिल्ली में बिना कुछ किए सीधे संसद पहुंचना चाहते हैं। अगर वो इन स्वराज और जनलोकपाल बिलों के लिए गंभीर होते तो हर संभव प्रयास करके इन्हें पास करवाते। भले ही उन्हें विपक्ष के सामने झुकना पड़ता। पर उन्होंने तो राज्यपाल, संविधान, विपक्ष, सबको बौना जताकर अपनी अलग राह चुनी। बात-बात पर ईमानदारी की दुहाई देने वाले केजरीवाल की सच्ची ईमानदारी इसी में थी कि वो हर परिस्थिति में दिल्ली की जनता का साथ निभाते, बीच सफर में लोगों को यूं अकेला छोड़कर चले जाना बेइमानी ही है। संसद की चाह में उन्होंने जनता की सेवा करने का एक सशक्त माध्यम खो दिया। उनके 49 दिनों के कार्यकाल को देखकर ये अंदाजा लगाना मुश्किल था कि वो चाहते क्या हैं। पूरा कार्यकाल कंफ्यूजन से भरा दिखा। बहुत पहले मुंबइया फिल्मों में एक गाना आया था, उसको अगर केजरीवाल के लिए गाया जाए तो कुछ इस तरह गाना होगा-

तुम सा कोई सच्चा कोई मासूम नहीं है,
क्या चाहते हो तुम खुद तुम्हें मालूम नहीं है.…