Tuesday, December 24, 2013

कर्ण बनाम अर्जुन और केजरीवाल बनाम मोदी!

महाभारत में कर्ण और अर्जुन के भयंकर युद्ध पर बड़े-बड़े महारथियों की नजर थी। समस्त योद्धा इन दो महारथियों को भिड़ता देखना चाहते थे। नियत समय पर इन दोनों का युद्ध हुआ। अर्जुन और कर्ण दोनों एक से बढ़कर एक थे। एक गुरु द्रोण का शिष्य तो एक भगवान परशुराम का। युद्ध के दौरान अर्जुन के बाणों के प्रहार से कर्ण का रथ कई गज पीछे खिसक जाता और कर्ण के बाण से अर्जुन का रथ हथेली भर ही पीछे खिसकता। लेकिन भगवान कृष्ण कर्ण की प्रशंसा करते। इस पर अर्जुन ने हैरान होकर प्रशंसा का कारण पूछा तो भगवान कृष्ण ने बताया कि कर्ण के रथ पर तो केवल कर्ण और उसके सारथी शल्य का ही भार है, लेकिन तुम्हारे रथ पर स्वयं हनुमान जी विराजमान है, इसके अलावा मेरे अंदर तीन लोक का भार और तुम्हारे रथ के पहियों पर शेषनाग भी लिपटे हुए हैं। फिर भी कर्ण के बाण द्वारा रथ को हथेली भर खिसका देना प्रशंसनीय है। यह जानकर अर्जुन ने भी मन ही मन कर्ण की प्रशंसा की।

आज के राजनीतिक महाभारत में नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल के बीच भी कर्ण और अर्जुन जैसी स्थिति बनी हुई है। एक गोलवलकर का शिष्य है तो एक अन्ना हजारे का। मोदी और केजरीवाल दोनों अपने-अपने क्षेत्र में महारथी हैं। लेकिन जहां नरेंद्र मोदी के पीछे एक मजबूत आधार वाली भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी, आरएसएस और पूरा काॅरपोरेट जगत खड़ा है। उनकी रैलियों में जो हुजूम उमड़ रहा है उस सफलता के पीछे बहुत बड़ा धन और जन का तंत्र काम कर रहा है। तब कहीं जाकर मोदी की सफलता नजर आती है। इस सबकी तुलना में केजरीवाल की सफलता को देखा जाए तो वह प्रशंसनीय लगती है। एक बिना कैडर की पार्टी ने दिल्ली के जन-जन तक अपनी पहुंच बनाई। उनका विश्वास जीता। आप के किसी भी नेता के पास अच्छी भाषण शैली नहीं थी, फिर भी लोगों को उनकी बात सच्ची लगी। केजरीवाल के पीछे मोदी की तरह न तो उतना बड़ा जनबल है और न धनबल। फिर भी उन्होंने दिल्ली में बहुत बड़ी सफलता हासिल की।

लेकिन महाभारत में अंतिम विजय अर्जुन को मिली। कर्ण को उसके गुरु ने श्राप दिया था कि उसकी विद्या तब उसके काम नहीं आएगी जब उसे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत होगी। युद्ध के दौरान वही हुआ और कर्ण की हार हुई। अब 2014 के महाभारत में अंतिम विजय किसको मिलेगी ये देखना होगा। वैसे दिल तो अरविंद केजरीवाल ने भी अपने गुरु (अन्ना हजारे) का दुखाया है!!!

Sunday, December 8, 2013

आम आदमी की ताकत

चार राज्यों में झन्नाटेदार हार का सामना करने के बाद कांग्रेस के युवराज ने कहा- ’’शायद हम आम लोगों को अपने साथ नहीं जोड़ पाए। लेकिन अब हम कांग्रेस के साथ भी आम लोगों को जोड़ेंगे, और इस तरह जोड़ेंगे कि आपने सोचा भी नहीं होगा’’।

यहां सवाल यही उठता है कि इतनी करारी हार के बाद राहुल को आम आदमी की सुध क्यों आई। जब गली-गली, गांव-गांव घूमकर देश की नब्ज को समझ रहे थे, तब उनको समझ क्यों नहीं आया कि आम आदमी इस व्यवस्था से कितना आजिज आ चुका है। राहुल गरीब कलावती के घर पर रात बिताने के बाद भी उसके दर्द और जरूरतों को नहीं समझ पाए। कलावती के घर से लौटकर उन्होंने लंबा-चैड़ा भाषण तो दिया लेकिन सरकार में होते हुए भी कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठा पाए कि देश की सैकड़ों कलावतियों का भला हो। 

बस्तर की नक्सली हिंसा में तकरीबन 27 लोग मारे गए। कांग्रेस ने सहानुभूति भुनाने के लिए उस हमले में मारे गए नेताओं के परिजनों को तो चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिए, लेकिन कांग्रेस को ये ख्याल नहीं आया कि उन शहीद जवानों के परिजनों को भी टिकट दिए जाने चाहिए, जिन्होंने उन नेताओं की सुरक्षा करते हुए जान गंवाई। बल्कि ये काम बीजेपी भी कर सकती थी। लेकिन दोनों में से किसी पार्टी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यही अंतर है आम आदमी पार्टी और दूसरी पार्टियों की सोच में। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में खालिस आम लोगों को टिकट दिए, उन युवाओं को मौका दिया जो अभी राजनीति का ककहरा भी नहीं जानते। आम आदमी पार्टी के नवनिर्वाचित विधायकों में से अधिकांश को भाषण देना भी नहीं आता। खुद केजरीवाल भी धाराप्रवाह नहीं बोल पाते। लेकिन फिर भी लोगों ने उन्हें जिताया। उसके पीछे बड़ा कारण यही है कि अब लोगों को भाषण देने वाला नहीं काम करने वाला नेता चाहिए। भाषण तो लोग पिछले 67 सालों से सुनते चले आ रहे हैं। उन भाषणों ने उनके जीवन को नहीं बदला। 

बस इतनी सी बात राहुल गांधी को समझनी होगी। अगर समझ गए तो आगे का रास्ता आसान हो जाएगा।

हार के बाद राहुल गांधी मीडिया के सामने दावा कर रहे थे कि वो किसी चमत्कारिक रूप से आम लोगों को कांग्रेस से जोड़कर दिखाने वाले हैं। उनका ये दावा बेहद संदेहास्पद है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें कांग्रेस का पूरा कल्चर बदलना पड़ेगा। उन्हें उस बूढ़े फकीर के पास फिर से लौटना पड़ेगा जिसका ‘सरनेम’ वो आज तक इस्तेमाल कर रहे हैं। हो सकता है कि राहुल गांधी के मन की भावना अच्छी हो, लेकिन उस भावना को वो पिछले दस साल में कांग्रेस पर परिलक्षित नहीं कर पाए। दस साल की यूपीए सरकार ने देश को रिकाॅर्ड तोड़ भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई की मार दी। खाद्य पदार्थों में जो महंगाई आई वो पूरी तरह आर्टिफिशियल थी और बाजारी ताकतों द्वारा पैदा की गई थी। उसका फायदा न तो किसान को मिल रहा था और न आम आदमी को। उसका लाभ केवल बिचैलिए और जमाखोर उठा रहे थे। कांग्रेस का नेतृत्व अपनी आंखों के सामने यह सब होता देखता रहा और देख रहा है। केवल मुफ्तखोरी की योजनाएं चलाने से देश और लोगों का भला कभी नहीं हो सकता। योजनाओं का असली लाभ तो किसी और की ही जेब में पहुंचता है। लोगों का भला तो उनको आत्मनिर्भर बनाने से ही होगा।

बहरहाल, इस कारारी हार के बाद राहुल गांधी को अगर आत्मविश्लेषण करना ही है तो एक महीने तक अपनी सलाहकार समिति से दूर रहकर केवल महात्मा गांधी का साहित्य पढ़ें। शायद उनको 2014 के लिए कोई दिशा मिले, अन्यथा लोगों ने अपने इरादे इन चुनावों में जता ही दिए हैं।