Thursday, June 13, 2013

मोदी के सामने चुनौती

पिछले कुछ दिनों से देश का की राजनीति बेहद तेजी से बदली है। नरेंद्र मोदी के भाजपा प्रचार प्रमुख बनने के बाद राष्ट्रीय राजनीति ने तेजी से करवट बदली है। एक लंबे स्थाई दौर के बाद उठापटक की स्थिति पैदा हो गई। अब इसे मोदी का प्रभाव कहें या फिर समय की जरूरत कि उनके आने की भनक मात्र ने देश की राजनीति को पलट दिया है।

चाहिए 200 का आंकड़ा
2014 के चुनाव में देश का शीर्ष सिंहासन हासिल करने के लिए नरेंद्र मोदी के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं। उनको महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दिए जाने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं का ठंडा पड़ा उत्साह एक बार फिर जागा है। उम्मीद बंधी है कि 2014 में पार्टी का बनवास खत्म होगा। लेकिन इस बनवास को खत्म करने के लिए पार्टी को अपनी पूरी ताकत झोंकनी होगी। अगर पार्टी डिवाइडेड हाउस की तरह चुनाव में उतरती है तो फिर वही हाल होगा। एक बात तो साफ है कि अगर 2014 में भाजपा को अपने नेतृत्व में सरकार बनानी है तो उसे कम से कम 180 से 200 सीटें जीतनी होंगी। वहीं अगर कांग्रेस को यूपीए की तीसरी पारी खेलनी हो तो उसका काम 140 सीटों में ही चल जाएगा। 2009 में 115 पर सिमटी भाजपा के लिए 180 का लक्ष्य प्राप्त करना न तो बहुत मुश्किल है और न ही बहुत आसान। अगर मोदी एक ठोस रणनीति बनाने में सफल रहे तो जीत में संशय नहीं है। लेकिन अगर पार्टी अंदरूनी खींचतान में फंसी रही तो जीत में संशय है।

यूपी के पास चाभी
आज भी दिल्ली के दरबार का रास्ता यूपी की तंग गलियों से होकर ही जाता है। शायद मोदी इस बात को समझ गए हैं, और इसीलिए अपने सबसे खास अमित शाह को यूपी का प्रभारी बनाया है। अमित शाह को जिस गर्मजोशी से यूपी भाजपा का समर्थन मिला है उसको देखकर लगता है कि उनके आने से कुछ नया होगा। इसके अलावा पार्टी इस बार अपने तमाम फायर ब्रांड नेताओं के भरोसे यूपी में दमखम आजमाएगी। यूपी से भाजपा के पास इस समय कल्याण सिंह, उमा भारती, वरुण गांधी, योगी आदित्यनाथ, पार्टी प्रमुख राजनाथ सिंह, दिग्गज मुर्ली मनोहर जोशी, मेनका गांधी जैसे जिताऊ नाम हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि खुद नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश से लोकसभा का चुनाव लड़ें। और ऐसा करने में पार्टी को फायदा ही फायदा है। पूरी उम्मीद है कि अजीत सिंह अपना राष्ट्रीय लोकदल लेकर फिर भाजपा की गोद में आकर बैठ जाएं। अगर ऐसा हुआ तो भाजपा को जाट वोटों को थोड़ा फायदा तो मिलेगा। लेकिन भाजपा को इस तरह के टिड्डी दलों का सहारा लेने के बजाय खुद अपना जाट नेता तैयार करना चाहिए। इससे पार्टी को दूरगामी परिणाम मिलेंगे। वैसे धीरे-धीरे जाटों का अजीत सिंह से काफी हद तक मोह भंग हो रहा है, लेकिन कोई विकल्प न होने के कारण उनका हाथ थामना मजबूरी है। ऐसे में अजीत सिंह का खाली रहना बहुत जरूरी हैं।

भरत मिलाप कराएं
महाराष्ट्र में लंबे समय से भाजपा-शिवसेना गठबंधन सत्ता से बाहर है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी कोई खास परिणाम नहीं मिले हैं। ऐसे में अगर भाजपा-शिवसेना और मनसे अलग-अलग चुनाव लड़ती हैं, तो एक-दूसरे का वोट ही काटेंगी। महाराष्ट्र में ठोस परिणाम हासिल करने के लिए जरूरी है कि मोदी उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का भरत मिलाप कराएं। स्वर्गीय बाल ठाकरे की भी यही मंशा थी। अगर उद्धव ठाकरे अपने पिता का स्थान लें और राज ठाकरे को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाए तो महाराष्ट्र से अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। नरेंद्र मोदी, भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता और बाबा रामदेव जैसे अध्यात्मिक नेता अगर दोनों भाइयों को मिलाने का प्रयास करेंगे तो ये भरत मिलाप होना संभव है।

कहां-कहां से उम्मीदें
भाजपा अगर उन सभी राज्यों में मेहनत कर लेती है, जिनमें उसका पुराना जनाधार रहा है तो दिल्ली का रास्ता आसान हो सकता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, बिहार ऐसे राज्य हैं जहां अगर पार्टी जमकर मेहनत कर लेती है, तो 200 सीटों का आंकड़ा छुआ जा सकता है।

मीडिया मैनेजमेंट
नरेंद्र मोदी मीडिया के कुछ ज्यादा ही चहेते हैं। मोदी का कोई भी कदम मीडिया के लिए खबर होता है। छोटी-छोटी चीजों में भी मीडिया मोदी के खिलाफ गुबार निकालने के लिए हर वक्त तैयार है। ऐसे में पार्टी को प्रचार के ऐसे तौर-तरीके अपनाने होंगे जो बेवजह मीडिया की धार पर न आएं। खासतौर से विपक्ष के खिलाफ भाषा की मर्यादाओं को बनाए रखना जरूरी है। जैसा कि कहा जाता है कि आम जनता चीजों को बहुत जल्द भूल जाती है। ऐसे में पार्टी को यूपीए के दस सालों का लेखाजोखा फिर से याद दिलाना होगा। इसमें सोशल साइट्स सबसे बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।

टिड्डी दलों को परखना जरूरी
1996 के बाद से देश में छोटे-छोटे टिड्डी दलों की ब्लैकमेलिंग जमकर बढ़ी है। वाजपेयी की एनडीए सरकार हो या मनमोहन की यूपीए दोनों की सरकारों ने बार-बार क्षेत्रिय दलों के आगे घुटने टेकने पड़े। ऐसे में अपने साथियों का चुनाव बेहद पारखी नजर से करना होगा। जनता दल यूनाइटेड को एनडीए से अलग होने का खामियाजा 2014 में बुरी तरह भुगतना होगा। जदयू में सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी को होगा तो वो हैं शरद यादव। नीतीश कुमार लगभग दस सालों से बिहार में सत्ता सुख भोग रहे हैं। लेकिन शरद यादव दस सालों से एनडीए के साथ विपक्ष में बैठे हैं। अब जब एनडीए के सत्ता में लौटने की संभावना जागी तो, नीतीश ने गठबंधन भंग करने का राग आलाप दिया। ऐसा करके नीतीश अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर केवल लालू यादव के लिए रास्ता प्रशस्त कर रहे हैं।

चैतरफा अभियान की जरूरत
लोगों तक अपनी पहुंच बनाने और उसको वोट में कन्वर्ट करने के लिए पार्टी अगर चैतरफा अभियान चलाए तो अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। पहले मोर्चे पर पार्टी पूरी एकजुटता के साथ खुद लोगों तक जनसंपर्क करे, दूसरे मोर्चे पर संघ और उसके कार्यकर्ता अभियान चलाएं, तीसरे मोर्चे पर बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान व अन्य सामाजिक संगठनों का सहारा ले और चैथे मोर्चे पर पार्टी एक ई-ब्रिगेड को उतारे, जो इंटरनेट के माध्यम से सोशल साइट्स पर अभियान चलाए। अगर इस तरह का चैतरफा हमला किया जाता है, तो परिणाम सार्थक हो सकते हैं।