Monday, April 2, 2012

नकली खुशी बनाम असली खुशी !

बात तब की है जब अपन छोटे थे। पापा की सरकारी नौकरी। किराए का मकान। घर में एक ब्लैक एंड व्हाइट टीवी, जिस पर शटर लगा था और उस टीवी पर दूरदर्शन की प्रस्तुति। समझ ही नहीं आता था कि इत्ते सारे लोग इस छोटे से डिब्बे के अंदर कैसे सोते थे। खैर, अब ये तो समझ आ गया कि इत्ते सारे लोग बुद्धू बक्से में कैसे सोते हैं। लेकिन ये आज तक समझ नहीं आया कि उसमें दिखाए जाने वाली विज्ञापनों की दुनिया इत्ती खुशहाल क्यों होती है। सारे के सारे जरूरत से ज्यादा खुश पहले भी दिखते थे आज भी दिखते हैं। अपने मसूढ़ों को आखिरी छोर तक दिखाने पर आमादा रहते हैं। उनकी खुशहाल दुनिया के सामने अपन की दुनिया तो ऐसी लगती है मानो अपन तो धरती पर भार ही बढ़ा रहे हैं।
 
उस समय एक विज्ञापन आता था किसान यूरिया का, जिसमें एक किसान बड़ा खुश होकर और गाना गाकर अपने खेत में खाद बिखेर रहा होता था। इस तरह के तमाम विज्ञापनों का बाल मन पर खासा असर पड़ता। छुट्टियों में गांव जाना हुआ। चाचा ने कहा कि आज खेत में खाद डालना है। इतना सुनते ही हम खुश। हमारे लिए खाद डालने का मतलब था चाचा खेत में जाकर गाना गाएंगे। हमने जिद ठान ली कि हम भी साथ चलेंगे। खैर, चाचा ने बुग्गी में दो खाद के बोरे रखे, तीन लोहे की बाल्टी और चल दिए खेत पर। खेत पर जाकर चाचा ने हमें मेंढ पर बैठा दिया, दो मजदूरों को संग लिया, बाएं हाथ में बाल्टी लटकाई और दाएं हाथ से खाद बिखेरना शुरू कर दिया। हमको मामला जंचा नहीं और बेहद नाॅन रोमांटिक लगा। हमने कहा चाचा खाद ऐसे थोड़ी बिखेरते हैं। खाद बिखेरते हैं तो गाना गाते हैं। हमने टीवी पर देखा है। चाचा हंस दिए और हम बच्चों का मन रखने के लिए उन्होंने एक गाना गाया। लेकिन चाचा की आवाज में वो चीज नहीं आ पा रही थी, जो टीवी वाले किसान की आवाज में थी। दूसरा बैकग्राउंड में म्युजिक भी नहीं था। तीसरा चाचा उतने खुश भी नहीं लग रहे थे, जितना टीवी वाला किसान था। वो तो बीच-बीच में मजदूरों को हिदायतें दे रहे थे, ऐसे नहीं, वैसे नहीं।
 
उस क्लोज-अप वाले मुंडे को ही लो, मंजन करते ही उसका काॅन्फीडेंस आसमान छूता है। चारों तरफ तितलियों की तरह लड़कियां इठलाने लगती हैं। दांत रगड़ते-रगड़ते तीस साल हो गए, आज तक उस मुंडे का दस प्रतिशत काॅन्फीडेंस भी नहीं आया। किसी काॅलेज का विज्ञापन देखा है कभी- काला गाउन पहने, सिर पर चैकोर टोपी लगाए, हाथ में डिग्री लेकर उसका ग्रेजुएट अपनी टांगें मोड़कर आसमान में ऐसा उछलता है मानो इंद्र का सिंहासन मिल गया हो। लेकिन असल जिंदगी में जब भी मैं किसी काॅलेज के काॅन्वोकेशन में गया तो वहां अपने अंधकारमय फ्यूचर में मोटा चश्मा लगाकर झांकते डिप्रेस्ड स्टूडेंट्स ज्यादा नजर आए और आसमान में उछलता हुआ कोई न दिखा। आजकल रीयल एस्टेट में विज्ञापनों का सबसे ज्यादा जोर है। चैक-चैबारों पर लगे बड़े-बड़े साइन बोर्ड ऐसे वादे करते दिखेंगे कि आपको दो कमरे का दड़बा नहीं, बल्कि एक राजमहल बेच रहे हों। बीस परसेंट की छूट देकर आप पर एहसान भी कर रहे हैं। लेकिन बुकिंग करवाने से लेकर पजेशन लेने तक आपके घुटनों में से एक-एक बूंद तेल न निकलवा लें तो बात है।
 
लेकिन वो दुनिया खुशहाल है। उस दुनिया का युवक जरा सा डियोडरेंट ही छिड़क ले तो लड़की हां कर देती है, इस दुनिया का युवक प्रोपोज करते-करते अपनी जान ही क्यों न छिड़क दे तब भी लड़की के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। शायद इस दुनिया की सारी लड़कियां मेडिकर लगाने लगी हैं। उस दुनिया में आईपीएल देखना एक उत्सव है और इस दुनिया में घर के अंदर देर रात टीवी चलाना एक महाभारत है। उस दुनिया में कपड़े धोने में गोविंदा स्त्री की मदद करता है, इस दुनिया में घर की गृहणी को कपड़े रगड़ते-रगड़ते सालों बीत गए पर पति महोदय ने दो शब्द तारीफ के नहीं बोले। इस दुनिया के लोगों ने वो सारी चीजें खरीदकर देख लीं जो विज्ञापन की दुनिया में दिखाई जाती हैं, लेकिन वैसी वाली खुशी घर में आज तक नहीं आई। ये बात आज तक मेरी समझ में नहीं आई। या तो उस दुनिया की खुशी नकली है या फिर इस दुनिया में टेंशन बहुत ज्यादा है।