Monday, March 19, 2012

लालू के बाद अब बिहार के आलू का जलवा


अब तब बिहार लालू के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन अब अपने आलू के लिए भी जाना जाएगा। जी हां, खबर है कि बिहार में नितीश कुमार नाम के एक किसान ने जैविक खेती के माध्यम से आलुओं की रिकाॅर्ड पैदावार की है (ये संयोग ही है कि किसान का नाम वहां के मुख्यमंत्री के नाम से मिलता है)। किसान ने 72.9 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आलुओं की पैदावार कर एक विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है।

ये खबर पढ़ते वक्त मुझे मेरठ के सेंट्रल पटैटो रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीपीआरआई) की याद आ गई। मेरठ में पत्रकारिता के दौरान सीपीआरआई के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक का इंटरव्यू करने का मौका मिला। बातों-बातों में जब उनसे मैंने पूछा कि अनाज, सब्जियों और फलों में जो पहले स्वाद हुआ करता था वो कहां विलुप्त होता जा रहा है। न गेहूं की रोटी में वो खुशबू हैं न अरहड़ की पाॅलिश्ड दाल में वो स्वाद, कहीं आने वाली पीढ़ी स्वाद से वंचित तो नहीं होने जा रही? क्या अब लोग केवल पेट भरने के लिए खाएंगे और स्वाद भूल जाएंगे? और क्या आलुओं में जेनेटिकली माॅडिफाइड बीजों के इस्तेमाल की तरफ कदम बढ़ाए जा रहे हैं?

इन सवालों के जवाब में  उन्होंने माना कि ये सही बात है कि अनाज, दलहन, तिलहन, सब्जियों और फलों में से स्वाद गायब हो रहा है, जिसका कारण है अधिक से अधिक पैदावार के लिए खेती के तौर तरीकों में बदलाव। उन्होंने कहा कि देश की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है और उपजाऊ जमीनें उसी तेजी के साथ घट रही हैं। कृषि वैज्ञानिकों के ऊपर दबाव है कि वे बढ़ती आबादी के अनुपात में फसलों की पैदावार भी बढ़ाएं। और अगर पैदावार बढ़ानी है तो कहीं न कहीं स्वाद के साथ समझौता करना ही होगा। कृषि के परंपरागत तौर-तरीकों को छोड़कर खेती में आज जीएम बीज (जेनेटिकली माॅडिफाइड), हाइब्रिड बीज और केमिकल्स का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। उन्होंने बताया कि आलू हाई एनर्जी फूड है और क्योंकि भारत की अधिकांश गरीब जनता पेट भरने के लिए आलू पर निर्भर है तो आलू की पैदावार लगातार बढ़ानी ही होगी। इसके लिए जीएम बीजों के प्रयोग पर भी विचार किया जा रहा है।

लेकिन बिहार से जो खबर आई है उसके मुताबिक वहां के किसान ने जैविक खेती के माध्यम से आलू का रिकाॅर्ड उत्पादन किया है। अगर ये बात सही है तो उन कृषि विशेषज्ञों के लिए ये आइना दिखाने वाला है जो मानते हैं कि जीएम बीजों और केमिकल्स के बिना पैदावार को नहीं बढ़ाया जा सकता। जिस समय देश में हरित क्रांति आई थी उस समय खेती के गैर-परंपरागत तरीकों को अपनाना एक मजबूरी हो सकती थी, लेकिन अब हम इतने मजबूर नहीं हैं कि जैविक खेती को सिरे से नकारते रहें और उस दिशा में प्रयास ही न करें। किसी प्रजाति की जींस में छेड़छाड़ करके बाजार और मनुष्य की जरूरतों के अनुरूप तैयार किए जा रहे जीएम बीजों की खासियत ये है कि ये बीज एक ही बार इस्तेमाल किये जा सकते हैं। इन बीजों के फलों से जो बीज प्राप्त होते हैं वे दोबारा नहीं बोए जा सकते। दोबारा बोने के लिए आपको फिर से बाजार पर निर्भर होना पड़ेगा। इन बीजों के रेट का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि एक बार मेरी आंटी ने अपनी गढ़मुक्तेश्वर वाली जमीन में पपीते का बाग लगाने का सोचा, काफी विचार-विमर्श के बाद उन्होंने पूसा कैंपस से बीज खरीदने का प्लान बनाया। तो वहां पपीते के बीजों के रेट थे 90 हजारे रुपए किलो और 20 हजार रुपए किलो। 90 हजार वाले बीजों में ये गारंटी थी कि पपीते के हर पेड़ पर फल आएगा। क्योंकि साधरण पपीते के पेड़ों में जो नर पेड़ होते हैं उन पर फल नहीं लगते। लेकिन वैज्ञानिकों ने उत्पादन बढ़ाने के लिए इसका भी तोड़ निकाल लिया।

वैज्ञानिकों के तोड़ के बारे में तो पूछिए ही मत, उन्होंने किस-किसी चीज के तोड़ नहीं निकाले। पहले टमाटर काटते-काटते उसका दम निकल जाता था, लेकिन आजकल का टमाटर सेब की तरह कटता है और उसमें खटास नाम को नहीं मिलेगी, सब्जी को खट्टा करने के लिए अमचूर डालना पड़ता है। प्याज काटो तो अब आंसू नहीं निकलेंगे। पपीते के अंदर बीज नहीं निकलता। तरबूज में भी बीज कम हो गए हैं। चित्तीदार केला देखने को नहीं मिलता। फल और सब्जियां जल्दी खराब नहीं होते। और बीटी ब्रिंजल के बारे में तो सबको पता ही है। सभी फल और सब्जियां देखने में बेहद सुंदर और आकर्षक होते जा रहे हैं, लेकिन उनके अंदर गुण कितने बचे हैं ये किसी को नहीं पता। और अगर इसी तरह बीजों के लिए किसानों की निर्भरता बाजार पर बढ़ती गई तो गरीब किसान तो गया काम से। रही बात स्वाद की तो बाजारवाद के इस दौर में स्वाद और गुणों की इच्छा न करें, तो ही बेहतर होगा।

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