Tuesday, March 27, 2012

भारतीय गांव तो पान सिंह तोमर जैसे बागी पैदा करने की फैक्ट्री हैं

विकिपीडिया पर पान सिंह तोमर की तस्वीर
फिल्म पान सिंह तोमर भारतीय ग्रामीण परिवेश की सच्ची तस्वीर दिखाती है। उस तस्वीर से बिल्कुल अलग जो कवियों की कविताओं में होती है- संुदरता, प्यार और सौहार्द से भरे गांव! शायद पहले कभी ऐसे गांव रहे हों जो प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण हों, जहां के समाज में आपसी सौहार्द हो, आज हिंदी क्षेत्र के अधिकांश गांव पान सिंह तोमर के गांव से मेल खाते हैं, जहां की परिस्थितियों ने एक बेहतरीन प्रतिभा को बागी (डकैत नहीं; डकैत तो पान सिंह तोमर ने फिल्म में बता ही दिया था कि कहां मिलते हैं।) बनने पर मजबूर कर दिया। उत्तराखंड और हिमाचल में जरूर ऐसे गांव बचे हैं जहां प्राकृतिक सौंदर्य भी है और आपसी सौहार्द भी। लेकिन अब वहां भी धीरे-धीरे राजनीति और पैसे की होड़ पहुंचती जा रही है।

पढ़ाई के दौरान 2004 में काॅलेज टूर पर एक बार मनाली जाना हुआ। हिमाचल का खूबसूरत गांव जो अटल जी को खासा प्रिय है। वहां के लोकल टैक्सी ड्राइवर से हुई बातचीत मुझे आजतक याद है। पत्रकारिता के छात्र होने के नाते मैंने केलांग और सोलांग के रास्ते पर उससे कई सवाल किए थे। मनाली और हिमाचल के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक पक्ष से जुड़े सवाल। बात मनाली के सेबों की और पहाड़ी आलुओं की हुई तो उसने बताया- ‘‘फसल को बेचने के लिए यहां के किसानों को दिल्ली और मुंबई के बाजारों में नहीं जाना पड़ता। हमारे गांव का ही एक एजेंट वहां होता है, जो सबकी फसल की चिंता करता है। हमारा आपसी विश्वास इतना गहरा है कि कोई भी उस एजेंट पर शक नहीं करता, वो जितनी रकम भेजता है वो हमें स्वीकार होती है। और हमें पता है कि वो हमारे साथ कुछ गलत कर ही नहीं सकता। वैसे भी गांव के लोग बेहद भोले हैं वे दिल्ली और मुंबई के बाजारों में फिट नहीं बैठते।’’ काॅलेज टूर पर एक और छोटी सी घटना घटी। हमारी गाड़ी के पीछे चल रही इन्नोवा में जो लड़के सवार थे, उनमें से किसी ने मनाली की एक लड़की को देखकर कोई फब्ती कसी, जिसे सुनकर गाड़ी के ड्राइवर ने गाड़ी को वहीं रोक लिया और गाड़ी चलाने से इंकार कर दिया। उसने लड़कों से कहा ‘‘मनाली की लड़कियां हमारी मां बहनें हैं। आप लोगों को ये सब करना है तो पैदल चले जाइए। यहां का कोई भी ड्राइवर ये सब बर्दाश्त नहीं करेगा।’’ काॅलेज स्टाफ के लड़कों को डांटने और ड्राइवर से माफी मांगने के बाद काॅनवाॅय आगे बढ़ा।

मनाली की ये तस्वीर मैदानी क्षेत्र के गांवों से कतई भिन्न है। मैदानी क्षेत्र के गांव आज ईष्र्या, द्वेष और डाह के शिकार बनकर रह गए हैं। गांवों में रंजिशें, जमीनों को लेकर हत्याएं, मुकदमेबाजी आम हो गई है। छोटी-छोटी बातों को लेकर एक-दूसरे की जान का दुशमन बन जाना, दूसरे की तरक्की देखकर जलना, ईष्र्या के कारण द्वेष रखना और फिर उस द्वेष का रंजिश में बदल जाना और फिर शहर की कचहरियों के चक्कर लगाना गांवों का शगल बनता जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में ऐसी-ऐसी चीजों को लेकर मुकदमेबाजी के दिलचस्प केस मिल जाएंगे कि गधों को भी हंसी आ जाए। मसलन- खेत की मेंढ को लेकर, चैक के कुएं को लेकर, दल्लान में बैठने को लेकर, घर में गिर रहे पनारे या नालियों को लेकर, खेत में भैंस के घुस जाने पर और न जाने कैसी-कैसी हास्यासपद चीजों पर लोग आपस में भिड़ने को तैयार रहते हैं और उस भिडं़त को कोर्ट-कचहरी तक ले जाने में गुरेज नहीं करते। घर चाहे खाने के लाले पड़ रहे हों, लेकिन नाक की झूठी लड़ाई वो पेट पर पत्थर बांधकर लड़ने को भी तैयार हैं। लोगों की आपसी जलन और अहम की लड़ाई न तो उन्हें न तो खुद की तरक्की करने दे रही है और न ग्रामीण समाज की। इस तरह की ओछी लड़ाइयां ग्रामीण समाज को नई सोच देने में बड़ी बाधा बनी हुई है। अगर उस दौर में पान सिंह तोमर को एक श्रेष्ठ धावक से एक बागी बनकर बंदूक उठानी पड़ी तो आज का दौर भी कुछ भिन्न नहीं है। आज के गांवों में भी तमाम युवा ऐसे हैं जिनकी आंखों में आगे बढ़ने के सपने हैं, देश के प्रति सपने हैं, लेकिन गांव की आपसी रंजिशें और आए दिन की छोटी-छोटी परेशानियां उन्हें आगे नहीं बढ़ने देतीं।

राजनीति जब अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर हो तो ठीक लगती है लेकिन जब वो गिरते-गिरते ग्रामीण स्तर तक पहुंच जाए तो बेहद हानिकारक सिद्ध होती है और हो भी रही है। पंचायती राज व्यवस्था बनाई तो गई थी गांवों के विकास के लिए, लेकिन इस व्यवस्था ने ग्रामीण समाज का जितना नुकसान किया शायद उतना किसी चीज ने नहीं किया। ग्राम प्रधान या सरपंच पद को लेकर होने वाली ग्रामीण स्तर की राजनीति ने गांव के समाज को बुरी तरह बांटकर रख दिया। और इतना गहरा बांटा है कि खाइयों को पाटना नामुमकिन लगता है। पंचायती राज व्यवस्था के तहत होने वाले चुनावों से हो रहे नुकसान को शायद अन्ना हजारे को भी दिखा होगा, तभी तो रालेगणसिद्धि से जुड़े तमाम गांवों में ग्राम प्रधान के चुनाव नहीं होते, बल्कि सरपंच को सर्वसम्मति से चुना जाता है। गांवों के सामाजिक ताने-बाने को मजबूत रखने के लिए अन्ना द्वारा उठाया गया ये एक बेहद जरूरी कदम है। भारत के गांव अगर इसी तरह राजनीति के शिकार होते रहे तो फिर गांवों को बचाना मुश्किल होगा। सांप जब बाहर घूमता है टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलता है, लेकिन जब भी अपने घर में घुसता है तो सीधा घुसता है। गांव भारत के सच्चे घर हैं, राष्ट्रीय स्तर पर भले ही राजनीति का टेढ़ापन झेला जा सकता है, लेकिन अगर राजनीति का ये टेढ़ापन गांवों में घुसता रहा तो नुकसान ही नुकसान है। गांवों को राजनीति से दूर सीधी-सादी जिंदगी से भरा ही रहने दिया जाए तो बेहतर होगा। खासतौर से हिंदी पट्टी के मैदानी क्षेत्र के गांवों को पहाड़ के ग्रामीण समाज से और अन्ना के रालेगणसिद्धि से काफी कुछ सीखने की जरूरत है।

Monday, March 19, 2012

लालू के बाद अब बिहार के आलू का जलवा


अब तब बिहार लालू के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन अब अपने आलू के लिए भी जाना जाएगा। जी हां, खबर है कि बिहार में नितीश कुमार नाम के एक किसान ने जैविक खेती के माध्यम से आलुओं की रिकाॅर्ड पैदावार की है (ये संयोग ही है कि किसान का नाम वहां के मुख्यमंत्री के नाम से मिलता है)। किसान ने 72.9 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आलुओं की पैदावार कर एक विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है।

ये खबर पढ़ते वक्त मुझे मेरठ के सेंट्रल पटैटो रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीपीआरआई) की याद आ गई। मेरठ में पत्रकारिता के दौरान सीपीआरआई के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक का इंटरव्यू करने का मौका मिला। बातों-बातों में जब उनसे मैंने पूछा कि अनाज, सब्जियों और फलों में जो पहले स्वाद हुआ करता था वो कहां विलुप्त होता जा रहा है। न गेहूं की रोटी में वो खुशबू हैं न अरहड़ की पाॅलिश्ड दाल में वो स्वाद, कहीं आने वाली पीढ़ी स्वाद से वंचित तो नहीं होने जा रही? क्या अब लोग केवल पेट भरने के लिए खाएंगे और स्वाद भूल जाएंगे? और क्या आलुओं में जेनेटिकली माॅडिफाइड बीजों के इस्तेमाल की तरफ कदम बढ़ाए जा रहे हैं?

इन सवालों के जवाब में  उन्होंने माना कि ये सही बात है कि अनाज, दलहन, तिलहन, सब्जियों और फलों में से स्वाद गायब हो रहा है, जिसका कारण है अधिक से अधिक पैदावार के लिए खेती के तौर तरीकों में बदलाव। उन्होंने कहा कि देश की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है और उपजाऊ जमीनें उसी तेजी के साथ घट रही हैं। कृषि वैज्ञानिकों के ऊपर दबाव है कि वे बढ़ती आबादी के अनुपात में फसलों की पैदावार भी बढ़ाएं। और अगर पैदावार बढ़ानी है तो कहीं न कहीं स्वाद के साथ समझौता करना ही होगा। कृषि के परंपरागत तौर-तरीकों को छोड़कर खेती में आज जीएम बीज (जेनेटिकली माॅडिफाइड), हाइब्रिड बीज और केमिकल्स का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। उन्होंने बताया कि आलू हाई एनर्जी फूड है और क्योंकि भारत की अधिकांश गरीब जनता पेट भरने के लिए आलू पर निर्भर है तो आलू की पैदावार लगातार बढ़ानी ही होगी। इसके लिए जीएम बीजों के प्रयोग पर भी विचार किया जा रहा है।

लेकिन बिहार से जो खबर आई है उसके मुताबिक वहां के किसान ने जैविक खेती के माध्यम से आलू का रिकाॅर्ड उत्पादन किया है। अगर ये बात सही है तो उन कृषि विशेषज्ञों के लिए ये आइना दिखाने वाला है जो मानते हैं कि जीएम बीजों और केमिकल्स के बिना पैदावार को नहीं बढ़ाया जा सकता। जिस समय देश में हरित क्रांति आई थी उस समय खेती के गैर-परंपरागत तरीकों को अपनाना एक मजबूरी हो सकती थी, लेकिन अब हम इतने मजबूर नहीं हैं कि जैविक खेती को सिरे से नकारते रहें और उस दिशा में प्रयास ही न करें। किसी प्रजाति की जींस में छेड़छाड़ करके बाजार और मनुष्य की जरूरतों के अनुरूप तैयार किए जा रहे जीएम बीजों की खासियत ये है कि ये बीज एक ही बार इस्तेमाल किये जा सकते हैं। इन बीजों के फलों से जो बीज प्राप्त होते हैं वे दोबारा नहीं बोए जा सकते। दोबारा बोने के लिए आपको फिर से बाजार पर निर्भर होना पड़ेगा। इन बीजों के रेट का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि एक बार मेरी आंटी ने अपनी गढ़मुक्तेश्वर वाली जमीन में पपीते का बाग लगाने का सोचा, काफी विचार-विमर्श के बाद उन्होंने पूसा कैंपस से बीज खरीदने का प्लान बनाया। तो वहां पपीते के बीजों के रेट थे 90 हजारे रुपए किलो और 20 हजार रुपए किलो। 90 हजार वाले बीजों में ये गारंटी थी कि पपीते के हर पेड़ पर फल आएगा। क्योंकि साधरण पपीते के पेड़ों में जो नर पेड़ होते हैं उन पर फल नहीं लगते। लेकिन वैज्ञानिकों ने उत्पादन बढ़ाने के लिए इसका भी तोड़ निकाल लिया।

वैज्ञानिकों के तोड़ के बारे में तो पूछिए ही मत, उन्होंने किस-किसी चीज के तोड़ नहीं निकाले। पहले टमाटर काटते-काटते उसका दम निकल जाता था, लेकिन आजकल का टमाटर सेब की तरह कटता है और उसमें खटास नाम को नहीं मिलेगी, सब्जी को खट्टा करने के लिए अमचूर डालना पड़ता है। प्याज काटो तो अब आंसू नहीं निकलेंगे। पपीते के अंदर बीज नहीं निकलता। तरबूज में भी बीज कम हो गए हैं। चित्तीदार केला देखने को नहीं मिलता। फल और सब्जियां जल्दी खराब नहीं होते। और बीटी ब्रिंजल के बारे में तो सबको पता ही है। सभी फल और सब्जियां देखने में बेहद सुंदर और आकर्षक होते जा रहे हैं, लेकिन उनके अंदर गुण कितने बचे हैं ये किसी को नहीं पता। और अगर इसी तरह बीजों के लिए किसानों की निर्भरता बाजार पर बढ़ती गई तो गरीब किसान तो गया काम से। रही बात स्वाद की तो बाजारवाद के इस दौर में स्वाद और गुणों की इच्छा न करें, तो ही बेहतर होगा।

Tuesday, March 13, 2012

राजनीति में परिवारवादः मजबूत परिवार संस्था की निशानी?

भारतीय राजनीति पर हमेशा से परिवारवाद और भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। तर्क ये कि लोकतंत्र में परिवारवाद के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। मिसाल दी जाती है पश्चिमी देशों की। हालांकि इंग्लैंण्ड जैसा लोकतंत्र सदियों से एक शाही परिवार के अंगूठे के नीचे काम करता चला आ रहा है। अब इसे सही मानें या गलत, लेकिन भारतीय राजनीति में परिवारवाद कहीं न कहीं भारतीय समाज की मजबूत परिवार संस्था को ही दर्शाता है। जिन देशों में परिवार संस्थाएं बेहद कमजोर हैं वहां की राजनीति में भी परिवारवाद कम देखने को मिलता है। भारत समेत अधिकांश एशियाई देश भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत काम कर रहे हों, लेकिन वहां की राजनीति में परिवारों का खासा दखल है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इन देशों के समाज में परिवार आज भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जबकि पश्चिमी देशों में परिवार संस्थाएं तेजी से भरभरा रही हैं।


देश के उत्तरी छोर से शुरू करते हुए अगर भारत पर नजर डालें तो- जम्मू कश्मीर की नेशनल काॅन्फ्रेंस में अब्दुल्ला परिवार और पीडीपी में मुफ्ती परिवार, उत्तर प्रदेश की सपा में मुलायम सिंह का परिवार और रालोद में चै. अजीत सिंह का परिवार, पंजाब के अकाली दल में बादल परिवार, हरियाणा के इनेलो में चैटाला परिवार, बिहार के राजद में लालू यादव परिवार, उड़ीसा के बीजद में पटनायक परिवार, महाराष्ट्र की शिव सेना में ठाकरे परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, ग्वालियर का सिंधिया परिवार और सबके ऊपर एक राष्ट्रीय परिवार- गांधी परिवार। भारत की राजनीति पूरी तरह परिवारों के गिरफ्त में है। भारतीय राजनीति में परिवार इतने महत्वपूर्ण हो चले हैं कि उनको राजनीति से अलग किया ही नहीं जा सकता। और जिस तरह जनता इन पारिवारिक पार्टियों के सिर पर जीत का सेहरा बांधती आ रही है, उसे देखकर तो यही लगता है कि आम जनमानस को परिवारवाद से कोई खास दिक्कत नहीं है।

वाम दल और भाजपा ऐसी पार्टियां हैं जहां पारिवारिक उत्तराधिकारी देखने को नहीं मिलते। भाजपा के वरिष्ठ नेता अपने बच्चों को सांसद और विधायक के पदों तक तो पहुंचाने में सफल रहे हैं, लेकिन किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के बेटे के सीएम-पीएम बनने के उदाहरण नहीं दिखते। भाजपा में संघ का दखल व अनुशासन और वाम दलों में पार्टी की सख्त कार्यप्रणाली व नीतियां इसके पीछे मुख्य कारण हो सकती है। लेकिन कांग्रेस समेत देश की बाकी पार्टियों में परिवारों का खासा बोलबाला है। वैसे भी ये तो इस देश की संस्कृति रही है कि पिता अपने पुत्र को और भाई अपने भाई को सदा से मजबूत बनाता चला आया है। तो अगर राजनीतिक दलों में ऐसा हो रहा है तो उसमें हैरान होने की कोई बात नहीं। भारत के जिन घरों में पिता-पुत्र और भाई-भाई के रिश्तों में दरारें हैं उन घरों को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। हमारे यहां खून के रिश्तों को इतना महत्व दिया जाता है कि सर्वोच्च पदों पर पहुंचने के बाद भी रिश्तों को दरकिनार नहीं कर सकते। जिस दिन भारतीय समाज में व्याप्त मजबूत परिवार संस्था कमजोर होगी उस दिन भारतीय राजनीति से भी परिवारवाद खत्म होना शुरू हो जाएगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र के लिए परिवारवाद अच्छा नहीं, लेकिन आजादी के 65वें साल में भी लाख हो-हल्ले के बावजूद देश की राजनीति से परिवारवाद नहीं मिट पा रहा है। अगर केंद्रीय सरकार की बात करें तो 65 में से तकरीबन 50 सालों तक एक मात्र नेहरू-गांधी परिवार की बादशाहत रही है। उसी तरह जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार भी एकछत्र शासन करता चला आ रहा है। वैसे भारत में लोकतंत्र की स्थापना से पहले जो राजतांत्रिक व्यवस्था थी उसमें भी एक ही वंश लगातार शासन करता था। तो उस हिसाब से वर्तमान लोकतंत्र को उसी राजतांत्रिक व्यवस्था का सुधरा हुआ रूप भी कहा जा सकता है।

Friday, March 9, 2012

शब्दों के शेर!



विंस्टन चर्चिल ने जब ये बयान दिया होगा कि ‘वल्र्ड इज रूल्ड बाय वड्र्स’ तब उन्होंने भारत के बारे में नहीं सोचा होगा, जहां के नेताओं से बड़े ‘शब्द शेर’ शायद ही विश्व के किसी देश में पाए जाते हों। हमारे देश में ये प्रजाति बहुतायत में पाई जाती है। जिलास्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक, दक्षिणपंथियों से लेकर वामपंथियों तक, गांधीवादियों से लेकर समाजवादियों, दिल्ली से लेकर दादरा नागर हवेली तक एक से बढ़कर एक ‘शब्द शेर’ सड़कों पर घूमते फिरते हैं। ये प्रजाति इतनी तेजी से बढ़ रही है कि किसी भी प्रकार की नसबंदी से इसे रोका नहीं जा सकता।

चुनाव आयोग के सौजन्य से, जनता के हित में पंच राज्यीय चुनाव कार्यक्रम के तहत जो लीला आयोजित की गई उसमें तमाम पार्टियों के ‘शब्द शेर’ हमें अपने गलियों में घूमते दिखे। जनता के हित में उन्होंने ऐसे-ऐसे शब्दों का उच्चारण किया कि कोई भी शब्द भेदी बाण उन्हें नहीं भेद सकता। चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक पार्टियों के ‘शब्द शेर’ ऐसे दावे करते हैं कि गधों को भी हंसी आ जाए और फिर चुनावों के बाद वही ‘शब्द शेर’ अपने कहे हुए शब्दों पर फिर से शब्दों की लीपापोती करते हैं। सबका दावा यही कि सरकार हमारी पार्टी कि बनेगी, मानो कई सरकारें एक साथ बनने वाली हों।

रही बात वादों की तो जुबान हिलाने में क्या जाता है। एक कहे कि मेरी पार्टी की सरकार बनी तो मैं भैंस दूंगा तो दूसरा बोले कि मैं भैंस के संग लवाड़ा भी दूंगा। कोई बोले साइकिल दूंगा तो कोई बोले मोटरसाइकिल दूंगा, वो भी तेल भरवाकर। अब समाजवादी पार्टी को ये उम्मीद नहीं रही होगी कि पब्लिक बावरी इत्ता बड़ा बहुमत दे देगी। अब पार्टी को सोचना पड़ रहा होगा कि 18 करोड़ जनसंख्या वाले प्रदेश में कैसे इत्ते सारे लैपटाॅप और आईपैड बांटेंगे। वैसे भी मायावती ने खजाने में कुछ छोड़ा नहीं है, अरबों का खर्च आएगा, सरकार की तो बधिया बैठ जाएगी।

चुनाव परिणामों के बाद इन शब्द शेरों के बयान में थोड़ा बदलाव तो होता है, लेकिन फिर भी बात को ऐसे घुमाफिराकर कहेंगे कि उनकी हार भी हार नहीं लगती। पता नहीं सीधे-सीधे हार स्वीकारने में क्या घिसता है। यूपी में चुनाव परिणामों के बाद आए पार्टियों और नेताओं के कुछ खास बयानों को देखिएः


अखिलेश यादवः

हमने शानदार जीत दर्ज की हैः जिसकी हमें भी उम्मीद नहीं थी।

कांग्रेस के साथ संबंध अच्छे रहेंगेः क्या करें बयान बदल नहीं सकते सुबह के वक्त लग रहा था कि उनके समर्थन की जरूरत पड़ेगी, पर शाम होते-होते..

हार जीत तो होती रहती हैः अगली बार हम हार जाएंगे, इसमें क्या बात है।

प्रदेश में पार्टी पदाधिकारियों को गुडई नहीं करने दी जाएगीः गुंडई तो शुरू हो भी गई।

 पार्टी अपने सभी वादे पूरे करेगीः कैसे करेगी ये मुझे भी नहीं पता।


भाजपाः

हमने गोवा में अच्छा प्रदर्शन किया हैः आप से सवाल यूपी के बारे में पूछा गया है।

यूपी के परिणाम से हम निराश नहीं हैं: इससे ज्यादा निराशाजनक और क्या देखना चाहते हैं?

हमारा जनाधार बढ़ा हैः पर सीटें तो घट गईं!

पार्टी द्वारा आत्ममंथन किया जाएगाः चुनावों से पहले क्यों नहीं किया?



सोनिया गांधीः

यूपी की जनता के पास सपा का ही विकल्प थाः तो आपकी पार्टी वहां क्या झुनझुना बजाने गई थी?

यूपी में हमारा संगठन कमजोर थाः ये बात आपको करोड़ों खर्च करके हारने के बाद क्यों पता चली?

अमेठी और रायबरेली के लोगों को हमारे उम्मीदवार पसंद नहीं आएः 2014 में आपको और राहुल को वहां से उम्मीदवारी करनी है, कृपया अभी से विचार कर लें।

पिछली बार से सीटें बढ़ी हैं, 22 से 28 हो गएः इस हिसाब से अगली बार 34 मिलेंगी।



मायावतीः

यूपी में गुंडाराज आ गया है यहां कि जनता जल्द ही मेरे (कु) शासन को याद करेगीः लेकिन आपको तो कम से कम पांच साल इंतजार करना ही होगा।

लोग मेरी सरकार से नाराज नहीं थे, वरना बसपा को 76 सीटें नहीं मिलतीं, मेरा भी हाल बिहार में लालू जैसा होताः दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है...

मुझे भाजपा, कांग्रेस, मुस्लिम और मीडिया ने हरायाः तो क्या मैडम आपको लगता था कि भाजपा और कांग्रेस आपको जिताने के लिए चुनाव लड़ रही थीं।

Wednesday, March 7, 2012

पार्टियों को लेना होगा इस जनादेश से सबक!


पांच राज्यों के चुनाव परिणाम देश के राजनीतिक व्यवस्था के लिए कई पाठ सिखाने वाले हैं। शह और मात के राजनीतिक खेल में कई पार्टियों के समीकरण बिगाड़ कर रख दिए हैं। सपा, बसपा, भाजपा, अकाली और कांग्रेस के लिए ये चुनाव कई सबक लेकर आए। सबसे अच्छी बात ये रही कि उत्तराखंड को छोड़कर हर जगह जनता ने एक पार्टी के पक्ष में बहुमत दिया है। न त्रिशंकु विधान सभा, न राष्ट्रपति शासन और न मध्यावधि चुनावों की गुंजाइश। उत्तराखंड में भी परिस्थितियां इतनी बुरी नहीं हैं। कांग्रस या भाजपा अन्यों के भरोसे अगर सरकार बनाती है तो वो स्थाई ही होगी। इन चुनावों के परिणामों ने साफ कर दिया है कि आवाम अब पहले से काफी जागरूक है। जनता ने तमाम गुंडों, दबंगों और बाहुबलियों को हराकर साफ संदेश दे दिया है कि उसे अपने ही जैसे साफ-सुथरे और सज्जन नेता चाहिए। पार्टियां इन चुनावों से क्या सबक ले सकती हैं, आइए डालते हैं एक नजरः 

समाजवादी पार्टीः सबसे पहले बात सपा की करते हैं जिसके सिर पर जनता ने जीत का सेहरा बांधा है। इस जीत का श्रेय अगर अखिलेश यादव को दिया जा रहा है तो इसमें कोई गलत नहीं है। ये अखिलेश ही हैं जिन्होंने पार्टी में नए प्रयोग किए, खांटी नेताओं की जगह युवाओं को टिकट वितरित किए, जिनमें इंजीनियर, डाॅक्टर और मैनेजर शामिल हैं, पार्टी के दिग्गज नेताओं के खिलाफ जाकर डीपी यादव का टिकट कैंसिल कराया, गांव-गांव और गली-गली जाकर चुपचाप पार्टी के लिए काम किया। अखिलेश पिछले नौ साल से सपा के साथ राजनीति में सक्रिय हैं और दो बार से सांसद हैं। लेकिन नौ सालों में कभी अखिलेश ने मीडिया अटेंशन प्राप्त करने की कोशिश नहीं की। मीडिया को राहुल को युवराज-युवराज कहकर पुकार रही थी, लेकिन यूपी के असली युवराज अखिलेश साबित हुए। ऐसा नहीं है कि अखिलेश ने ग्रासरूट लेवल पर जाकर काम नहीं किया, उन्होंने कस्बाई स्तर तक जाकर जमकर काम किया लेकिन राहुल की तरह कभी कैमरे के सामने नहीं किया। शायद वो जानते थे कि दिखावे पर मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ। बेहद संयत भाषा में, बेहद विनम्र तरीके से वो जनता के बीच अपना काम करते रहे और छह मार्च को जनता ने उनके हक में परिणाम दे दिया। तब जाकर देश की मीडिया को एहसास हुआ कि देश में राहुल के अलावा भी एक और युवा नेता है। लेकिन अखिलेश ने अभी भी अपनी भाषा का संयम नहीं खोया, न माया के खिलाफ और न कांग्रेस के खिलाफ। चुनौतियाः लेकिन अखिलेश के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां इंतजार कर रही हैं। सपा के जिस गुंडाराज की बात हमेशा विपक्ष और मीडिया करता आया है, उसका एक ट्रेलर चुनावी नतीजे सामने आते ही दिखने लगा। शाम होते-होते यूपी के तमाम जिलों से हिंसा और मौतों की खबरें आने लगीं। अखिलेश में जो संमय और समझदारी है उस स्तर का संयम सपा के कार्यकताओं में ला पाना बेहद मुश्किल है, क्योंकि सपा का जनाधार समाज के बेहद निचले स्तर तक है, जहां सत्ता का मतलब केवल अहंकार के मद में चूर रहना होता है। अगर सपा के कार्यकर्ताओं ने इस बार भी थानों पर कब्जे, गुंडागर्दी और दबंगई दिखाई तो जनता सपा को 2014 में सबक सिखाने से गुरेज नहीं करेगी। ये एक तरह से अच्छा निर्णय है कि मुलायम मुख्यमंत्री बनेंगे, इससे अखिलेश को अपने संगठन को शक्ति देने का वक्त मिलेगा। लेकिन अखिलेश ने संगठन को संयमित करने के लिए कदम नहीं उठाए तो उनके लिए भारी पड़ सकता है। अखिलेश को देखना होगा कि वो राहुल गांधी की तरह पार्टी के कुछ चुनिंदा नेतओं के हाथों की कठपुतली न बनें, बल्कि इसी संयम और विवेक के साथ पार्टी को सीख देते रहें। प्रदेश ने जितनी बड़ी जीत दी है तो जनता अखिलेश से उतनी ही बड़ी उम्मीदें रखेगी। अगर वो जिलास्तर तक अपनी पार्टी के छुटभैये नेताओं को कंट्रोल करने और भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में सफल रहते हैं तो हो सकता है कि यूपी की जनता उन्हें दिल्ली की उस कुर्सी पर बिठा दे जिस पर राहुल की नजरें हैं।

बहुजन समाज पार्टीः बसपा को जिस नाज के साथ यूपी की जनता ने 2007 में लखनऊ के तख्त पर बिठाया था, बसपा उस जनता के लिए कुछ खास करने में विफल रही। जनता के करोड़ों रुपये खर्च करके अपने पुतले खड़े करवाकर माया ने भले ही खुद को और अपने एक खास वोट बैंक को भले ही खुश कर दिया हो, लेकिन प्रदेश की आम आवाम को ये शाही खर्च कतई पसंद नहीं आया। सत्ता में आते ही सबसे पहले माया द्वारा अपना बंगला बनवाना, जन्मदिन पर नोटों का हार पहनना, प्रशासनिक अधिकारियों से ब्रीफकेस लेना, भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए हुई हत्याएं जनता के गले नहीं उतरीं। कांग्रेस के नेता भले ही कह रहे हों कि भ्रष्टाचार चुनावों में मुद्दा नहीं था, लेकिन अन्ना हजारे द्वारा चलाई गई भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का प्रदेश की जनता पर साफ-साफ असर दिखा। मायावाती जिस दलित समाज के कंधे पर पांव रखकर चार बार सत्ता पर काबिज हुईं उस दलित समाज की स्थिति में उनके इस पांच साल के शासन में कोई खास फर्क पड़ता नहीं दिखाई। दलित समाज की माली हालत सुधरी हो या न सुधरी हो, लेकिन मायावती की आर्थिक स्थिति आज बेहद मजबूत है। माया जिस सख्त शासन के लिए जानी जाती हैं, अगर उस सख्ती का लाभ उन्होंने प्रदेश को सुशासन देने में उठाया होता तो यूपी की तस्वीर आज कुछ और होती। लेकिन उन्होंने इन पांच सालों को केवल निजी लाभ उठाने के लिए इस्तेमाल किया। जिस लाड़ के साथ जनता ने उनको 206 सीटें देकर सत्ता सौंपी थी, माया ने उस सत्ता को प्राप्त करके न तो विनम्रता दिखाई और न बड़प्पन, पांच साल तक केवल ऐंठ और अहंकार नजर आता रहा। वो देश की पहली ऐसी नेता बनीं जिसने जीते जी पार्कों में अपनी मूर्तियां ठुकवाईं, वो थोड़ा बहुत नहीं बल्कि करोड़ों का राजस्व खर्च करके। मंच पर खड़े होकर सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का नारा चिल्लाने से सर्वजन सुखी नहीं हो सकता। सर्वजन को सुखी करने के लिए कुछ करना भी पड़ता है। माया का थैली और ब्रीफकेस के प्रति प्यार प्रदेश में किसी से नहीं छिपा। टिकट बेचने से लेकर जन्मदिन के उपहारों तक। प्रशासन पर केवल सख्ती बरतने से सुधार नहीं हो सकता, प्रशासनिक अधिकारियों के मन में प्रदेश के मुखिया के प्रति सम्मान भी होना जरूरी है। वो सम्मान थैलियां बटोरने से तो नहीं आ सकता था। माया अगर ये सोच रही हों कि तमिलनाडु की तरह यूपी की सत्ता एक-एक बार सपा और बसपा को मौका देती रहेगी, तो भी ये उनकी भूल होगी। भाजपा और कांग्रेस अभी भी खेल में बनी हुई है। माया को चाहिए कि वो नारों को छोड़कर हकीकत में दलितों के उत्थान के लिए कुछ करके दिखाएं। उनका सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर सुधारने के लिए जरूरी नहीं कि माया सीएम की कुर्सी पर बैठी हों, एक संगठन और आम नागरिक के तौर पर भी वो दलितों के उत्थान के लिए काफी कुछ कर सकती हैं, क्योंकि अभी काफी कुछ करना बाकी है। बसपा के लिए खुशी की बात यही है कि उसकी सत्ता रहे न रहे लेकिन हाथी और मूर्तियां बनी रहेंगी।

भारतीय जनता पार्टीः भारतीय जनता पार्टी के लिए गोवा को छोड़कर कहीं भी खुश होने की स्थिति नहीं है। यूपी में 51 से घटकर 47, पंजाब में 19 से घटकर 12 और उत्तराखंड में पार्टी 31 पर सिमट गई है। अटल बिहारी वाजपेयी के जाने के बाद भाजपा में जो शून्य पैदा हुआ है उसको भर पाना नामुमकिन लग रहा है। आदर्श, सिद्धांत और त्याग की बात करने वाली पार्टी की अंदरूनी हालत ऐसी हो गई है कि पदलोलुपता, टांग खिंचाई, भितराघात जैसी बीमारियां सिर चढ़कर बोल रही हैं। भाजपा आज एक डिवाइडेड हाउस नजर आ रही है। उत्तराखंड में निशंक ने अंदरखाने खंडूरी को हरवाने के पूरे प्रयास किए। वरुण गांधी, मेनका गांधी, योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी ने यूपी के प्रचार में भाग नहीं लिया। ये भाजपा के वो नाम हैं जिनको जनता पसंद करती है। लेकिन फिर पार्टी ने आपसी सौहार्द कायम करने की दिशा में कदम नहीं उठाए। पार्टी के खुद के नेता भाजपा के हारने की भविष्यवाणी कर रहे थे। वरुण ने कहा कि पार्टी में सीएम पद के 55 उम्मीदवार हैं, योगी ने कहा कि भाजपा हारेगी, संघ के काशी प्रचारक का बयान आया कि भाजपा हार ही जाए तो अच्छा। दरअसल ये सभी पार्टी का बुरा नहीं चाहते, बल्कि ये उनके अंदर का गुस्सा और पार्टी की कार्यप्रणाली के प्रति उनकी खुंदक बोल रही थी। यूपी में उमा भारती और राजनाथ सिंह सीएम पद के दावेदार थे, वरुण गांधी और मेनका गांधी भी महत्वपूर्ण भूमिका की चाहत में मुंह फुलाए थे। 2009 के आम चुनाव में आडवाणी के नाम पर भाजपा को जनता का मैंडेट नहीं मिला। अब पार्टी के अंदर पीएम पद के तमाम दावेदार हैं- मोदी, सुष्मा, राजनाथ, जेटली, मुरली मनोहर जोशी, ऐसे में पार्टी एकजुट होकर कभी चुनाव लड़ ही नहीं सकती। पार्टी की हार-जीत की तरफ किसी का ध्यान नहीं, सबको सीएम और पीएम बनना है। सीएम-पीएम न भी बनें तो दावेदार तो बनना ही बनना है। ऐसी परिस्थिति में भाजपा को अमेरिकी पार्टियों से सीख लेनी चाहिए और सीएम-पीएम पद के लिए चुनावों से पहले इंटरनल इलेक्शन करा लेना चाहिए। डिवाइडेड हाउस के तौर पर चुनाव लड़ने से अच्छा है कि एक बार इंटरनल डिविजन ही करवा लिया जाए। दूसरे भाजपा को अब मुसलमानों के प्रति जो उसकी छवि बना दी गई है, उस छवि को सुधारना होगा। ऐसा नहीं है कि भाजपा मुसलमानों के प्रति दुर्भावना से काम करती है। वाजपेयी सरकार के सात साल, और तमाम प्रदेशों में भाजपा की सरकारों के काम को देखा जाए तो भाजपा ने कहीं भी दुर्भावाना से काम नहीं किया है। गुजरात के दंगों को लेकर जरूर हायतौबा मची है। इस्लाम के प्रति भाजपा के मन में दुर्भावना होती तो वाजपेयी बस लेकर लाहौर न जाते, पाकिस्तान के फौजी तानाशाह को आगरा बुलाकर मुर्गमुसल्लम न खिलाते और आडवाणी-जसवंत जिन्ना की तारीफ में कसीदे न पढ़ते। भाजपा को अपना राष्ट्रवादी एजेंडा लोगों के बीच ले जाने की जरूरत है और राम मंदिर के मुद्दे को आपसी समझौते से सुलझाने की आवश्यकता है। भाजपा को अपना हाई प्रोफाइलपना छोड़कर आम लोगों के बीच पहुंच बनानी चाहिए। भाजपा को शहर की चमक से निकलकर गांवों की धूल भी छाननी चाहिए। भाजपा में धन को इतना महत्व दिया जा रहा है कि वो बनियों और उद्योगपतियों की पार्टी बनकर रह गई है। धन बहुत बड़ा फैक्टर होता है, लेकिन टिकट बांटते समय जनाधार वाले नेताओं को दरकिनार न किया जाए।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसः इन चुनावों में सबसे पतली हालत अगर किसी की हुई तो वो है कांग्रेस। इस राष्ट्रीय पार्टी ने इन चुनावों में गिरावट के सारे कीर्तिमान तोड़ दिए। चुनाव आयोग को चुनौतियां दीं, खराब भाषा का इस्तेमाल किया, आस्तीनें चढ़ाईं, विरोधियों का माखौल उड़ाया, उनका मेनिफेस्टो फाड़े, आरक्षण का ओछा कार्ड खेला, लेकिन कुछ काम नहीं आया। राहुल गांधी 39 साल की उम्र में भी काफी अपरिपक्व नजर आ रहे थे। जो परिपक्वता अखिलेश ने इन नौ सालों में चुपचाप हासिल की, उस स्तर की परिपक्वता राहुल तमाम मीडिया मैनेजमेंट के बावजूद हासिल नहीं कर पाए। चमचागीरी सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई। हार का तमगा टांगने के लिए पार्टी के तमाम बड़े नेता राहुल के चरणों में लंबलेट होने को तैयार हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ किया गया कांग्रेस का बुरा सलूक वोटों में ऐसा तब्दील हुआ कि दोनों भाई-बहन रायबरेली की इज्जत भी नहीं बचा पाए। कांग्रेस की केंद्र सरकार में लगातार उजागर हो रहे भ्रष्टाचार के मामले जनता को कतई पसंद नहीं आ रहे। राहुल गांधी मायावती के भ्रष्टाचार पर उंगलियां उठाने से पहले अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार पर लगाम कसते तो लोग उनपर कहीं ज्यादा पसंद करते। शायद ये पहली बार ही हुआ है कि सत्ता में रहते हुए किसी सरकार के कई मंत्री सलाखों के पीछे पहुंचे। लाख मुकदमों के बावजूद सुरेश कलमाड़ी को अभी तक कांग्रेस से निकाला नहीं गया है। लगातार बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से लोग परेशान हैं। उस पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों के साथ कांग्रेस ने जो बर्ताव किया वो बेहद निंदनीय है। सोते हुए लोगों पर लाठचार्ज करना किसी तानाशाही की याद दिलाता है। ये बात सही है कि कांग्रेस का अस्तित्व नेहरू-गांधी परिवार के बिना खतरे में पड़ जाता है। नरसिंह राव और सीताराम केसरी के जमाने में लगने लगा था कि कांग्रेस खत्म हो गई समझो। लेकिन सोनिया के बागडोर संभालने के बाद पार्टी में नई जान आई और उसके नेता फिर से कमाने खाने लगे। लेकिन गांधी परिवार का मतलब ये नहीं कि चमचागीरी की सारी हदें पार कर दी जाएं। आज कांग्रेस का एक-एक नेता रीढ़विहीन इंसान की तरह हो गया है, जो हर समय मैडम और बाबा के चरणों में गिरने को तैयार रहता है। प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री जिस तरह राहुल की तारीफों के पुल बांधते हैं उसे देखकर लगता है कि सबकी आंखों में काला चश्मा चढ़ा है जिसमें से सिर्फ राहुल ही राहुल नजर आते हैं। राहुल के हावभाव से यही लगता है कि भारतीय राजनीति के लिए राहुल अभी कतई तैयार नहीं है। हालांकि यही बात इंदिरा गांधी के शुरुआती दिनों में भी कही जाती थी, लेकिन बाद में वो एक परिपक्व राजनीतिज्ञ साबित हुईं। लेकिन इन चुनाव परिणामों को देखकर कांग्रेस को हवा का रुख समझना चाहिए। जनता को आज वो कांग्रेस चाहिए जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था। जिसकी पहुंच गांव-गांव तक थी। जो सत्य, अहिंसा और त्याग की बुनियाद पर खड़ी थी। जहां पद की लोलुपता के लिए जगह नहीं थी। कांग्रेस को पार्टी और यूपीए के अंदर खाओ और खाने दो की प्रवृत्ति पर लगाम कसनी होगी। अन्यथा देश के साथ-साथ पार्टी का भी बंटाधार हो जाएगा। दूसरी बात, मुसलमानों के लिए मंच से बड़ी-बड़ी बातें करके उनको वोटबैंक बनाने से बेहतर होगा कि पार्टी मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने के लिए हकीकत में कोई दूरगामी कदम उठाए। केवल कर्जा माफी, आरक्षण और पैसा बांटने से किसी समुदाय का विकास नहीं हो सकता। मुसलमानों के बीच जो अशिक्षा है सबसे पहले उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।