Sunday, February 19, 2012

जायका रेलगाड़ी काः फिर चल पड़ा घर से आलू-पूड़ी और अचार बांधकर चलने का चलन...

आजकल फेसबुक पर आईआरसीटीसी की गुणवत्ता की पोल खोलता एक चित्र काफी चर्चित हो रहा है। इसमें आईआरसीटीसी का वेंडर यात्रियों को बेचने वाली चाय तैयार करते दिखाया है। महाशय नहाने का पानी गर्म करने वाली इमरशन राॅड से चाय बना रहे हैं। डिटेल में गया तो पता चला कि तस्वीर काफी पुरानी है, लेकिन फेसबुक पर पदार्पण के बाद खासी चर्चा में है। इमरशन राॅड से पक रही चाय को देखकर आप सोचने को मजबूर हो सकते हैं कि क्यों न स्टेशन पर कुछ भी खाने से परहेज किया जाए?

पानी गर्म करने वाली इमरशन राॅड से चाय पकाने की नौबत तकरीबन तीन साल पहले रेलवे के उस फैसले से आई जिसमें प्लेटफाॅर्म के ऊपर गैस सिलेंडर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। आगजनी के भय से रेलवे ने ये फैसला किया था कि प्लेटफाॅर्म पर केवल पका हुआ खाना ही बेचा जाएगा। चलते ठेलों पर किसी भी प्रकार का ज्वलनशील आइटम न लगाया जाए। रेहड़ी वालों को अगर अपने पकवान बेचने हैं तो बाहर से तैयार करके लाएं। इस प्रतिबंध के बाद प्लेटफाॅर्म पर रेहड़ी और ठेला लगाने वालों ने आरोप लगाया था कि ये आईआरसीटीसी के दबाव में रेलवे ने ये कदम उठाया है। क्योंकि आईआरसीटीसी देशभर के स्टेशनों की कैटरिंग हथियाना चाहता है। रेहड़ी वाले आईआरसीटीसी की कमाई में सबसे बड़ा रोड़ा हैं और अपना रास्ता साफ करने के लिए ही आईआरसीटीसी ने लाॅबीइंग करके प्लेटफाॅर्म से सिलेंडर हटवाने का फैसला करवाया है। हालांकि बर्निंग ट्रेन तो कई बार सुनी लेकिन बर्निंग प्लेटफाॅर्म कभी नहीं सुना। फिर भी प्लेटफाॅर्म से सिलेंडर हटाए गए, इसलिए ठेले वालों के आरोप में दम तो नजर आता था। लेकिन ठेले वालों की एक नहीं सुनी गई। धन बल के सामने जन बल हार गया। सिलेंडर का इस्तेमाल पर प्रतिबंध आज भी जारी है। कोई गुपचुप इस्तेमाल कर रहा हो तो दीगर बात है।

अगर बात हाईजीन और गुणवत्ता की करें तो रेलवे स्टेशनों और ट्रेनों में मिलने वाले खाद्य पदार्थों में लगातार गिरावाट आ रही है। कमाई के इस दौर में अगर आप स्वादिष्ट और शुद्ध भोजन की अपेक्षा लेकर रेलवे स्टेशन की तरफ रुख कर रहे हैं तो ये आपकी अच्छी बात नहीं है। वे लोग चार पैसे कमाने बैठे हैं या आपकी इच्छाओं का ख्याल रखने के लिए। दिल खोलकर खर्च करने के बावजूद आप भारतीय रेल में जायका खोजते रह जाएंगे। शायद इंडिया का जायका खोज-खोज कर दर्शकों तक पहुंचा रहे विनोद दुआ ने रेलवे स्टेशनों के जायके पर नजर नहीं डाली है। इंडियन रेलवे का स्वाद चखने के बाद वो सारे इंडिया का जायका ही भूल जाएंगे।

प्लेटफाॅर्म पर बिकने वाली कुल्हड़ वाली चाय और पत्ते के दौने में मिलने वाली आलू-पूड़ी रेल के सफर की पहचान थीं। लेकिन न कुल्हड़ रहे और न दौने। लालू यादव ने कुल्हड़ को जिलाने की कोशिश भी की, लेकिन दुकानदारों को प्लास्टिक और थर्मोकाॅल के सामने मिट्टी महंगी पड़ी। मैं रेल के सफर का पुराना शौकीन हूं। पहले कुछ स्टेशनों पर अच्छी चाय मिल जाती थी। लेकिन अब तो दिल्ली का स्टेशन हो या कटिहार का आपको अच्छी चाय नसीब नहीं हो सकती। इसे आप ग्लोबलाइजेशन कहें या कहें कि पूरे कुएं में ही भांग घुली है। जायके की बात करने पर कुछ लोग ये कहेंगे कि मियां सफर में पेट भर जाए ये ही बहुत है, बड़े आए स्वाद खोजने वाले। चलिए साहब पेट भरने के लिए ही सही, लेकिन चीज शुद्ध तो मिले। जाने कौन से तेल में खाना तैयार होता है कि उसे पचाने के लिए आपकी जेब में डाबर का हाजमोला होना जरूरी है।

लेकिन इस मिलावटखोरी और कमाईखोरी के खेल में एक नया ट्रेंड फिर से देखने को मिल रहा है और जो काफी सुखद भी है। लोगों ने अब फिर अपने घर से खाना बांधकर चलना शुरू कर दिया है। आलू-पूड़ी और आम के अचार की खुशबू जो कुछ समय के लिए रेल के डिब्बे से गायब हो गई थी, अब फिर से लौट आई है। मैं तो कहता हूं कि ये ट्रेंड खूब चले। हम भारतीय तो घर से इतना खाना लेकर चलते थे, कि अपने साथ-साथ आसपास रो रहे किसी बच्चे का भी पेट भर देते थे। लेकिन बीच में ये पैकेज्ड फूड का जमाना आ गया और हम भेड़ चाल के शिकार हो गए। इलीट क्लास में दिखने के लिए जबरदस्ती उस बेस्वाद खाने को मुंह लगाया। और यात्रियों को घटिया माल परोसने वाली आईआरसीटीसी को भी ये बात याद रखनी चाहिए कि उपभोक्ता सबसे शक्तिशाली है। ये किसी को अपनाता है तो आसमान पर बैठा देता है और किसी को पछाड़ता है तो मिट्टी में मिला देता है। चाय-चाय चिल्लाते रह जाओगे, कोई खरीददार नहीं मिलेगा!

स्टैण्डर्ड हाई रखने के वास्ते!!!

मेरा नाई मुझसे खुश नहीं रहता। क्योंकि मैं उससे केवल बाल कटवाता हूं और दाढ़ी बनवाता हूं, फेशियल, फेस मसाज, स्क्रब, थ्रेडिंग, ब्लीच जैसे चोंचले नहीं करवाता। दरअसल बात ये है कि आजकल रेस्तरां और नाई की दुकान पर एक ट्रेंड जड़ जमाए जमाए हुए है कि रेस्तरां में अगर आप खाने के लिए दाल मांगते हो और नाई की दुकान पर केवल बाल या दाढ़ी बनवाते हो तो आपको ‘लो स्टैंडर्ड’ व्यक्ति समझा जाता हैं।

रेस्तरां के बैरे को कोई दाल आॅर्डर करे तो वो उसको हेय दृष्टि से देखेगा। वहीं आप अगर पनीर या मलाई कोफ्ता या जैसे व्यंजन आॅर्डर करते हो तो उसकी नजरों आपकी इज्जत खुद-ब-खुद बढ़ जाएगी। भले ही इस इज्जत के लिए आपको सिंथेटिक पनीर खाना पड़े जिसके ऊपर मिलावटी क्रीम तैर रही हो। इसी तरह नाई की दुकान पर आपकी शेव बनाने के बाद नाई बड़े प्यार से पूछता है, ‘सर मसाज कर दूं?’ अगर आपने मना कर दिया तो वो मन ही मन आपसे कुढ़ जाता। क्योंकि उसे आपकी शेव के 15 रुपये की भूख नहीं, बल्कि उसकी प्यास है बड़ी। और अगर आपने मसाज या फेशियल के लिए हां कर दी, फिर आपके चेहरे की शामत आ गई समझो। अच्छा नब्बे के दशक तक भारत में इस तरह के चोंचले हाई क्लास लड़कियों तक ही सीमित थे। लेकिन इसे ग्लोबलाइजेशन का असर कहें या देश की आर्थिक तरक्की का या फिर होई प्रोफाइल दिखने की होड़, कि देश का मिडिल क्लास भी इस तरह के चाोंचलों में अच्छी तरह फंसता जा रहा है।

नब्बे के दशक तक भारतीय मिडिल क्लास में सुंदर दिखने के उपाय लड़कियां ही किया करती थीं। लेकिन भला हो विज्ञापन और मार्केटिंग की दुनिया का कि इन्होंने लड़कों को भी इसकी चपेट में ले लिया। जो पसीना मेहनतकश इंसान की पहचान होता था, उस पसीने में धीरे धीरे सबको बदबू आने लगी और आज काॅलेज जाने वाले अधिकांश लड़के बगल में फुस्स-फुस्स लगाकर घर से निकलते हैं। गोरी चमड़ी के तो हम आज तक इतने कायल हैं कि अब लड़कों के लिए स्पेशल फेयरनेस क्रीम बाजार में हैं। शाहरुख खान और जाॅन अब्राहम विज्ञापन में अपनी सुंदरता का श्रेय इन फेयरनेस क्रीमों को ही देते हैं। मतलब उनके माता पिता के जींस का इसमें कोई योगदान नहीं. भारत में गोरेपन की होड़ किस हद तक है इसका अंदाजा आप जुलाई 2011 में छपी एक मार्केट रिसर्च से लगा सकते हैं जिसमें बताया गया कि भारत में 2200 करोड़ के काॅस्मेटिक बिजनेस में फेयरनेस क्रीम का बिजनेस 1800 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है और हर वर्ष 31 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है।

हालांकि भारतीय घरों में लड़कियां बेसन, चंदन और मुल्तानी मिट्टी जैसे घरेलू नुस्खों से अपने चेहरे की रंगत निखारने के उपाय किया करती थीं, लेकिन अब पार्लर में जाकर केमिकल प्रोडक्ट्स लिपवाने का जमाना है। और इस पार्लरमेनिया में लड़के भी फंस गए। नाई की दुकान पर जितने भी क्रीम, पाउडर, ब्लीच के डिब्बे होते हैं, उन पर आपको फलों के चित्र छपे मिलेंगे। जो आपको ये बताने की कोशिश करते हैं कि ये प्रोडक्ट बिल्कुल नैचुरल व हर्बल है, केमिकल रहित है और उनसे आपके चेहरे को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा। लेकिन उन फल-फूल के चित्रों के पीछे असलियत में केमिकल्स ही होते हैं। कुछ-कुछ भारत के संविधान की तरह जिसमें पहले ही पेज पर लिख दिया गया है कि देश धर्मनिर्पेक्ष है, सब नागरिक बराबर हैं, आजाद हैं, सबको न्याय का समान अधिकार है वगैराह, वगैराह, लेकिन असलियत में ऊपर से लेकर नीचे तक असमानता और अन्याय है।

नाई की दुकान पर एक-दो बार मेरे चेहरे की भी शामत आ चुकी है। हाल ही में मुरादाबाद गया था, तो मेरा चेहरा नाई के हाथों का शिकार बना। शेव बनाने के बाद नाई ने बड़े अदब के साथ बोला- ‘सर आपका चेहरा बड़ा रफ हो रहा है। मसाज कर देता हूं। हमारे यहां केमिकल्स वाले प्रोडक्ट यूज नहीं होते। ये देखिए ये स्क्रब इंडिया का नहीं है अरब का है। मैं 12 साल अरब में ही था। अब वापस मुरादाबाद आकर अपनी दुकान खोली है’। मैं बोला- यार मैं ये सब नहीं करवाता, तो जनाब ने कहा कि एक बार करवाकर देखिए। मैंने कहा- करवाकर देख चुका हूं, बमुश्किल 24 घंटे चेहरा चमकता है और फिर वैसा का वैसा। लेकिन उसने कुछ इतना अनुनय-विनय किया कि मैं उस अरबी स्क्रब के लिए तैयार हो गया। उसने झट से लड़कियों वाला हेयर बैंड मेरे बालों में जड़ दिया और लगा चेहरे को लेपने। उसके बाद पांच मिनट तक चेहरे को रगड़ता रहा। वो उस दानेदार स्क्रब को मेरे चेहरे पर रेगमाल की तरह रगड़ रहा था। इतने पर भी उसका जी नहीं भरा और उसने दराज में से एक मशीन निकाली। झनझनाहट मशीन, बोले तो वाइब्रेटर। उसको हाथ में पहना और पाॅवर स्विच आॅन कर दिया। अब उसके हाथ के दबाव से मेरा पूरा चेहरा झनझना रहा था। आंखें खोलूं तो हर चीज हिलती दिख रही थी, सो आंखें बंद ही कर लीं। चेहरा साफ करते-करते उसने उस झनझनाहट मशीन के साथ एक उंगली मेरे कान में घुसा दी। एक पल को ऐसा लगा मानो कोई कान में सुरंग खोद रहा हो। मैंने जोर से खोपड़ी हिलाकर मना किया। मेरी समझ में नहीं आया कि वो कान के अंदर कौनसी मसाज कर रहा था और न ही वो मुझे समझा पाया।

खैर, 15 मिनट के उस फिजिकल अत्याचार के बाद मैं नाई के चंगुल से आजाद था। चेहरा पहले से थोड़ा चमक तो रहा था, लेकिन इतना भी नहीं जितने वो मुझसे पैसे मांग रहा था। शेव$इंपोर्टेड स्क्रब के 150 रुपए मात्र। इलीट क्लास सोसायटी का एक अलिखित नियम है कि जब आपको कोई बार-बार ‘सर’ कहकर सम्मान दे तो आप उसके साथ पैसों के लिए ज्यादा झिकझिक नहीं कर सकते। आपको स्टाइल में अपना बटुआ खोलकर उसके हाथ पर पैसे रख देने होते हैं। खैर, मैं ऐसा करने वाला नहीं था, 150 की जगह 120 रुपए दिए। और उसने ये क्या सर, ये क्या सर कहते हुए पैसे दराज में रख लिए।

Friday, February 17, 2012

‘ऐसे बेटे के होने से तो उसका न होना अच्छा...!’

भारतीय जनता पार्टी की स्थिति आज बड़ी अजीबो-गरीब है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में उसके अपने ही नेता बार-बार उसके हारने के कयास लगा रहे हैं। सबसे पहले गोरखपुर में योगी ने कहा कि त्रिशंकु विधानसभा आएगी और भाजपा की जीत के आसार नहीं हैं, फिर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने भी भाजपा को तीसरे पायदान पर बताया, और अब खबरें आ रही हैं कि आरएसएस के काशी प्रांत प्रचारक कह रहे हैं कि- भाजपा जीती तो अच्छा होगा, हारी तो बहुत ही अच्छा!

ये हालत उस पार्टी की है जो 1998 से लेकर 2004 तक दावा करती रही कि ‘वी आर पार्टी विद ए डिफरेंस’। तो आज पार्टी विद ए डिफरेंस में उसके नेताओं के बीच ‘डिफरेंसेज’ सबके सामने हैं। न वो सिंह सी दहाड़ें हैं, न जोश है, न उत्साह, न उम्मीदें, न उल्लास, ऐसा लगता है मानो भाजपा केवल फर्ज निभाने के लिए इलेक्शन लड़ रही है। ये वही भाजपा है जिसने 1998 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 85 में से 57 सीटें जीतकर अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली के तख्त पर बैठाया था। तो फिर आज वही भाजपा वोटों की मोहताज क्यों बन गई है। ऐसा भी नहीं है कि सात साल का एनडीए का शासन खराब था। आज भी लोग गाहेबगाहे अटल जी के सात सालों के शासन को याद करते हैं। चाहे वो देश में सड़कों का जाल बिछाना हो, सूचना क्रांति हो, परमाणु परीक्षण हो, गांवों को सड़कों से जोड़ना हो या गैस सिलेंडर की भरपूर आपूर्ति हो, लोगों को अब भी वो सात साल याद हैं।

फिर क्या है कि 2004 में लोगों ने भाजपा को टाटा कहकर कांग्रेस का दामन थाम लिया, और यूपीए की लाख खामियों के बावजूद 2009 में भाजपा को फिर से नकार दिया। पार्टी ने लाख चिंतन बैठकें की, बार-बार अध्यक्ष बदले, लेकिन गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ को छोड़कर पार्टी किसी राज्य में मजबूती से नहीं खड़ी दिखती, कर्नाटक और उत्तराखंड में भी नहीं। दरअसल इस राष्ट्रीय पार्टी को आज बाहर से नहीं अंदर से खतरा है। आदर्शों और सिद्धांतों की बात करने वाली भाजपा में पद की चाह सिर चढ़कर बोल रही है। 2004 में वाजपेयी के ‘न टायर्ड, न रिटायर्ड’ कहकर आगे भी कंटीन्यू रखने की इच्छा जताने से आडवाणी खेमे में ठंडक पसर गई और इसका असर 2004 के चुनावों में साफ दिखा, जब पार्टी ने एक डिवाइडेड होम की तरह चुनाव लड़ा। उस समय फील गुड फैक्टर ऐसा सिर चढ़कर बोल रहा था कि जमीनी हकीकत न किसी ने जानने की कोशिश की और न किसी ने धरातल पर काम किया। हवाहवाई तरीकों से प्रचार हो रहा था, बढ़-बढ़ कर बातें बोली जा रही थीं, प्रचार के लिए टीवी और मोबाइल पर निर्भरता कुछ ज्यादा ही दिखी। पार्टी में जो एकजुटता दिखनी चाहिए थी, वो कहीं नजर नहीं आ रही थी। उसका परिणाम सामने आ ही गया।

भाजपा के सात साल के शासन के बारे में कहा जाता है कि पार्टी ने अपने लोगों को खाने का मौका नहीं दिया। फिर भी जिला स्तर की लीडरशिप इसलिए साथ दे रही थी, क्योंकि पार्टी से देश के लिए उम्मीदें थीं। लेकिन वे उम्मीदें तब कमजोर पड़ गईं, जब ‘पार्टी विद है डिफरेंस’ में भी पद को लेकर तू-तू-मैं-मैं साफ नजर आने लगे, जब खबरें आने लगें कि सेकेंड लाइन में कौन है और थर्ड लाइन में कौन, जब पुत्रों और पुत्रियों को प्रमोट किया जाने लगा, तो जिला स्तर की लीडरशिप को लगा कि इससे तो दूसरे दल भले हैं, कम से कम खाने का तो मौका मिलता है। आज अगर जिला स्तर पर नजर डाली जाए तो भाजपा के दिग्गज चेहरे उसका साथ छोड़ चुके हैं। ऐसे लोगों की भी निष्ठाएं डोल गईं जो पांच-पांच बार विधायक और सांसद रह चुके थे। राष्ट्रीय स्तर पर बैठे चंद चेहरे, जिला स्तर पर आकर संगठन को मजबूती देना मुनासिब नहीं समझते। या फिर ऐसा भी कहा जा सकता है वाजपेयी के बाद पैदा हुआ शून्य कोई भर नहीं पा रहा है।

ऐसा भी नहीं है कि आज आम लोग परेशान नहीं हैं और बदलाव नहीं चाहते। लोग परेशान हैं इसीलिए अन्ना हजारे की आवाज पर सड़कों पर उतर कर आए। आज लोग अपने राजनीतिक दलों में वही प्योरिटी चाहते हैं, जो अन्ना हजारे की बातों में है। लेकिन अफसोस यही है कि अन्ना की प्योरिटी के सामने संसद में बैठा एक भी दल नहीं ठहरता। जब भाजपा के नेता मंचों से सिद्धांतों और आदर्शों की बात करते थे, तो लोग उनसे उसी प्योरिटी की उम्मीद करते थे, जो अन्ना में है। भाजपा वह प्योरिटी देने में विफल रही, यही कारण है कि आज संघ की ओर से ऐसे बयान आ रहे हैं कि- ‘ऐसे बेटे के होने से तो उसका न होना अच्छा...!’

Tuesday, February 14, 2012

पूरे भारतीय समाज का दर्शन एक छुक-छुक गाड़ी में!


भारतीय रेल के प्रति मेरा लगाव बचपन से रहा है। रेल की मस्ती भरी चाल, धड़धड़ाती आवाज, तेज गति में पटरियों के बीच बदलाव, पहाड़ों के बीच खुदी गुफाएं, नदी पर बने पुलों की गड़गड़ाहट, हरी-लाल झंडियां, इंजन का जोरदार भौंपू, प्लेटफाॅर्म पर गूंजने वाला ‘टिंग-टांग-टिंग’, चाय वालों की ‘चाय-चाय’, यात्रियों की ‘कांय-कांय’ इस सबमें एक अजीब सी कशिश होती है। ट्रेन को देखकर अब बच्चों की तरह किलकारी तो नहीं मार सकते, लेकिन उसको देखकर मन में अभी भी वही रोमांच होता है। हम आज की नई पीढ़ी से आज ये गर्व से कह सकते हैं कि बचपन में हमने कोयले की इंजन वाली ट्रेनों में भी सफर किया है। कितनी बार किया ये तो याद नहीं, लेकिन हरिद्वार से ऋषिकेश जाने वाली पैसेंजर ट्रेन का सफर खासतौर से याद है, जो पहाड़ों के बीच दो गुफाओं से होकर गुजरती थी। आज वो गुफाएं भी हैं, वो पैसेंजर ट्रेन भी है, लेकिन कोयले का इंजन या काला इंजन नहीं है। नई टेक्नोलाॅजी के साथ भारतीय रेल भी लगातार बदल रही है। यात्रियों के बढ़ते दबाव के मद्देनजर अब डबल डेकर डिब्बे आने वाले हैं। कोच के अंदर के ऐशो-आराम बढ़ाए जा रहे हैं। तेल की खपत को देखते हुए धीरे-धीरे डीजल के इंजनों पर भी निर्भरता कम की जा रही है और रेलवे लाइनों को विद्युतीकरण तेजी से किया जा रहा है। ये तो तय है कि आने वाले समय में तेल की खपत और पर्यावरण की दृष्टि से डीजल इंजन भी भारतीय रेल का साथ छोड़कर संग्रहालयों का हिस्सा बन जाएंगे। जिस दिन भारत ने बिजली उत्पादन में अपना निर्धारित लक्ष्य प्राप्त कर लिया तो उस दिन भारतीय रेल पूरी तरह बिजली के भरोसे ही दौड़ेगी। तब वर्तमान पीढ़ी के लोग अगली पीढ़ी से कहा करेंगे कि हमने डीजल के इंजन देखे हैं।

एक आम भारतीय रेल पूरे भारतीय समाज का प्रतिबिंब होती है। अगर भारत के आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक विविधता के बारे में जानना और सीखना है तो प्लेटफाॅर्म पर खड़ी किसी भी ट्रेन को आगे से पीछे तक देख लेना, तो सब समझ आ जाएगा। शताब्दी, राजधानी, एसी स्पेशल, गरीब रथ, दुरंतो आदि ट्रेनों को छोड़ दिया जाए तो बाकी किसी भी एक्सप्रेस ट्रेन से आप भारत को समझ सकते हैं। साधारणतयः एक एक्सप्रेस ट्रेन में सबसे आगे इंजन लगता है, उसके पीछे पार्सल यान (जिसमें आधा डिब्बा महिलाओं और विकलांगों के लिए आरक्षित होता है), उसके बाद होती हैं दो जनरल बोगी, फिर लगती हैं रिजव्र्ड स्लीपर क्लास बोगी, चार पांच स्लीपर क्लास के बाद फस्र्ट एसी-सेकेंड एसी-थर्ड एसी, इसके बाद फिर से बची हुई स्लीपर क्लास, अंत में फिर से दो जनरल बोगी और सबसे अंत गार्ड साहब का डिब्बा। कुल मिलाकर लंबी दूरी की एक नाॅर्मल ट्रेन तकरीबन 20 डिब्बों को जोड़कर बनती है।

इन एक्सप्रेस ट्रेनों में जुड़े डिब्बों के क्रम को देखकर ही आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था को देख सकते हैं। टेªन के शुरुआत और अंत में लगे जनरल डिब्बे भारत के लोअर क्लास को प्रदर्शित करते हैं। उसके अंदर घमासान भीड़, दरवाजों पर टंगे लोग, पांव रखने की जगह नहीं, इंच भर स्थान के लिए जद्दोजहद, शोर-शराबा, गाली-गलौज, पसीने की महक, टीटी का यात्रियों को डपटना और उन पर ऐंठना, यात्रियों का एक-एक रुपए के लिए वेंडर्स से झगड़ना, जनरल डिब्बे का ये दृश्य देश के लोअर क्लास को दर्शाता है। इस क्लास को हर जगह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है। ट्रेन में जनरल डिब्बे सबसे डेंजरस जोन में जोड़े जाते हैं। यानि सबसे आगे और सबसे पीछे। अगर ट्रेन की आगे से टक्कर हुई तब भी और अगर किसी ने पीछे से किसी ने दे मारी तब भी, सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं डिब्बों में बैठे यात्रियों को होता है। उसी तरह आम जीवन में भी जो देश का गरीब तबका है वो हर क्षण डेंजरस जोन में ही जीता है।

उसके बाद होते हैं स्लीपर क्लास, इनकी संख्या सबसे ज्यादा होती है। अमूमन दस डिब्बे होते हैं। ये देश की मिडिल क्लास को प्रदर्शित करते हैं। इसमें सांस लेने के लिए जगह होती है, बहुत आरामदायक तो नहीं पर दरवाजों पर टंगने की नौबत नहीं होती, शोर-शराबा कम होता है, लोग किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर बहस करते पाए जा सकते हैं, टीटी इस डिब्बे में ऐसे बात करता है जैसे अपने समकक्षों से बात कर रहा हो, लेकिन कोई चूं-चपड़ करे तो उसको डांट भी देता है। यहां वेंडर यात्रियों के साथ थोड़ा अदब से पेश आते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से स्लीपर क्लास न तो सेफ जोन में होता है और न डेंजरस जोन में। भारतीय मिडिल क्लास का आम जीवन देखा जाए तो आपको ऐसा ही मिलेगा, उसके घर बहुत बड़े तो नहीं पर उसमें पर्याप्त जगह होगी। उसे अपने आप से और देश से काफी उम्मीदें हैं। वो समाज में एक सम्मानित जीवन जीने के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है।

स्लीपर क्लास के बाद होता है थर्ड एसी। इस डिब्बे में बाहर के कोलाहल और मौसम का कोई फर्क नहीं पड़ता। आप शांति से अपनी यात्रा कर सकते हैं। थर्ड एसी देश के हायर मिडिल क्लास को प्रदर्शित करता है। इसमें बैठे लोग थोड़ा साॅफिस्टिेकेटेड दिखने की कोशिश कर रहे होते हैं। लेकिन उनकी बनावट साफ दिख जाती है। वैसे तो लोग शांत बैठने की कोशिश करते हैं, लेकिन कुछ सीटों पर बैठे लोग कभी-कभी चिल्लाकर बात करके जता देते हैं कि अपन तो देसी लोग हैं, भले ही एसी में बैठे हों। यहां टीटी और वेंडर यात्रियों के साथ पूरी अदब के साथ बात करते हैं। किसी बात का उजड्ड जवाब नहीं देते। कुछ ऐसी ही हालत कमोबेश सेकेंड एसी की होती है। बस उसमें जगह थोड़ी ज्यादा होती है। लोग थोड़े ज्यादा खामोश होते हैं।


फिर होता है फस्र्ट ऐसी। भारतीय ट्रेन की सर्वोच्च क्लास जो देश की हाई सोसायटी को प्रदर्शित करता है। अलग-अलग चैंबर्स में चैड़ी-चैड़ी सीटें, हाइली इलीट क्लास लोग, कोई किसी कंपनी का सीईओ, कोई राजनेता, तो कोई बड़ा बिजनेसमैन, सब अपने-अपने में सीमित, बेहद शांत वातावरण, बात करने में अंग्रेजीदां अंदाज, कोई उजड्डई नहीं, अगर कोई उजड्डई दिखाए भी तो सब उसको ऐसे देखते हैं मानो किसी जानवर को देख रहे हो, टीटी इस डिब्बे के यात्रियों से बात करते वक्त कमर तक झुक सकता है, उनकी डांट भी खा सकता है, वेंडर को तो बात-बात पर डांट पड़ती ही है। तो इस डिब्बे में आप देश की हाई सोसायटी के दर्शन कर सकते हैं। एसी डिब्बे ट्रेन के बीचोंबीच सबसे सेफ जोन में लगाए जाते हैं। ताकि एक्सीडेंट की स्थिति में सबसे कम नुकसान हो। दूसरे ये डिब्बे बीच में होने के कारण हमेशा प्लेटफाॅर्म पर पुल के पास या दरवाजे के पास रुकते हैं, इससे इनमें बैठे यात्रियों को उतरने के बाद ज्यादा दूर चलना भी नहीं पड़ता।

इस संडे को आनंद विहार-काठगोदाम एसी एक्सप्रेस से मैंने गाजियाबाद से मुरादाबाद तक का सफर किया। मेरी साइड अपर बर्थ थी, सो मैं नीचे वाली बर्थ खाली देखकर उस पर लेट गया। संयोग से वो बर्थ स्टाफ सीट थी। कोच के अटेंडेंट ने बैठने की इच्छा जाहिर की तो मैंने उसको साथ में बैठा लिया और उससे बातचीत शुरू की। उसके जीवन व रेल के बारे में कई प्रश्न किए। तब उसने मुझे एक बड़ी रोचक जानकारी दी। बोला, ‘सर एसी कोच में बेडिंग के साथ तौलिया भी दी जाती है। लेकिन तौलिए की चोरी बहुत होती है। सो हम केवल फस्र्ट एसी में ही टाॅवल देते हैं। थर्ड और सेकेंड ऐसी में टाॅवल देनी बंद कर दी है। थर्ड एसी में 72 बर्थ होती हैं अगर मैं टाॅवल दे दूं तो कम से कम 35 टाॅवल गुम हो जाएंगी। अब मैं किसी के बैग तो नहीं चेक कर सकता न सर!’ तो आप कोच अटेंडेंट के इस खुलासे से भी भारतीय समाज के बारे में सीख, समझ और अंदाजा लगा सकते हैं।

कोच अटेंडेंट से बातचीत में मिली जानकारी पर अभी और लिखना बाकी है।

Monday, February 13, 2012

वैलेंटाइन हफ्ते के बहाने...


7 फरवरी को गुलाब दिवस था, बोले तो रोज डे। आॅफिस जाते वक्त मेट्रो में काॅलेज के लड़के-लड़कियों को आपस में एक-दूसरे को विश करते देखा। वैलेंटाइन और उससे जुड़े दिनों का सबसे बड़ा मार्केट स्कूल काॅलेजों में ही बसता है। तो उन स्टूडेंट्स की बातों से मेरे ज्ञान चक्षु खुले। फिर सोचा जब ज्ञान बढ़ ही गया है तो इसका इस्तेमाल भी कर लिया जाए, सो झट से पत्नी को एक एसएमएस टाइप कर दिया ‘हैप्पी रोज डे!’ वैसे भी शादी के बाद पहली बार रोज डे टाइप चीजें आई हैं। हालांकि अपन के माइंड में वैलेंटाइन जैसी चीजें कभी फिट नहीं हो पाई। न ही पत्नी का माइंड सेट वैसा है। भारत में तो हर सुबह जब लोग अपने माता-पिता के पांव छूते हैं तो उनका फादर्स और मदर्स डे होता है; फिर शाम को जब पत्नी से प्रेम भरी बातें करते हैं तो हर रोज वैलेंटाइन डे होता है। हमें अपने रिश्ते निभाने के लिए किसी विशेष दिन की आवश्यकता नहीं। हालांकि इन विचारों को अपनी इलीट क्लास मित्र मंडली आॅर्थोडाॅक्स टाइप कहकर नकार देती हैं। या ये भी कह दिया जाता है कि हिंदी भाषा में लिखने वाले इसी टाइप के लोग होते हैं। खैर कोई जो कहे, हमें उससे क्या? हमें अभिव्यक्ति की आजादी है। तो जी मेरे एसएमएस का कोई खास फर्क नहीं पड़ा। उधर से ‘हा हा हा हा... थैंक्यू’ लिखकर आ गया। 

खैर बात यहीं खत्म हो गई। फिर आॅफिस पहुंचा तो गूगल पर भी रोज डे की चर्चा थी, जिन न्यूज वेबसाइट्स को मैं पढ़ता हूं उन पर भी रोज डे महक रहा था। कुछ चीजें आपको जबरदस्ती परोसी जाती हैं और आप यहां वहां तहां तहां उनसे टकराते हैं। रात को घर लौटते वक्त इंदिरापुरम के मोड़ पर लगे जाम में मुझे सड़क किनारे एक फूल वाले की दुकान दिखी। जिस पर कुछ युवक रोज बड खरीद रहे थे। इसे रोज वाली खबरों और विज्ञापनों का असर कहें या कुछ और, लेकिन आज मेरे दिमाग ने भी सोच लिया जो कभी सोचा न था- क्यों न एक गुलाब खरीदकर देखा जाए। दुकान के पास बाइक रोक दी। तकरीबन 13 साल का एक लड़का मैला सा स्वेटर और सिर पर टोपी लगाए दुकान की कमान संभाले था। आज कोई भी उससे बुके नहीं बनवा रहा था। सबको गुलाब की कली चाहिए थी।

गुलाब की एक कली अमूमन 10 रुपए की आती है। लेकिन आज उसके रेट 25 रुपए थे। मैंने पूछा रेट क्यों बढ़ा रखे हैं तो उसका जवाब था- ‘शर आज रोज डे है!’ मैंने पूछा तुझे किसने बताया? तो बोला- ‘शर सबको पता है। सुबह से 200 गुलाब बेच चुका हूं।’ उसने सिद्ध किया कि छोटा हो बड़ा अपने-अपने बिजनेस में सब माहिर होते हैं। क्या चीज कब, क्यों और कितने की बिकेगी दुकानदार को पता रहता है। खैर 10 रोज बड खरीदने की बात पर भी वो रेट घटाने को तैयार नहीं हुआ। फिर आखिरकार एक रोज बड खरीदी। उसने बड़े करीने से उस बड को सफेद फूल वाली हरी घास के साथ एक सेलोफेन शीट में रैप किया और बड बनाकर मुझे सौंप दी। तभी एक बाइक वाला वहां और आया, जिसने आते ही उस लड़के से पूछा ‘ओए छोटू आज क्या रोज डे है?’ अपने ग्राहक की अज्ञानता पर लड़का मुस्कुराकर बोला- ‘हां, शर! आपको नहीं पता, सुबह से 200 गुलाब बेच चुका हूं।’ रात के आठ बजे भी गुलाबों की बढ़ती मांग को देखकर लड़के के चेहरे की मुस्कान रोके नहीं रुक रही थी। और उस बाइकधारी युवक ने भी एक रोज बड का आॅर्डर किया।

मैंने घर आकर गुलाब पत्नी को दिया, तो मैडम ने मुस्कुराकर उसे ग्रहण किया, थैंक्यू बोला और टीवी पर रख कर दूसरे काम में व्यस्त हो गई। मुझे लगा पांच मिनट तो हाथ में रखना चाहिए थी। आखिर 25 रुपए खर्च किए हैं। खैर, थोड़ी देर बाद मैंने ही उस गुलाब को अपने हाथ में उठाया और उसकी खूबसूरती को निहारा। देखने में सुंदर तो था, लेकिन उसमें खुशबू बहुत कम थी। देखने में इतना सुंदर और खुशबू इतनी कम। देसी गुलाब तो दूर से ही महकता है। मुझे लगा कि ये बिना खुशबू वाला सुंदर सा गुलाब बिल्कुल उन लोगों की तरह है जो ऊपर देखने में तो बहुत टिपटाॅप और सुंदर होते हैं, लेकिन उनके अंदर से चरित्र की खुशबू नहीं आती। 
तो साहब, वो गुलाब टीवी पर रखा-रखा अब बिल्कुल सूख चुका है और थोड़े दिन में डस्टबिन के हवाले कर दिया जाएगा। 

Monday, February 6, 2012

जगह-जगह से उठ रही हैं बदलाव की सुगबुगाहटें!

2012 की शुरुआत एक ऐसे समय में हुई है जब लीबिया में गद्दाफी की तानाशाही खत्म हो चुकी थी और विश्व के दूसरे कोनों से क्रांति की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं। ज्यों-ज्यों 2012 आगे बढ़ रहा है अशांति बढ़ती जा रही है। अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया, मिस्र, इजराइल, ईरान, इराक और पाकिस्तान सरीखे देश युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं। कोई दिन ऐसा जा रहा है जब इन इलाकों से खून बहने की खबरें नहीं आतीं। वहां की आवाम में आक्रोश है, जनमानस में और इन सभी क्षेत्रों में कहीं न कहीं अमेरीकी दखल है। और तिब्बत कुछ ऐसे देशों के नाम हैं जहां अशांति की सबसे ज्यादा सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। एक तरफ इजराइल-ईरान भिड़ने को तैयार हैं और अप्रैल या जून में युद्ध की बात कही जा रही है। सीरिया की तपिश भी थमने का नाम नहीं ले रही है। मिस्र में लोकतंत्र की बहाली के बावजूद हालात इतने तनावपूर्ण हैं कि फुटबाॅल मैच के बहाने लोग एक-दूसरे पर हमला कर बैठे। इराक से अमेरिका ने बाॅय-बाॅय कर दी है, लेकिन वहां से भी आए दिन धमाकों की खबरें आ रही हैं। इराक और अफगानिस्तान दोनों देशों में अमेरिका ने हिंसक युद्ध के दम पर जीत तो हासिल कर ली लेकिन शांति स्थापना अभी दूर की कौड़ी दिख रही है। इधर सालों से अहिंसा के मार्ग पर चलकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे तिब्बत के लोगों का धैर्य भी अब जवाब दे रहा है और तिब्बत से भी हिंसा और आत्मदाह की खबरें मिल रही हैं। और जिस आतंकवाद के दम पर पाकिस्तान पिछले कई दशकों से भारत के साथ कायरतापूर्ण हरकतें करता आ रहा था, वही आतंकवाद अब पाकिस्तान के सिर पर चढ़कर नाच रहा है। वहां की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार आतंकी सरगनाओं के हाथ की ऐसी कठपुतली बन कर रह गई है जिसका कोई भविष्य नहीं। पाकिस्तान इस समय अभूतपूर्व अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। माली हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वहां की सेना ने इस बार सत्ता हथियाने का गोल्डन चांस हाथ से जाने दिया। क्योंकि फौज जानती थी कि वो लाख कोशिशों के बावजूद पाकिस्तानी खोखली अर्थव्यवस्था को नहीं संभाल पाएगी और आवाम को दो जून की रोटी नहीं मुहैया करा सकेगी। ऐसे में सारा ठीकरा अपने सिर फुड़वाने से अच्छा फौज ने बाहर बैठकर शासन चलाना बेहतर समझा।

कुल मिलाकर 2012 बड़े बदलावों के संकेत दे रहा है।

बदलाव के बादल इधर भारत पर भी मंडरा रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में अभूतपूर्व जनजागरूकता है। बड़े-बड़े दिग्गज कानून की गिरफ्त में हैं। आला पदों पर बैठे सत्तानशीनों के माथे से पसीने टपक रहे हैं। भारत की शांति प्रियता और दूसरे देशों पर हमले की पहल न करने की नीति का लाभ आज प्रत्यक्ष नजर आ रहा है। इस नीति पर चलकर देश ने न केवल बेहतरीन आर्थिक विकास किया है बल्कि मुल्क में लोकतंत्र भी मजबूत हुआ है। वो बात दीगर है कि भ्रष्टाचार के दम पर अरबों-खरबों में खेलते जनसेवक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का एक काला पक्ष है। लेकिन अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और डाॅ. सब्रमण्यम स्वामी की तिकड़ी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अनोखा सामाजिक युद्ध छेड़ रखा है। इस सामाजिक युद्ध में हार चाहे सरकार की हो या सामाजिक संगठनों की, लेकिन इसका परिणाम सिर्फ अच्छा ही होगा। क्योंकि जब तक इस सामाजिक युद्ध का फैसला होगा तब तक देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ गली-गली तक जागरुकता फैल जाएगी। और सरकार भले ही इन सामाजिक कार्यकर्ताओं को साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर हरा दे, लेकिन इस देश की सरकारों को अब बदलना ही होगा। रही बात देश की शांति प्रियता की तो भारत का इतिहास है कि कभी हमने किसी देश पर हमले की पहल नहीं की। लेकिन हर हमले के लिए हमने खुद को तैयार कर रखा है। हाल में हुए विश्व के सबसे बड़े रक्षा सौदे में भारत ने 50 हजार करोड़ रुपए की मोटी रकम खर्च करके फ्रांस से 126 राफेल विमान खरीदे हैं जो अगले कुछ सालों में भारत को मिलेंगे। इस रक्षा सौदे पर विश्व के तमाम हथियारों के सौदागर भारत के सामने अपनी लार टपका रहे थे। लेकिन सौदा फ्रांस की झोली में गिरते ही अमेरिका और ब्रिटेन सरीखे देश हाथ मलते रह गए। इस सौदे के बाद भारत ने विश्व के सामरिक बाजार में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है। पर हम अपनी नीतियों पर इसलिए ज्यादा खुश नहीं हो सकते क्योंकि इन्हीं नीतियों के चलते हम पाक अधिकृत कश्मीर, अक्साई चिन और अरुणाचल का काफी हिस्सा गंवा चुके हैं। जबकि 62 के युद्ध को भी हरगिज नहीं भुलाया जा सकता है।

फिर भी पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि 2012 में बदलावों बयार भारत के पक्ष में बहने वाली है।

इसे आप अटल जी की सरकार वाला फील-गुड फैक्टर भी समझ सकते हैं। लेकिन ये ‘‘फीलिंग’’ काफी मजबूत है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कल ही कहा है कि पाकिस्तान अब कश्मीर के नाम पर युद्ध नहीं झेल सकता। जबकि सच्चाई ये है कि पाकिस्तानी स्थिति इतनी नाजुक है कि वो इस समय अपने देश के अंदर का ही असंतोष नहीं झेल पा रहा है। अब वो अपनी आवाम को कश्मीर के नाम की अफीम नहीं सुंघा सकता। वहां की आवाम अब बेहतर जिंदगी चाहती है। पाकिस्तान में अमेरिका का बढ़ता दखल वहां की आवाम और कट्टरपंथियों को अब एक आंख नहीं सुहा रहा। जबकि अमेरिकी वहां से हटने को हरगिज तैयार नहीं और पाकिस्तान की जम्हूरियत वाॅशिंगटन से मिलने वाले डाॅलरों और अपनी जनता के बीच पिसने को मजबूर है। अफगानिस्तान और इराक में लगातार दो युद्ध लड़ने और उसके बाद दोनों देशों में अपनी सेना को युद्धक्षेत्र में बनाए रखने में अमेरिका को नुकसान भी बहुत हुआ है। और उसको पानी की तरह खरबों डाॅलर बहाने पड़ रहे हैं। जिसके चलते अमेरिका की आर्थिक स्थिति पर भी लगातार असर पड़ रहा है। ओबामा ने अमेरिकी आर्थिक नीतियों में कुछ फेरबदल जरूर किए लेकिन कोई करिश्माई निर्णय अभी तक सामने नहीं आया है। जबकि राष्ट्रपति पद के चुनाव जरूर सामने आ गए हैं। जिस तरह अमेरिका ईरान और पाकिस्तान में दखल दे रहा है, उसको देखते हुए अगर अमेरिका को एक और युद्ध लड़ना पड़ जाए तो क्या वो अपनी अर्थव्यवस्था को संभाले रख पाएगा और फिर इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा?

आने वाला समय बेहद महत्वपूर्ण है। लेकिन वो किस तरह करवट बदलेगा ये किसी को नहीं पता।

Friday, February 3, 2012

भय बिनु होई न प्रीतिः आम आदमी के लिए काफी मददगार है नेशनल कंज्यूमर हेल्पलाइन

मेरी मां गीताप्रेस गोरखपुर से छपने वाली ‘कल्याण’ मासिक पत्रिका की नियमित पाठक हैं। पिछले दिनों दिसंबर में जब मैं हरिद्वार गया तो रेलवे स्टेशन के प्लेटफाॅर्म नंबर एक पर स्थित प्रेस के स्टाॅल पर मैंने पत्रिका का वार्षिक शुल्क जमा करा दिया ताकि 2012 में पत्रिका का क्रम न टूटे। 2 फरवरी को डाकिया महोदय पत्रिका का पहला विशेषांक, जो काफी मोटा होता है, लेकर मुरादाबाद में मेरे घर पहुंचे। मम्मी तो पत्रिका का महीने भर से इंतजार था। लेकिन डाकिए ने कहा कि आपके पैसे जमा नहीं हैं आपको ये पत्रिका छुड़ाने के लिए 210 रुपए वीपीपी शुल्क अदा करना होगा। मम्मी ने डाकिए को बताया भी कि शुल्क दिया जा चुका है पर डाकिया मानने को तैयार नहीं था। फिर मम्मी ने उससे रसीद दिखाने को कहा तो वो भी उसके पास नहीं थी। इस पर मम्मी को शक हुआ और उन्होंने मुझे फोन किया। मैं उस वक्त दिल्ली स्थित अपने आॅफिस में था। मैंने आनन-फानन कह दिया कि बिना पैसे देता है तो लो वरना जाने दो। डाकिया किताब लेकर वापस चला गया और यह भी कह गया कि- अब मैं दोबारा देने नहीं आउंगा, हेड पोस्ट आॅफिस से अपने आप मंगवा लेना।

फिर मैंने गीताप्रेस गोरखपुर फोन घुमाया तो पता चला कि किताब रजिस्टर्ड डाक से भेजी गई है न कि वीपीपी से और मुझे उसके बदले कोई पैसा नहीं देना है। उन्होंने मुझे रजिस्ट्री नंबर भी दे दिया-34437। साथ में उन्होंने ये भी कहा कि हो न हो आपका डाकिया पैसे कमाने के चक्कर में है। फिर मैंने वो रजिस्ट्री नंबर लेकर पहले तो डाक विभाग के पोर्टल पर कंप्लेंट डाली और उसके बाद नेशनल कंज्यूमर हेल्पलाइन (एनसीएच) 1800114000 पर फोन किया। उन्होंने बड़े इत्मिनान से मेरी बात सुनी और कंप्लेंट दर्ज करके एक डाॅकिट नंबर दिया। फिर मुझे बताया कि मैं पहले मुरादाबाद के एसएसपीओ (सीनियर सुप्रिंटेंडेंट आॅफ पोस्ट आॅफिस) के यहां इस बारे में एक शिकायत दर्ज करूं अगर वहां से बात न बने तो फिर हमें बताना। मुरादाबाद के हेडपोस्ट आॅफिस का फोन नंबर 0591-2415639 तो मैं कई बार मिला चुका था, लेकिन उसे किसी ने उठाया नहीं। फिर मैंने गूगल का सहारा लेकर मुरादाबाद के एसएसपीओ का लैंडलाइन नंबर खोज निकाला 0591-2410023। घड़ी में देखा तो पांच बज चुके थे, लगा कि सरकारी दामाद लोग दफ्तर बंद कर चुके होंगे। फिर भी एक कोशिश करने में क्या घिस रहा था। तीन-चार घंटी के बाद ही फोन उठ गया, किसी बाबू ने उठाया, लेकिन मेरी उम्मीद के विपरीत अदब से बात की। जब मैंने उनसे कहा कि मैं दिल्ली से बोल रहा हूं तो उनकी आवाज थोड़ी और दब गई। फिर मैंने उनको डाकिए की करनी बताई तो उन्होंने कहा कि वीपीपी होगी उसके तो पैसे देने ही होंगे, तो मैंने डाकिए के पास कोई रसीद न होने की बात बताई और अपना रजिस्ट्री नंबर दिया जो गोरखपुर से 24 जनवरी को की गई है। फिर उन्होंने मेरा फोन ट्रांसफर कर दिया। उधर से एक महिला की मधुर आवाज सुनाई दी, उन्होंने मेरी उम्मीद के विपरीत सारी बात आराम से सुनी। फिर मेरा मुरादाबाद का पता पूछा और साथ ही मैंने उन्हें रजिस्ट्री नंबर भी बता दिया। बोलीं कि मैं दिखवाती हूं। मैंने कहा कि मेरी शिकायत दर्ज की हो तो मुझे नंबर दे दीजिए, तो थोड़ा मुस्कुराकर बोलीं कि अभी शिकायत दर्ज नहीं की है। कल तक अगर आपकी डाक न पहुंचे तो शिकायत दर्ज करवा दीजिएगा। खैर, जब उन्होंने मेरी सारी बात सुन ही ली और आश्वासन भी दिया तो, मेरे पास बहस करने की कोई वजह नहीं थीं। लेकिन सरकारी सिस्टम के खिलाफ मन में कोफ्त जरूर हो रही थी।

फिर रात को नौ बजे मां का फोन फिर से आया कि- आठ बजे डाकिया आया था और किताब दे गया है। वही डाकिया जो दिन में कह कर गया था कि अपने आप हेड पोस्ट आॅफिस से मंगवा लेना, रात के आठ बजे ड्यूटी टाइम खत्म हो जाने के बावजूद घर आकर किताब दे गया। साथ में दांत निपोरते हुए स्पष्टीकरण भी दे गया कि किसी दूसरे की वीपीपी वाली डाक उठा लाया था इसलिए गलती हो गई। मम्मी ने फोन पर मुझे डाकिए का वृतांत सुनाने के बाद कहा- बड़ा खराब समय है, रामायण में सही लिखा है ‘भय बिनु होई न प्रीति दयाला’।

खैर, इस पूरी घटना को यहां लिखकर मैं डाक विभाग की साख पर बट्टा नहीं लगा रहा, न डाक विभाग से मेरी कोई निजी खुंदक है। देश की सेवा में डाक विभाग जो काम कर रहा है वो काफी सराहनीय भी है और बेमिसाल भी। लेकिन हर जगह कुछ एक लोग ऐसे होते हैं जो अपने पूरे विभाग पर बट्टा लगवाने का काम करते हैं और आप उनका कुछ नहीं उखाड़ सकते। जैसे कई ट्रकों के पीछे लिखा होता है न कि ‘यो तो यूं ही चालैगी’ तो भैया ये सिस्टम तो यूं ही चलता रहेगा।

ये घटना यहां लिखने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ इतना है कि नेशनल कंज्यूमर हेल्पलाइन नंबर उपभोक्ताओं की मदद करने में काफी सराहनीय भूमिका निभा रहा है। मेरे कई मित्र इसी नंबर के इस्तेमाल से मोबाइल कंपनियों की दाढ़ में गया व्यर्थ पैसा वापस निकलवा चुके हैं। मैंने भी इसका पहली बार इस्तेमाल किया और काफी उपयोगी पाया। इस तरह की चीजें आम आदमी को सशक्त बनाती हैं। अगर हर सरकारी विभाग अपना काॅल सेंटर बनाकर कंज्यूमर हेल्पलाइन नंबर शुरू कर दे, तो आम आदमी की परेशानियां काफी कम हो सकती हैं।