Thursday, December 20, 2012

गुजरात की जीत और भाजपा की सफलता


गुजरात में केशुभाई पटेल की हार के बाद ये चीज फिर से साफ हो गई कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर जो भी गया वो सफल नहीं हो सका। विचारक गोविंदाचार्य, उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, मध्यप्रदेश में उमा भारती और अब गुजरात में केशुभाई पटेल इन सभी दिग्गज नेताओं ने भाजपा को छोड़कर अकेले चलने की कोशिश की, लेकिन चल नहीं पाए, बल्कि बुरी तरह विफल हुए। इसके पीछे सब अलग-अलग कारण बता सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण है इन नेताओं का बुनियादी संस्कार। भाजपा के सभी दिग्गजों का बुनियादी संस्कार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से आता है। और ये संस्कार उनको किसी दूसरी पार्टी के अंदर बेचैन कर देता है। भाजपा पर लाख आरोप लगे हों, लेकिन सिद्धांतों के मामले में अभी भी उसकी छवि सबसे अलग है। यही बुनियादी सिद्धांत भाजपा के नेताओं को किसी दूसरी पार्टी में एडजस्ट नहीं करने देते। और अकेले अपनी पार्टी को चला पाना बेहद टेढ़ी खीर है।

जबकि कांग्रेस के मामले में ऐसा नहीं है। कांग्रेस को जिसने भी छोड़ा उसको अच्छी सफलता मिली। ममता बनर्जी और शरद पवार इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। हालांकि कांग्रेस के बार-बार टूटने, बिखरने और बनने की कहानी बहुत लंबी है। कांग्रेस में से ढेरों कांग्रेस निकलीं, और सबने सफलता प्राप्त की। कांग्रेस इंदिरा, कांग्रेस तिवार, तमिल मनीला कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी आदि ढेरों उदाहरण हैं। जनता बार-बार स्पष्ट कर चुकी है कि भाजपा की सफलता एकजुटता में ही है। लेकिन फिर भी
अंदरूनी स्तर पर पार्टी में चल रहे तमाम मतभेदों पर पार्टी को विचार करना चाहिए।

जनता पार्टी को उसकी स्पष्टता, सिद्धांतों और संस्कारों के लिए पसंद करती है। कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो कोई खास असर नहीं होता, लेकिन भाजपा के किसी नेता पर जब आरोप लगते हैं तो उसका गहरा असर पड़ता है। क्योंकि खुद भाजपा ने सिद्धांतों को लेकर अपनी लड़ाई शुरू की थी। इसलिए खास मुद्दों पर पार्टी को वोट बैंक की चिंता न करते हुए अपना रुख स्पष्ट रखना चाहिए। प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर अंदरूनी तौर पर भाजपा के तमाम नेता पार्टी के स्टैंड से नाराज हैं। इस गंभीर मुद्दे पर पार्टी को ढुलमुल रवैया न अपनाकर स्पष्ट रुख रखना चाहिए था। इस तरह की चीजों पर 2014 के चुनावों को देखते हुए भाजपा को गहन चिंतन करने की जरूरत है। मौकापरस्त या वोट बैंक की राजनीति में फंसकर पार्टी को नुकसान ही उठाना पड़ेगा।

Sunday, August 26, 2012

कितनी हिंदी!


कोस-कोस पर पानी बदले पांच कोस पर वाणी- ये कहावत है तो पुरानी पर भारत पर पूरी तरह लागू होती है। हिंदी कितने प्रकार की हो सकती है इसका अंदाजा आपको भारत के गांवों में जाकर लगेगा। हर गांव की अपनी अलग लोकल हिंदी है, जिसे शहरी लोग गंवारू भाषा कहकर पुकारते हैं। लेकिन इस गंवारू भाषा की अपनी अलग संुदरता है। गांव की इन भाषाओं की लगातार उपेक्षा ने इन्हें विलुप्त होने के कगार पर पहुंचा दिया है। 

मेरा गांव नगला नीडर मुरादाबाद से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर है (फिलहाल ये संभल और मुरादाबाद के बीच सीमा सीमा विवाद में फंसा है)। लेकिन मुरादाबाद की हिंदी से इसका दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। यहां तक कि हमारे गांव से सिर्फ डेढ़ किलोमीटर दूर खेमपुर गांव की बोली नगला नीडर से बिल्कुल अलग है। लेकिन जब से गांव में टीवी पहुंचा और गांव के कुछ लोग शहर आकर रहने लगे तब से लोगों में शहरी खड़ी बोली बोलने का शौक चर्रा गया। अगर आपने पान सिंह तोमर फिल्म देखी हो तो हमारे गांव की बोली कुछ-कुछ उसकी बोली से मिलती-जुलती है। लेकिन अब गांव के अधिकाश लोग साहित्यिक बोली बोलने की कोशिश करने लगे हैं। खासतौर से नई पीढ़ी। यहां तक कि गांव के कुछ घरों में चाचा-बुआ को अंकल-आंटी कहने का भी चलन चल पड़ा है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि गांव से शहर गए लोग जब कभी गांव आते हैं तो उनमें एक अजीब सी इतराहट होती है। ऐसा भी नहीं है कि वे शहर में बहुत बड़े तीर मार रहे हों। शहर के नाम पर वे बस गांव से 15 किलोमीटर दूर मुरादाबाद आकर बस गए हैं और बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। उनके इतराने के लिए यही काफी है। गांव आकर अपनी स्वाभाविक हिंदी बोलने के बजाय वो नफासत दिखाते हुए साहित्यिक हिंदी बोलकर दिखाते हैं।

संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स में काॅफी अन्नान ने तो इस बात का जिक्र नहीं किया कि विकसित दिखने के लिए आपको अपनी भाषा छोड़नी होगी, लेकिन भारतीय समाज में ये धारणा अंदर तक पैठ बनाए हुए है कि सभ्य होने का मतलब है कि आप नफासत के साथ साहित्यिक भाषा में बात करें और बीच-बीच में इंग्लिश के शब्दों का प्रयोग करें तो और ज्यादा बेहतर होगा। गांव की भाषा पर दूसरा कुठाराघात टीवी और अखबारों ने किया है। गांव-गांव टीवी और अखबार पहुंच जाने से नई पीढ़ी का रहन-सहन और बातचीज का स्टाइल अब यही तय कर रहे हैं। पर है ये अजीब बात कि शहर के लोग दूर के रिश्तों में गर्माहट दिखाने के लिए बच्चों को चाचा, बुआ, मौसी जैसे शब्द कहना सिखा रहे हैं, जबकि गांव में अंकल-आंटी का चलन बढ़ रहा है। और सिर्फ भाषा के स्तर पर ही नहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में तो कई स्तरों पर बदलाव देखने को मिल रहे हैं। मैं समझता हूं कि हरियाणा और पंजाब के गांव तो पहले ही इन चीजों की चपेट में आ गए होंगे।

हालांकि इन दिनों टीवी पर प्रसारित कई सीरियल्स में लोकल भाषा को जमकर भुनाया जा रहा है। गुजराती, हरियाणवी, राजस्थानी और बिहारी हिंदी पर टीवी सीरियल्स में जमकर प्रयोग हुए हैं और लोगों ने उनको पसंद भी किया है। वैसे ध्यान से देखा जाए तो सीरियल्स को सर्वग्राही बनाने के लिए लोकल भाषा को काफी तोड़ा-मरोड़ा तो गया है, लेकिन लोग फिर भी उन्हें देखना पसंद कर रहे हैं। एक सर्वे रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि अगले 100 सालों में विश्व की कई भाषाएं गायब हो जाएंगी। लेकिन साहित्यिक हिंदी इस खतरे से बाहर है। पर भारत में सबसे बड़ा खतरा गांवों की लोकल हिंदी पर जरूर मंडरा रहा है। तेजी से हो रहे विकास और शहरीकरण की दौड़ में इन रस भरी बोलियां को खत्म होने में मुश्किल से 20 साल भी नहीं लगेंगे। क्योंकि नई पीढ़ी अब टीवी देखकर बड़ी हो रही है। त्योहार मनाना अब घर के बुजुर्ग नहीं बल्कि न्यूज चैनल सिखाते हैं। कपड़ों का लेटेस्ट ट्रेंड क्या है ये भी टीवी ही तय कर रहा है। शहर में रहने वाले लोग और शहरी भाषा ज्यादा सभ्य मानी जाती है। तो कोई भला क्यों अपने को गंवारू कहलवाना पसंद करेगा।


Friday, August 17, 2012

हैप्पी इंडिपेंडेंस डे बापू!


प्यारे बापू,


नमस्ते! हम आपको 66वें स्वतंत्रता दिवस की बधाई देने के लिए पत्र लिख रहे हैं. भारत की आजादी के 65 साल पूरे हो चुके हैं. इतने छोटे से अंतराल में ही व्यवस्था परिवर्तन की मांग उठने लगी है. आपने भारत की आजादी के साथ ही कई बड़े सपने देखे थे, उन सपनों की चुन-चुन कर हत्या कर दी गई है. आपके सिद्धांत और दर्शन किताबों में कैद होकर रह गये हैैं. बापू आज स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हम बताना चाहते हैं कि आपके विचारों की अनदेखी करने से सपनों का हिंदुस्तान नहीं बन पाएगा. वो खुशहाली नहीं आएगी जो स्वतंत्रता संग्र्राम के दिनों में देखी गई थी...

स्वराज्य

स्वराज्य एक पवित्र शब्द है. यह एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्म-शासन और आत्म संयम है. अंग्रेजी शब्द 'इंडिपेंडेंसÓ अक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी का या स्वच्छंदता का अर्थ देता है. वह अर्थ स्वराज्य शब्द में नहीं है.

-यंग इंडिया, 19-3-1931

बापू सच बताएं तो स्वराज्य की मूल भावना को हम सब भूल गए हैं और वास्तव में हमने स्वछंदता को ही अपना लिया है. देश के छोटे-छोटे नियम कानून मानने में हमें दिक्कत है. लेकिन ये आचरण भी हमने अपने सत्ताधीशों से ही सीखा है.



यूथ ऑफ इंडिया

मेरी आशा देश के युवकों पर है. उनमें से जो बुरी आदतों के शिकार हैं, वे स्वभाव से बुरे नहीं हैं. वे उनमें लाचारी से और बिना सोचे-समझे फंस जाते हैं. उन्हें समझना चाहिए कि इससे उनका और देश के युवकों का कितना नुकसान हुआ है. उन्हें यह भी समझना चाहिए कि कठोर अनुशासन द्वारा नियमित जीवन ही उन्हें और राष्ट्र को संपूर्ण विनाश से बचा सकता है, कोई दूसरी चीज नहीं.

-यंग इंडिया, 9-7-1925

बापू देश का भोला युवा तो परिस्थितियों का शिकार होकर रह गया है. तमाम तरह के दबावों के बीच अधिकांश युवा फ्रस्ट्रेशन की कगार पर हैं. सिगरेट पीना कहीं उनके लिए फैशन है तो कहीं स्ट्रेस से बचने का तरीका.



पंचायती राज

आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए. हर एक गांव में जमहूरी सल्तनत या पंचायत का राज होगा. उसके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी. इसका मतलब यह है कि हर एक गांव को अपने पांव पर खड़ा होना होगा- अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होंगी, ताकि वो अपना सारा कारोबार खुद चला सके.

-हरिजन सेवक, 28-7-1946

बापू पंचायती राज तो गांवों को मिल चुका है. लेकिन पंचायती राज के नाम पर गांवों में ऐसी राजनीति घुस गई है कि गांव का ताना-बाना बिखर कर रह गया है. बहुसंख्यक गांव आज पलायन की चपेट में हैं. रंजिशन हत्याएं और आपसी द्वेष चरम पर हैं.


शराब

मैं भारत का गरीब होना पसंद करूंगा, लेकिन मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि हमारे हजारों लोग शराबी हों. अगर भारत में शराबबंदी जारी करने के लिए लोगों को शिक्षा देना बंद करना पड़े तो कोई परवाह नहीं, मैं यह कीमत चुकाकर भी शराबखोरी को बंद करूंगा.

-यंग इंडिया, 15-9-1929


 बापू शराब तो आज देश की रगों में खून की जगह दौड़ रही है. सरकार खुलकर शराब की दुकानों के लाइसेंस बांट रही है. गली-गली और गांव-गांव शराब की दुकानें पहुंच चुकी हैं. सच पूछो तो देश में कुछ भी शुद्ध नहीं मिल रहा है, केवल एक शराब के सिवा.


बेरोजगारी

जब तक एक भी सशक्त आदमी ऐसा हो जिसे काम न मिलता हो या भोजन न मिलता हो, तब तक हमें आराम करने या भरपेट भोजन करने में शर्म महसूस होनी चाहिए.

-यंग इंडिया, 6-10-1921

बापू, तमाम तरक्की के बावजूद देश में भयंकर बेरोजगारी और शोषण है. शर्म तो बहुत दूर की बात है, सरकार में बैठे हमारे जनप्रतिनिधि तो भ्रष्टाचार की मलाई उड़ा रहे हैं.

Saturday, May 26, 2012

भारत और भारतीयों की बढ़ती शक्ति


मैंने अपने ब्लॉग पर क्लस्टर मैप लगा रखा है जो ब्लॉग पर आने वाले रीडर्स का लेखा-जोखा रखता है. खालिस हिंदी भाषा का मेरा ब्लॉग भारत के अलावा विश्व के कई देशों में पढ़ा जाता है. क्लस्टर मैप को मानें तो भारत के बाद सबसे ज्यादा रीडर्स अमेरिका से हैं, फिर तायवान, यूरोप और ऑस्ट्रिेलिया से. ऐसा नहीं है कि मैं बहुत बड़ा लिक्खाड़ हूं या कोई सेलिब्रिटी हूं. बल्कि सच ये है कि हिंदी के सभी ब्लॉग्स पूरे विश्व में पढ़े जाते हैं. हिंदी के लवर्स और ब्लॉगर्स केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व भर में फैले हैं. ये हिंदी और हिंदुस्तानियों की बढ़ती शक्ति का प्रतीक है.

जिस तरह से इंडियन डायसपोरा अखिल विश्व में फैल हुआ है उसे देखकर मुझे भारत की बढ़ती जनसंख्या में अब समस्या नजर नहीं आती. अभावों में पैदा हुए भारतीयों ने अपने जिंदगियों को बेहतर बनाने के लिए कमरतोड़ मेहनत की और कर रहे हैं. विदेशों में भी भारतीयों ने अपना परचम लहराकर अपनी काबिलियत एक बार नहीं बार-बार सिद्ध की. चाहे राजनीति हो या उद्योग, आईटी हो या स्पेस टेक्नोलॉजी विदेशों में रह रहे भारतीय हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवा रहे हैं.

और ऐसा भी नहीं है कि अप्रवासी भारतीयों ने ये मुकाम यूं ही हासिल कर लिया. उन्होंने तमाम तरह के नस्लभेद और रंगभेद भी झेले हैं और झेल रहे हैं. लेकिन अपनी मजबूत एकजुटता के चलते वे अपना अस्तित्व बचाए हैं. जब भी किसी देश से भारतीयों पर हमले की खबर आती है तो भारत में रह रहे भारतीयों का खून खौल कर रह जाता है. इसलिए नहीं कि भारतीयों में बड़ा प्रेम है, बल्कि इसलिए कि भले ही आपस में एक दूसरे की गर्दन काटें, लेकिन किसी बाहरी ताकत का हमला होने पर हम भारतीय उसके हलक में हाथ डाल देते हैं. ये भारतीयों का नेचर है.

दूसरी चीज भारतीय भारत में भले ही एक-दूसरे की गर्दन काटने को आतुर रहते हों, लेकिन दूसरे देशों की धरती पर वे 'भयंकर' एकजुटता के साथ रहते हैं और एक-दूसरे को प्रोमोट करते हैं. भारत में भले ही वेस्टर्न कल्ट एडॉप्ट किया जा रहा हो, लेकिन अप्रवासी भारतीयों ने भारतीय संस्कृति को बखूबी संजो रखा है. चाहे संयुक्त परिवार संस्था हो या तीज-त्योहार अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मोटेतौर पर अप्रवासी भारतीय अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं. हम भले ही नमस्ते का अर्थ न जानते हों, लेकिन अप्रवासी भारतीयों ने विदेशियों को इसका मतलब बखूबी समझा दिया है. अप्रवासी भारतीय अपनी हर परंपरा, रीति-रिवाज और तीज-त्योहार के पीछे छिपे तर्कों को अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि वहां उन्हें हर चीज के पीछे प्रश्न झेलने पड़ते हैं कि आप बिंदी क्यों लगाते हैं, माथे पर टीका क्यों लगाते हैं, मांग में सिंदूर क्यों भरते हैं वगैराह-वगैराह. भारत में क्योंकि ये प्रचलन है इसलिए न कोई पूछता है और न कोई इस पर ध्यान देता है. लेकिन विदेशियों के सवालों पर अप्रवासी भारतीयों ने अपनी हर परंपरा के पीछे छिपे विज्ञान और तर्क को खोजकर उनका जवाब दिया है. ये एक अच्छा सिग्नल है.

मैंने अब तक जितने भी अप्रवासियों को जाना और पहचाना उससे महसूस हुआ कि अप्रवासी भारतीयों में भारत को शक्तिशाली, विकसित और सुंदर देश के रूप में देखने की तीव्र और सच्ची उत्कंठा है. भारतीयों और भारत सरकार की नजर भले ही अप्रवासियों के धन पर हो, लेकिन अप्रवासी सच्चे दिल से भारत को शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं. न केवल वे दोनों हाथ खोलकर भारतीय संस्थानों और सामाजिक संस्थाओं में दान देते हैं बल्कि विदेशों में भी वे भारत के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास करते हैं. 

स्वामी विवेकानंद ने 2012 को परिवर्तन का वर्ष बताया था कि इसी साल से भारत एक शक्ति बनकर उभरना शुरू होगा. अतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर जो माहौल बन रहा है उसको देखकर लगता भी है कि आने वाले दिनों में भारत विश्व में अहम भूमिका निभाने जा रहा है. और भारत को इस मुकाम पर पहुंचाने में निश्चित तौर पर अप्रवासी भारतीयों की अहम भूमिका होगी.

Monday, May 21, 2012

आईपीएल: समरथ को नहिं दोष गोसांई!

कहते हैं कि क्रिकेट पहले नवाबों का खेल था. कम ही लोग इसे खेलते और देखते थे. लेकिन जब कपिल देव की अगुवाई में भारतीय टीम ने विश्वकप झटका तो एकाएक क्रिकेट राष्ट्र का गौरव बन गया. दूरदर्शन पर लाइव टेलिकास्ट की बदौलत न केवल घर-घर में युवाओं की पसंद बना बल्कि मोहल्ले की गलियों से लेकर घर की छतों तक लघु रूप में खेला जाने लगा. फिर जब सचिन जैसे महान बल्लेबाज का क्रिकेट की पिच पर जन्म हुआ तो क्रिकेट उन बुजुर्गों और महिलाओं की भी पसंद बन गया जिन्होंने कभी बल्ला पकड़ के नहीं देखा था.

क्रिकेट के प्रति लोगों की बढ़ती दीवानगी को देखकर बाजार के मगरमच्छों को इसमें खेल से कुछ ज्यादा नजर आने लगा और खेल-खेल में क्रिकेट दौलत की एक बहती गंगा बन गया. नैतिकता के झंडाबरदारों को उस समय क्रिकेट का व्यवसायीकरण करना ठीक न लगा और उन्होंने नैतिकता के सवाल खड़े किए. पर वो सवाल कान पर जूं की तरह रेंगे और फिसल गए.

फिर क्रिकेट के सफर में तीसरा चरण आया. लाइव टेलिकास्ट में मिनट-मिनट पर विज्ञापन मिलने लगे. खिलाडिय़ों की क्रिकेट से कम और विज्ञापन करने से ज्यादा कमाई होने लगी. नैतिकता के पैरोकारों ने फिर से नाक-भौंह सिकोड़ी, लेकिन फिर से उनकी एक न सुनी गई.

इधर बाजार में बैठे मगरमच्छ इतने से संतुष्ट नहीं थे. वे क्रिकेट की दुधारू गाय को और दूहना चाहते थे कि उसमें दूध का एक भी कतरा न बचे. सो, उन्होंने क्रिकेट में ग्लैमर और टेक्नोलॉजी का तड़का लगा दिया और बन गया आईपीएल. क्रिकेट की मंडी सजाई गई और सात समंदर पार से खिलाड़ी अपनी बोली लगवाने आए. लंबे समय बाद लोगों ने इंसानों को नीलाम होते देखा, लेकिन मॉडर्न जमाने में सब चलता है टाइप बातें कहकर सबने इसे पचा लिया. क्रिकेटरों के हेलमेट, बल्ले, ट्राउजर, जर्सी सब कुछ बिकाऊ हो गया. किसी न किसी ब्रांड ने उनके हर अंग को खरीद लिया. नैतिकता के सिपाहियों ने फिर से हाथ-पांव उछाले पर वे उछलते रह गए और कारवां बढ़ता गया.

आईपीएल दिन दोगनी-रात चौगुनी तरक्की करने लगा. पैसे का गुरूर रह-रहकर बोलने लगा. क्रिकेट अब क्रिकेट न रहकर शराब, शबाब, ग्लैमर, टेक्नोलॉजी, सट्टेबाजी, सेक्स और ड्रग्स की भयानक कॉकटेल बन गया, जो सोना बनकर बरस रहा है. कमाने वाले अपनी थैलियां भर रहे हैं. नेता हों या अभिनेता, वर्तमान क्रिकेटर हों या पूर्व क्रिकेटर, चैनल हों या रेडियो एफएम, अखबार हों या मैग्जीन सबके मुंह में सोना भर दिया गया. तनाव की मारी जनता मैदानों में पहुंचकर और टीवी से चिपककर ये सबूत देती रही कि पब्लिक इसे पसंद करती है. कमाई करने वाले इसी बात की दुहाई देकर मलाई उतारते रहे.

क्रिकेट की इस भयंकर कॉकटेल को जो भी पिएगा तो उसके कदम थोड़े बहुत तो बहकेंगे ही न. क्या हुआ जो रईस शाहरुख ने गरीब गार्ड से बद्तमीजी की, गरीब की कैसी इज्जत. क्या हुआ जो रेव पार्टी में खिलाड़ी पकड़े गए, आखिर पैसा कमाया तो खर्च भी तो करना पड़ेगा. क्या हुआ जो एक मॉडल से माल्या के लड़के और अजीब से नाम वाले एक खिलाड़ी ने छेड़खानी की, नशे में छोटी-मोटी गलतियां हो ही जाती हैं. फिक्सिंग को तो गलत मानना ही नहीं चाहिए, आईपीएल में नहीं कमाएंगे तो कहां कमाएंगे.

मैं एक बार कपड़े की दुकान में गया तो वहां पर एक स्टिकर चिपका देखा, जिस पर लिखा था- "फैशन के इस दौर में गारंटी की इच्छा न करें". शायद यही बात आईपीएल पर भी लागू होती है कि- "पैसे की इस दौड़ में नैतिकता की इच्छा न करें".

Sunday, May 20, 2012

एक गर्म चाय की प्याली हो...


मोंटेक सिंह आहलुवालिया का ये आश्वासन कि अगले साल अप्रैल में चाय को राष्ट्रीय पेय घोषित कर दिया जाएगा, आश्वासन ही रह गया। केंद्र सरकार फिलहाल चाय को ये दर्जा न देने का मन बना चुकी है। मोंटेक के आश्वासन के बाद साफ लगने लगा था कि चाय राष्ट्रीय पेय बन जाएगी. लेकिन केंद्र सरकार ने चाय को ये दर्जा देने पर खड़े होने वाले संभावित विवादों को पहले ही ताड़ लिया और ये फैसला टाल दिया.

चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने पर सवाल यही उठता कि आखिर चाय ही क्यों? देश में हजारों तरह के पेय हैं, सब के सब एक से बढ़कर एक, तो फिर चाय ही क्यों? पंजाब वाले लस्सी लेकर आ जाते, हरियाणे वाले दूध लेकर खड़े हो जाते, जम्मू कश्मीर वाले कहवा को लेकर शोर मचाने लगते, यूपी वाले छाछ की बाल्टी लेकर दस जनपथ पहुंच जाते, गुजरात की पूरी श्वेत क्रांति दिल्ली पहुंच जाती, दक्षिण वाले कॉफी की प्याली फूंकने लगते, बाबा रामदेव एलोवेरा जूस के पक्ष में आवाज उठाते, सारे क्रिकेटर पेप्सी-कोक को राष्ट्रीय पेय बनाने पर अड़ जाते, दारूबाज पियक्कड़ शराब को भी यही दर्जा देने की मांग करने लगते, चाय के खिलाफ स्वदेशी और राष्ट्रवादी आंदोलन खड़े हो जाते और न जाने क्या-क्या हो सकता था? सो, केंद्र सरकार के किसी समझदार सचिव ने अपनी तजुर्बेकार आखों पर चढ़े चश्में के लेंस से दूरदृष्टि का प्रयोग करके इन संभावित खतरों को देख लिया होगा और सरकार से इस जोखिम को न उठाने की सलाह दी होगी। 

हालांकि मोंटेक सिंह के आश्वासन के बाद चाय उत्पादकों ने उत्सव सा मनाना शुरू कर दिया था। लेकिन सरकार की न-नुकुर के बाद सब फुस्स हो गया। चाय को राष्ट्रीय दर्जा मिलने पर बीबीसी हिंदी भी कुछ कम खुश नहीं था। बीबीसी ने तो भारत में चाय के अच्छे उत्पादन के पीछे ब्रिटेन की औपनिवेशिक नीतियों की पीठ भी थपथपानी शुरू कर दी और बारे में इतिहास खंगालू लेख भी लिख डाले। बीबीसी के मुताबिक 2011 में 85 करोड़ किलोग्राम चाय की खपत देश में ही हो गई। अगर चाय के प्रति भारतीयों की दीवानगी ऐसी ही चलती रही तो भारत को आने वाले समय में चाय का आयात करना पड़ सकता है।

वैसे सच है कि देश में चाय एक नशा बन चुकी है। कहते हैं कि इंडिया में एवरी टाइम इज टी टाइम, यानि यहां चाय का कोई समय नहीं, जब चाहो, जहां चाहो। घर में कोई मेहमान आए उसकी लाख खातिरदारी कर लीजिए, लेकिन अगर चाय न पिलाई तो भाड़ में गई सब खातिरदारी। सरकारी मीटिंग हो या ट्रेड यूनियन की मीटिंग चाय के बिना अधूरी। ठेठ राष्ट्रवादी और स्वदेशी के झंडाबरदार तमाम नेताओं की जिंदगी का आधार भी चाय ही है। सुबह से शाम तक सात्विक भोजन पर प्रवचन देने वाले संतों के आश्रमों में भी चाय का दबदबा कायम है। कई मंत्री तो चाय के नाम पर ही सालाना लाखों डकार जाते हैं। किसी सरकारी विभाग में काम कराने जाओ तो क्लर्क रिश्वत की जगह चाय-पानी के लिए पैसे मांगता है। लड़की का रिश्ता तय होता है तो वो अपने संभावित ससुराल वालों के सामने चाय की ट्रे लेकर ही प्रकट होती है। रेलवे स्टेशन पर फेरी वाले की अंतडिय़ों से निकलने वाली चाय-चाय की आवाज न हो तो काहे का स्टेशन। कुछ लोगों को अगर उनकी पत्नी सुबह-सुबह चाय ने दे तो उनका पेट हल्का नहीं हो पाता। कहानीकार और पत्रकार न जाने कितने किस्से कहानियां चाय के खोखे पर ही बनाते हैं। भारत में चाय की महिमा अपरंपार है। लिखते-लिखते लव हो जाए। लेकिन इस महिमा मंडन के चलते चाय को राष्ट्रीय पेय बना दिया जाए, तो ये बात कुछ हजम नहीं होती।

Friday, May 4, 2012

आओ चुनें राष्ट्र का पति!



राष्ट्र बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा है। वैसे कोई दौर ऐसा नहीं होता, जब हमारा राष्ट्र नाजुक दौर में नहीं होता। हमारे राष्ट्र के लिए हर दौर नाजुक रहा है। खैर, नाजुकता के तमाम आर्थिक, सामाजिक, सामरिक, भौगोलिक, प्राकृतिक, मानसिक, शारीरिक कारणों के साथ इस समय एक नाजुक कारण ये भी है कि राष्ट्र को अपना नया पति चुनना है। देश के भविष्य के लिए सतत चिंतनशील रहने वाले नेताओं और उनकी पार्टियों को अब ये चिंता सता रही है कि वो राष्ट्र का हाथ किसके हाथ में सौंपे। नेतागण इतने चिंतित हैं कि कुछ सोच नहीं पा रहे हैं कि इस नाजुक दौर में राष्ट्र का पति किसे बनाया जाए। दरअसल ज्यादा सोचते-सोचते सोच भी काम करना बंद कर देती है। इसलिए पार्टियों के बीच से विरोधाभासी बयान निकल-निकल कर आ रहे हैं। ये बयान आ रहे हैं या निकलवाए जा रहे हैं ये तो मीडिया ही बता सकता है। क्योंकि कोई राष्ट्रीय विषय हो और मीडिया उसमें टांग न अड़ाए तो वो विषय ही कैसा। अब संविधान ने मीडिया को लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के रूप में कोई लिखित स्थान तो दिया नहीं है। वो तो भला हो हमारे समाजशास्त्रियों, राजनीतिक विज्ञानियों और नेताओं का कि वे खुलकर ये मानते हैं कि मीडिया चैथा स्तंभ है। लेकिन मीडिया के कलेजे को केवल मानने से ठंडक नहीं मिलती। इसलिए मीडिया कर चीज में समय से पहले और जरूरत से ज्यादा टांग घुसेड़ता है, केवल ये जताने के लिए कि भई हम भी हैं। या यूं कहें कि लोकतंत्र के बाकी के तीन स्तंभों से मीडिया चुन-चुन कर बदला लेने की कोशिश करता है कि तुमको संविधान के अंदर लिखित में जगह मिली और हमें मौखिक-मौखिक बहला दिए।

सो, राष्ट्र के पति को चुनना है अगस्त में, मीडिया भौंपू बजा रहा अप्रैल में। राष्ट्र का पति तो हमारे नेतागण आम सहमति से, सबके सम्मान का ख्याल रखते हुए तब भी चुनते थे जब मीडिया के नाम पर एक दो सरकारी भौंपू और 20-25 निजी समाचार पत्र होते थे। हमारे नेताओं को अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह भान था, है और रहेगा। आपस में कित्ता भी लड़-झगड़ लें लेकिन एक दिन के लिए भी राष्ट्र को बिना पति के नहीं रहने देंगे। उचित समय आने पर आम सहमति भी बन जाएगी और नाम की घोषणा भी हो जाएगी। लेकिन अब मीडिया का दौर है हर काम को ग्रैंड बनाना जरूरी है। तो जी हर रोज टीवी चैनलों पर नए नाम को लेकर बहस। नेताओं का आपस में मिलना जुलना, चाय पीना, हाथ मिलाना, फोन करना दूभर हो गया है। जबरदस्त नाम उछाले जा रहे हैं। जो न तीन में न तेरह में। सबसे तेज दिखने की होड़ में हर रोज जमकर पतंगबाजी देखिए। पिछली बार भी ऐसे ही कर रहे थे। न जाने किस-किस के नाम उछाल रहे थे। पर चुप्पै से प्रतिभा पाटिल आईं और बन गईं; और मीडिया रह गया पतंग उड़ाता। भारतीय नेताओं के दिमाग को पढ़ने वाली मशीन बनाना मुश्किल है। उनके दिमाग में कब, कहां और क्या चल रहा है ये जानना अगर इत्ता आसान होता तो मीडिया को लिखित में जगह न मिल गई होती। मौखिक जगह देकर ही थोड़े फुसला देते। पर जो हार मान ले वो मीडिया कैसा? वो भी इसी मिट्टी का बना है। पंगे पर पंगे लेता रहेगा, लेता रहेगा। 

अच्छा, पहले राष्ट्रपति चुनाव को इत्ती तवज्जो नहीं मिलती थी, कि भई राष्ट्रपति तो रबर स्टैंप होता है, असली काम तो प्रधानमंत्री करता है। लेकिन अब जब देश में प्रधानमंत्री भी रबर स्टैंप की तरह काम कर रहे हैं तो ऐसे में मीडिया ने सोचा होगा कि जब उन वाले रबर स्टैंप को चुनते वक्त इत्ती स्याही खर्च की थी, तो इन वाले रबर स्टैंप को चुनने में अगर स्याही खर्च नहीं की तो दोनों रबर स्टैंपों के बीच पक्षपात कहलाएगा।

Monday, April 2, 2012

नकली खुशी बनाम असली खुशी !

बात तब की है जब अपन छोटे थे। पापा की सरकारी नौकरी। किराए का मकान। घर में एक ब्लैक एंड व्हाइट टीवी, जिस पर शटर लगा था और उस टीवी पर दूरदर्शन की प्रस्तुति। समझ ही नहीं आता था कि इत्ते सारे लोग इस छोटे से डिब्बे के अंदर कैसे सोते थे। खैर, अब ये तो समझ आ गया कि इत्ते सारे लोग बुद्धू बक्से में कैसे सोते हैं। लेकिन ये आज तक समझ नहीं आया कि उसमें दिखाए जाने वाली विज्ञापनों की दुनिया इत्ती खुशहाल क्यों होती है। सारे के सारे जरूरत से ज्यादा खुश पहले भी दिखते थे आज भी दिखते हैं। अपने मसूढ़ों को आखिरी छोर तक दिखाने पर आमादा रहते हैं। उनकी खुशहाल दुनिया के सामने अपन की दुनिया तो ऐसी लगती है मानो अपन तो धरती पर भार ही बढ़ा रहे हैं।
 
उस समय एक विज्ञापन आता था किसान यूरिया का, जिसमें एक किसान बड़ा खुश होकर और गाना गाकर अपने खेत में खाद बिखेर रहा होता था। इस तरह के तमाम विज्ञापनों का बाल मन पर खासा असर पड़ता। छुट्टियों में गांव जाना हुआ। चाचा ने कहा कि आज खेत में खाद डालना है। इतना सुनते ही हम खुश। हमारे लिए खाद डालने का मतलब था चाचा खेत में जाकर गाना गाएंगे। हमने जिद ठान ली कि हम भी साथ चलेंगे। खैर, चाचा ने बुग्गी में दो खाद के बोरे रखे, तीन लोहे की बाल्टी और चल दिए खेत पर। खेत पर जाकर चाचा ने हमें मेंढ पर बैठा दिया, दो मजदूरों को संग लिया, बाएं हाथ में बाल्टी लटकाई और दाएं हाथ से खाद बिखेरना शुरू कर दिया। हमको मामला जंचा नहीं और बेहद नाॅन रोमांटिक लगा। हमने कहा चाचा खाद ऐसे थोड़ी बिखेरते हैं। खाद बिखेरते हैं तो गाना गाते हैं। हमने टीवी पर देखा है। चाचा हंस दिए और हम बच्चों का मन रखने के लिए उन्होंने एक गाना गाया। लेकिन चाचा की आवाज में वो चीज नहीं आ पा रही थी, जो टीवी वाले किसान की आवाज में थी। दूसरा बैकग्राउंड में म्युजिक भी नहीं था। तीसरा चाचा उतने खुश भी नहीं लग रहे थे, जितना टीवी वाला किसान था। वो तो बीच-बीच में मजदूरों को हिदायतें दे रहे थे, ऐसे नहीं, वैसे नहीं।
 
उस क्लोज-अप वाले मुंडे को ही लो, मंजन करते ही उसका काॅन्फीडेंस आसमान छूता है। चारों तरफ तितलियों की तरह लड़कियां इठलाने लगती हैं। दांत रगड़ते-रगड़ते तीस साल हो गए, आज तक उस मुंडे का दस प्रतिशत काॅन्फीडेंस भी नहीं आया। किसी काॅलेज का विज्ञापन देखा है कभी- काला गाउन पहने, सिर पर चैकोर टोपी लगाए, हाथ में डिग्री लेकर उसका ग्रेजुएट अपनी टांगें मोड़कर आसमान में ऐसा उछलता है मानो इंद्र का सिंहासन मिल गया हो। लेकिन असल जिंदगी में जब भी मैं किसी काॅलेज के काॅन्वोकेशन में गया तो वहां अपने अंधकारमय फ्यूचर में मोटा चश्मा लगाकर झांकते डिप्रेस्ड स्टूडेंट्स ज्यादा नजर आए और आसमान में उछलता हुआ कोई न दिखा। आजकल रीयल एस्टेट में विज्ञापनों का सबसे ज्यादा जोर है। चैक-चैबारों पर लगे बड़े-बड़े साइन बोर्ड ऐसे वादे करते दिखेंगे कि आपको दो कमरे का दड़बा नहीं, बल्कि एक राजमहल बेच रहे हों। बीस परसेंट की छूट देकर आप पर एहसान भी कर रहे हैं। लेकिन बुकिंग करवाने से लेकर पजेशन लेने तक आपके घुटनों में से एक-एक बूंद तेल न निकलवा लें तो बात है।
 
लेकिन वो दुनिया खुशहाल है। उस दुनिया का युवक जरा सा डियोडरेंट ही छिड़क ले तो लड़की हां कर देती है, इस दुनिया का युवक प्रोपोज करते-करते अपनी जान ही क्यों न छिड़क दे तब भी लड़की के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। शायद इस दुनिया की सारी लड़कियां मेडिकर लगाने लगी हैं। उस दुनिया में आईपीएल देखना एक उत्सव है और इस दुनिया में घर के अंदर देर रात टीवी चलाना एक महाभारत है। उस दुनिया में कपड़े धोने में गोविंदा स्त्री की मदद करता है, इस दुनिया में घर की गृहणी को कपड़े रगड़ते-रगड़ते सालों बीत गए पर पति महोदय ने दो शब्द तारीफ के नहीं बोले। इस दुनिया के लोगों ने वो सारी चीजें खरीदकर देख लीं जो विज्ञापन की दुनिया में दिखाई जाती हैं, लेकिन वैसी वाली खुशी घर में आज तक नहीं आई। ये बात आज तक मेरी समझ में नहीं आई। या तो उस दुनिया की खुशी नकली है या फिर इस दुनिया में टेंशन बहुत ज्यादा है।

Tuesday, March 27, 2012

भारतीय गांव तो पान सिंह तोमर जैसे बागी पैदा करने की फैक्ट्री हैं

विकिपीडिया पर पान सिंह तोमर की तस्वीर
फिल्म पान सिंह तोमर भारतीय ग्रामीण परिवेश की सच्ची तस्वीर दिखाती है। उस तस्वीर से बिल्कुल अलग जो कवियों की कविताओं में होती है- संुदरता, प्यार और सौहार्द से भरे गांव! शायद पहले कभी ऐसे गांव रहे हों जो प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण हों, जहां के समाज में आपसी सौहार्द हो, आज हिंदी क्षेत्र के अधिकांश गांव पान सिंह तोमर के गांव से मेल खाते हैं, जहां की परिस्थितियों ने एक बेहतरीन प्रतिभा को बागी (डकैत नहीं; डकैत तो पान सिंह तोमर ने फिल्म में बता ही दिया था कि कहां मिलते हैं।) बनने पर मजबूर कर दिया। उत्तराखंड और हिमाचल में जरूर ऐसे गांव बचे हैं जहां प्राकृतिक सौंदर्य भी है और आपसी सौहार्द भी। लेकिन अब वहां भी धीरे-धीरे राजनीति और पैसे की होड़ पहुंचती जा रही है।

पढ़ाई के दौरान 2004 में काॅलेज टूर पर एक बार मनाली जाना हुआ। हिमाचल का खूबसूरत गांव जो अटल जी को खासा प्रिय है। वहां के लोकल टैक्सी ड्राइवर से हुई बातचीत मुझे आजतक याद है। पत्रकारिता के छात्र होने के नाते मैंने केलांग और सोलांग के रास्ते पर उससे कई सवाल किए थे। मनाली और हिमाचल के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक पक्ष से जुड़े सवाल। बात मनाली के सेबों की और पहाड़ी आलुओं की हुई तो उसने बताया- ‘‘फसल को बेचने के लिए यहां के किसानों को दिल्ली और मुंबई के बाजारों में नहीं जाना पड़ता। हमारे गांव का ही एक एजेंट वहां होता है, जो सबकी फसल की चिंता करता है। हमारा आपसी विश्वास इतना गहरा है कि कोई भी उस एजेंट पर शक नहीं करता, वो जितनी रकम भेजता है वो हमें स्वीकार होती है। और हमें पता है कि वो हमारे साथ कुछ गलत कर ही नहीं सकता। वैसे भी गांव के लोग बेहद भोले हैं वे दिल्ली और मुंबई के बाजारों में फिट नहीं बैठते।’’ काॅलेज टूर पर एक और छोटी सी घटना घटी। हमारी गाड़ी के पीछे चल रही इन्नोवा में जो लड़के सवार थे, उनमें से किसी ने मनाली की एक लड़की को देखकर कोई फब्ती कसी, जिसे सुनकर गाड़ी के ड्राइवर ने गाड़ी को वहीं रोक लिया और गाड़ी चलाने से इंकार कर दिया। उसने लड़कों से कहा ‘‘मनाली की लड़कियां हमारी मां बहनें हैं। आप लोगों को ये सब करना है तो पैदल चले जाइए। यहां का कोई भी ड्राइवर ये सब बर्दाश्त नहीं करेगा।’’ काॅलेज स्टाफ के लड़कों को डांटने और ड्राइवर से माफी मांगने के बाद काॅनवाॅय आगे बढ़ा।

मनाली की ये तस्वीर मैदानी क्षेत्र के गांवों से कतई भिन्न है। मैदानी क्षेत्र के गांव आज ईष्र्या, द्वेष और डाह के शिकार बनकर रह गए हैं। गांवों में रंजिशें, जमीनों को लेकर हत्याएं, मुकदमेबाजी आम हो गई है। छोटी-छोटी बातों को लेकर एक-दूसरे की जान का दुशमन बन जाना, दूसरे की तरक्की देखकर जलना, ईष्र्या के कारण द्वेष रखना और फिर उस द्वेष का रंजिश में बदल जाना और फिर शहर की कचहरियों के चक्कर लगाना गांवों का शगल बनता जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में ऐसी-ऐसी चीजों को लेकर मुकदमेबाजी के दिलचस्प केस मिल जाएंगे कि गधों को भी हंसी आ जाए। मसलन- खेत की मेंढ को लेकर, चैक के कुएं को लेकर, दल्लान में बैठने को लेकर, घर में गिर रहे पनारे या नालियों को लेकर, खेत में भैंस के घुस जाने पर और न जाने कैसी-कैसी हास्यासपद चीजों पर लोग आपस में भिड़ने को तैयार रहते हैं और उस भिडं़त को कोर्ट-कचहरी तक ले जाने में गुरेज नहीं करते। घर चाहे खाने के लाले पड़ रहे हों, लेकिन नाक की झूठी लड़ाई वो पेट पर पत्थर बांधकर लड़ने को भी तैयार हैं। लोगों की आपसी जलन और अहम की लड़ाई न तो उन्हें न तो खुद की तरक्की करने दे रही है और न ग्रामीण समाज की। इस तरह की ओछी लड़ाइयां ग्रामीण समाज को नई सोच देने में बड़ी बाधा बनी हुई है। अगर उस दौर में पान सिंह तोमर को एक श्रेष्ठ धावक से एक बागी बनकर बंदूक उठानी पड़ी तो आज का दौर भी कुछ भिन्न नहीं है। आज के गांवों में भी तमाम युवा ऐसे हैं जिनकी आंखों में आगे बढ़ने के सपने हैं, देश के प्रति सपने हैं, लेकिन गांव की आपसी रंजिशें और आए दिन की छोटी-छोटी परेशानियां उन्हें आगे नहीं बढ़ने देतीं।

राजनीति जब अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर हो तो ठीक लगती है लेकिन जब वो गिरते-गिरते ग्रामीण स्तर तक पहुंच जाए तो बेहद हानिकारक सिद्ध होती है और हो भी रही है। पंचायती राज व्यवस्था बनाई तो गई थी गांवों के विकास के लिए, लेकिन इस व्यवस्था ने ग्रामीण समाज का जितना नुकसान किया शायद उतना किसी चीज ने नहीं किया। ग्राम प्रधान या सरपंच पद को लेकर होने वाली ग्रामीण स्तर की राजनीति ने गांव के समाज को बुरी तरह बांटकर रख दिया। और इतना गहरा बांटा है कि खाइयों को पाटना नामुमकिन लगता है। पंचायती राज व्यवस्था के तहत होने वाले चुनावों से हो रहे नुकसान को शायद अन्ना हजारे को भी दिखा होगा, तभी तो रालेगणसिद्धि से जुड़े तमाम गांवों में ग्राम प्रधान के चुनाव नहीं होते, बल्कि सरपंच को सर्वसम्मति से चुना जाता है। गांवों के सामाजिक ताने-बाने को मजबूत रखने के लिए अन्ना द्वारा उठाया गया ये एक बेहद जरूरी कदम है। भारत के गांव अगर इसी तरह राजनीति के शिकार होते रहे तो फिर गांवों को बचाना मुश्किल होगा। सांप जब बाहर घूमता है टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलता है, लेकिन जब भी अपने घर में घुसता है तो सीधा घुसता है। गांव भारत के सच्चे घर हैं, राष्ट्रीय स्तर पर भले ही राजनीति का टेढ़ापन झेला जा सकता है, लेकिन अगर राजनीति का ये टेढ़ापन गांवों में घुसता रहा तो नुकसान ही नुकसान है। गांवों को राजनीति से दूर सीधी-सादी जिंदगी से भरा ही रहने दिया जाए तो बेहतर होगा। खासतौर से हिंदी पट्टी के मैदानी क्षेत्र के गांवों को पहाड़ के ग्रामीण समाज से और अन्ना के रालेगणसिद्धि से काफी कुछ सीखने की जरूरत है।

Monday, March 19, 2012

लालू के बाद अब बिहार के आलू का जलवा


अब तब बिहार लालू के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन अब अपने आलू के लिए भी जाना जाएगा। जी हां, खबर है कि बिहार में नितीश कुमार नाम के एक किसान ने जैविक खेती के माध्यम से आलुओं की रिकाॅर्ड पैदावार की है (ये संयोग ही है कि किसान का नाम वहां के मुख्यमंत्री के नाम से मिलता है)। किसान ने 72.9 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आलुओं की पैदावार कर एक विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है।

ये खबर पढ़ते वक्त मुझे मेरठ के सेंट्रल पटैटो रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीपीआरआई) की याद आ गई। मेरठ में पत्रकारिता के दौरान सीपीआरआई के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक का इंटरव्यू करने का मौका मिला। बातों-बातों में जब उनसे मैंने पूछा कि अनाज, सब्जियों और फलों में जो पहले स्वाद हुआ करता था वो कहां विलुप्त होता जा रहा है। न गेहूं की रोटी में वो खुशबू हैं न अरहड़ की पाॅलिश्ड दाल में वो स्वाद, कहीं आने वाली पीढ़ी स्वाद से वंचित तो नहीं होने जा रही? क्या अब लोग केवल पेट भरने के लिए खाएंगे और स्वाद भूल जाएंगे? और क्या आलुओं में जेनेटिकली माॅडिफाइड बीजों के इस्तेमाल की तरफ कदम बढ़ाए जा रहे हैं?

इन सवालों के जवाब में  उन्होंने माना कि ये सही बात है कि अनाज, दलहन, तिलहन, सब्जियों और फलों में से स्वाद गायब हो रहा है, जिसका कारण है अधिक से अधिक पैदावार के लिए खेती के तौर तरीकों में बदलाव। उन्होंने कहा कि देश की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है और उपजाऊ जमीनें उसी तेजी के साथ घट रही हैं। कृषि वैज्ञानिकों के ऊपर दबाव है कि वे बढ़ती आबादी के अनुपात में फसलों की पैदावार भी बढ़ाएं। और अगर पैदावार बढ़ानी है तो कहीं न कहीं स्वाद के साथ समझौता करना ही होगा। कृषि के परंपरागत तौर-तरीकों को छोड़कर खेती में आज जीएम बीज (जेनेटिकली माॅडिफाइड), हाइब्रिड बीज और केमिकल्स का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। उन्होंने बताया कि आलू हाई एनर्जी फूड है और क्योंकि भारत की अधिकांश गरीब जनता पेट भरने के लिए आलू पर निर्भर है तो आलू की पैदावार लगातार बढ़ानी ही होगी। इसके लिए जीएम बीजों के प्रयोग पर भी विचार किया जा रहा है।

लेकिन बिहार से जो खबर आई है उसके मुताबिक वहां के किसान ने जैविक खेती के माध्यम से आलू का रिकाॅर्ड उत्पादन किया है। अगर ये बात सही है तो उन कृषि विशेषज्ञों के लिए ये आइना दिखाने वाला है जो मानते हैं कि जीएम बीजों और केमिकल्स के बिना पैदावार को नहीं बढ़ाया जा सकता। जिस समय देश में हरित क्रांति आई थी उस समय खेती के गैर-परंपरागत तरीकों को अपनाना एक मजबूरी हो सकती थी, लेकिन अब हम इतने मजबूर नहीं हैं कि जैविक खेती को सिरे से नकारते रहें और उस दिशा में प्रयास ही न करें। किसी प्रजाति की जींस में छेड़छाड़ करके बाजार और मनुष्य की जरूरतों के अनुरूप तैयार किए जा रहे जीएम बीजों की खासियत ये है कि ये बीज एक ही बार इस्तेमाल किये जा सकते हैं। इन बीजों के फलों से जो बीज प्राप्त होते हैं वे दोबारा नहीं बोए जा सकते। दोबारा बोने के लिए आपको फिर से बाजार पर निर्भर होना पड़ेगा। इन बीजों के रेट का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि एक बार मेरी आंटी ने अपनी गढ़मुक्तेश्वर वाली जमीन में पपीते का बाग लगाने का सोचा, काफी विचार-विमर्श के बाद उन्होंने पूसा कैंपस से बीज खरीदने का प्लान बनाया। तो वहां पपीते के बीजों के रेट थे 90 हजारे रुपए किलो और 20 हजार रुपए किलो। 90 हजार वाले बीजों में ये गारंटी थी कि पपीते के हर पेड़ पर फल आएगा। क्योंकि साधरण पपीते के पेड़ों में जो नर पेड़ होते हैं उन पर फल नहीं लगते। लेकिन वैज्ञानिकों ने उत्पादन बढ़ाने के लिए इसका भी तोड़ निकाल लिया।

वैज्ञानिकों के तोड़ के बारे में तो पूछिए ही मत, उन्होंने किस-किसी चीज के तोड़ नहीं निकाले। पहले टमाटर काटते-काटते उसका दम निकल जाता था, लेकिन आजकल का टमाटर सेब की तरह कटता है और उसमें खटास नाम को नहीं मिलेगी, सब्जी को खट्टा करने के लिए अमचूर डालना पड़ता है। प्याज काटो तो अब आंसू नहीं निकलेंगे। पपीते के अंदर बीज नहीं निकलता। तरबूज में भी बीज कम हो गए हैं। चित्तीदार केला देखने को नहीं मिलता। फल और सब्जियां जल्दी खराब नहीं होते। और बीटी ब्रिंजल के बारे में तो सबको पता ही है। सभी फल और सब्जियां देखने में बेहद सुंदर और आकर्षक होते जा रहे हैं, लेकिन उनके अंदर गुण कितने बचे हैं ये किसी को नहीं पता। और अगर इसी तरह बीजों के लिए किसानों की निर्भरता बाजार पर बढ़ती गई तो गरीब किसान तो गया काम से। रही बात स्वाद की तो बाजारवाद के इस दौर में स्वाद और गुणों की इच्छा न करें, तो ही बेहतर होगा।

Tuesday, March 13, 2012

राजनीति में परिवारवादः मजबूत परिवार संस्था की निशानी?

भारतीय राजनीति पर हमेशा से परिवारवाद और भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। तर्क ये कि लोकतंत्र में परिवारवाद के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। मिसाल दी जाती है पश्चिमी देशों की। हालांकि इंग्लैंण्ड जैसा लोकतंत्र सदियों से एक शाही परिवार के अंगूठे के नीचे काम करता चला आ रहा है। अब इसे सही मानें या गलत, लेकिन भारतीय राजनीति में परिवारवाद कहीं न कहीं भारतीय समाज की मजबूत परिवार संस्था को ही दर्शाता है। जिन देशों में परिवार संस्थाएं बेहद कमजोर हैं वहां की राजनीति में भी परिवारवाद कम देखने को मिलता है। भारत समेत अधिकांश एशियाई देश भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत काम कर रहे हों, लेकिन वहां की राजनीति में परिवारों का खासा दखल है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इन देशों के समाज में परिवार आज भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जबकि पश्चिमी देशों में परिवार संस्थाएं तेजी से भरभरा रही हैं।


देश के उत्तरी छोर से शुरू करते हुए अगर भारत पर नजर डालें तो- जम्मू कश्मीर की नेशनल काॅन्फ्रेंस में अब्दुल्ला परिवार और पीडीपी में मुफ्ती परिवार, उत्तर प्रदेश की सपा में मुलायम सिंह का परिवार और रालोद में चै. अजीत सिंह का परिवार, पंजाब के अकाली दल में बादल परिवार, हरियाणा के इनेलो में चैटाला परिवार, बिहार के राजद में लालू यादव परिवार, उड़ीसा के बीजद में पटनायक परिवार, महाराष्ट्र की शिव सेना में ठाकरे परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, ग्वालियर का सिंधिया परिवार और सबके ऊपर एक राष्ट्रीय परिवार- गांधी परिवार। भारत की राजनीति पूरी तरह परिवारों के गिरफ्त में है। भारतीय राजनीति में परिवार इतने महत्वपूर्ण हो चले हैं कि उनको राजनीति से अलग किया ही नहीं जा सकता। और जिस तरह जनता इन पारिवारिक पार्टियों के सिर पर जीत का सेहरा बांधती आ रही है, उसे देखकर तो यही लगता है कि आम जनमानस को परिवारवाद से कोई खास दिक्कत नहीं है।

वाम दल और भाजपा ऐसी पार्टियां हैं जहां पारिवारिक उत्तराधिकारी देखने को नहीं मिलते। भाजपा के वरिष्ठ नेता अपने बच्चों को सांसद और विधायक के पदों तक तो पहुंचाने में सफल रहे हैं, लेकिन किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के बेटे के सीएम-पीएम बनने के उदाहरण नहीं दिखते। भाजपा में संघ का दखल व अनुशासन और वाम दलों में पार्टी की सख्त कार्यप्रणाली व नीतियां इसके पीछे मुख्य कारण हो सकती है। लेकिन कांग्रेस समेत देश की बाकी पार्टियों में परिवारों का खासा बोलबाला है। वैसे भी ये तो इस देश की संस्कृति रही है कि पिता अपने पुत्र को और भाई अपने भाई को सदा से मजबूत बनाता चला आया है। तो अगर राजनीतिक दलों में ऐसा हो रहा है तो उसमें हैरान होने की कोई बात नहीं। भारत के जिन घरों में पिता-पुत्र और भाई-भाई के रिश्तों में दरारें हैं उन घरों को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। हमारे यहां खून के रिश्तों को इतना महत्व दिया जाता है कि सर्वोच्च पदों पर पहुंचने के बाद भी रिश्तों को दरकिनार नहीं कर सकते। जिस दिन भारतीय समाज में व्याप्त मजबूत परिवार संस्था कमजोर होगी उस दिन भारतीय राजनीति से भी परिवारवाद खत्म होना शुरू हो जाएगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र के लिए परिवारवाद अच्छा नहीं, लेकिन आजादी के 65वें साल में भी लाख हो-हल्ले के बावजूद देश की राजनीति से परिवारवाद नहीं मिट पा रहा है। अगर केंद्रीय सरकार की बात करें तो 65 में से तकरीबन 50 सालों तक एक मात्र नेहरू-गांधी परिवार की बादशाहत रही है। उसी तरह जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार भी एकछत्र शासन करता चला आ रहा है। वैसे भारत में लोकतंत्र की स्थापना से पहले जो राजतांत्रिक व्यवस्था थी उसमें भी एक ही वंश लगातार शासन करता था। तो उस हिसाब से वर्तमान लोकतंत्र को उसी राजतांत्रिक व्यवस्था का सुधरा हुआ रूप भी कहा जा सकता है।

Friday, March 9, 2012

शब्दों के शेर!



विंस्टन चर्चिल ने जब ये बयान दिया होगा कि ‘वल्र्ड इज रूल्ड बाय वड्र्स’ तब उन्होंने भारत के बारे में नहीं सोचा होगा, जहां के नेताओं से बड़े ‘शब्द शेर’ शायद ही विश्व के किसी देश में पाए जाते हों। हमारे देश में ये प्रजाति बहुतायत में पाई जाती है। जिलास्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक, दक्षिणपंथियों से लेकर वामपंथियों तक, गांधीवादियों से लेकर समाजवादियों, दिल्ली से लेकर दादरा नागर हवेली तक एक से बढ़कर एक ‘शब्द शेर’ सड़कों पर घूमते फिरते हैं। ये प्रजाति इतनी तेजी से बढ़ रही है कि किसी भी प्रकार की नसबंदी से इसे रोका नहीं जा सकता।

चुनाव आयोग के सौजन्य से, जनता के हित में पंच राज्यीय चुनाव कार्यक्रम के तहत जो लीला आयोजित की गई उसमें तमाम पार्टियों के ‘शब्द शेर’ हमें अपने गलियों में घूमते दिखे। जनता के हित में उन्होंने ऐसे-ऐसे शब्दों का उच्चारण किया कि कोई भी शब्द भेदी बाण उन्हें नहीं भेद सकता। चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक पार्टियों के ‘शब्द शेर’ ऐसे दावे करते हैं कि गधों को भी हंसी आ जाए और फिर चुनावों के बाद वही ‘शब्द शेर’ अपने कहे हुए शब्दों पर फिर से शब्दों की लीपापोती करते हैं। सबका दावा यही कि सरकार हमारी पार्टी कि बनेगी, मानो कई सरकारें एक साथ बनने वाली हों।

रही बात वादों की तो जुबान हिलाने में क्या जाता है। एक कहे कि मेरी पार्टी की सरकार बनी तो मैं भैंस दूंगा तो दूसरा बोले कि मैं भैंस के संग लवाड़ा भी दूंगा। कोई बोले साइकिल दूंगा तो कोई बोले मोटरसाइकिल दूंगा, वो भी तेल भरवाकर। अब समाजवादी पार्टी को ये उम्मीद नहीं रही होगी कि पब्लिक बावरी इत्ता बड़ा बहुमत दे देगी। अब पार्टी को सोचना पड़ रहा होगा कि 18 करोड़ जनसंख्या वाले प्रदेश में कैसे इत्ते सारे लैपटाॅप और आईपैड बांटेंगे। वैसे भी मायावती ने खजाने में कुछ छोड़ा नहीं है, अरबों का खर्च आएगा, सरकार की तो बधिया बैठ जाएगी।

चुनाव परिणामों के बाद इन शब्द शेरों के बयान में थोड़ा बदलाव तो होता है, लेकिन फिर भी बात को ऐसे घुमाफिराकर कहेंगे कि उनकी हार भी हार नहीं लगती। पता नहीं सीधे-सीधे हार स्वीकारने में क्या घिसता है। यूपी में चुनाव परिणामों के बाद आए पार्टियों और नेताओं के कुछ खास बयानों को देखिएः


अखिलेश यादवः

हमने शानदार जीत दर्ज की हैः जिसकी हमें भी उम्मीद नहीं थी।

कांग्रेस के साथ संबंध अच्छे रहेंगेः क्या करें बयान बदल नहीं सकते सुबह के वक्त लग रहा था कि उनके समर्थन की जरूरत पड़ेगी, पर शाम होते-होते..

हार जीत तो होती रहती हैः अगली बार हम हार जाएंगे, इसमें क्या बात है।

प्रदेश में पार्टी पदाधिकारियों को गुडई नहीं करने दी जाएगीः गुंडई तो शुरू हो भी गई।

 पार्टी अपने सभी वादे पूरे करेगीः कैसे करेगी ये मुझे भी नहीं पता।


भाजपाः

हमने गोवा में अच्छा प्रदर्शन किया हैः आप से सवाल यूपी के बारे में पूछा गया है।

यूपी के परिणाम से हम निराश नहीं हैं: इससे ज्यादा निराशाजनक और क्या देखना चाहते हैं?

हमारा जनाधार बढ़ा हैः पर सीटें तो घट गईं!

पार्टी द्वारा आत्ममंथन किया जाएगाः चुनावों से पहले क्यों नहीं किया?



सोनिया गांधीः

यूपी की जनता के पास सपा का ही विकल्प थाः तो आपकी पार्टी वहां क्या झुनझुना बजाने गई थी?

यूपी में हमारा संगठन कमजोर थाः ये बात आपको करोड़ों खर्च करके हारने के बाद क्यों पता चली?

अमेठी और रायबरेली के लोगों को हमारे उम्मीदवार पसंद नहीं आएः 2014 में आपको और राहुल को वहां से उम्मीदवारी करनी है, कृपया अभी से विचार कर लें।

पिछली बार से सीटें बढ़ी हैं, 22 से 28 हो गएः इस हिसाब से अगली बार 34 मिलेंगी।



मायावतीः

यूपी में गुंडाराज आ गया है यहां कि जनता जल्द ही मेरे (कु) शासन को याद करेगीः लेकिन आपको तो कम से कम पांच साल इंतजार करना ही होगा।

लोग मेरी सरकार से नाराज नहीं थे, वरना बसपा को 76 सीटें नहीं मिलतीं, मेरा भी हाल बिहार में लालू जैसा होताः दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है...

मुझे भाजपा, कांग्रेस, मुस्लिम और मीडिया ने हरायाः तो क्या मैडम आपको लगता था कि भाजपा और कांग्रेस आपको जिताने के लिए चुनाव लड़ रही थीं।

Wednesday, March 7, 2012

पार्टियों को लेना होगा इस जनादेश से सबक!


पांच राज्यों के चुनाव परिणाम देश के राजनीतिक व्यवस्था के लिए कई पाठ सिखाने वाले हैं। शह और मात के राजनीतिक खेल में कई पार्टियों के समीकरण बिगाड़ कर रख दिए हैं। सपा, बसपा, भाजपा, अकाली और कांग्रेस के लिए ये चुनाव कई सबक लेकर आए। सबसे अच्छी बात ये रही कि उत्तराखंड को छोड़कर हर जगह जनता ने एक पार्टी के पक्ष में बहुमत दिया है। न त्रिशंकु विधान सभा, न राष्ट्रपति शासन और न मध्यावधि चुनावों की गुंजाइश। उत्तराखंड में भी परिस्थितियां इतनी बुरी नहीं हैं। कांग्रस या भाजपा अन्यों के भरोसे अगर सरकार बनाती है तो वो स्थाई ही होगी। इन चुनावों के परिणामों ने साफ कर दिया है कि आवाम अब पहले से काफी जागरूक है। जनता ने तमाम गुंडों, दबंगों और बाहुबलियों को हराकर साफ संदेश दे दिया है कि उसे अपने ही जैसे साफ-सुथरे और सज्जन नेता चाहिए। पार्टियां इन चुनावों से क्या सबक ले सकती हैं, आइए डालते हैं एक नजरः 

समाजवादी पार्टीः सबसे पहले बात सपा की करते हैं जिसके सिर पर जनता ने जीत का सेहरा बांधा है। इस जीत का श्रेय अगर अखिलेश यादव को दिया जा रहा है तो इसमें कोई गलत नहीं है। ये अखिलेश ही हैं जिन्होंने पार्टी में नए प्रयोग किए, खांटी नेताओं की जगह युवाओं को टिकट वितरित किए, जिनमें इंजीनियर, डाॅक्टर और मैनेजर शामिल हैं, पार्टी के दिग्गज नेताओं के खिलाफ जाकर डीपी यादव का टिकट कैंसिल कराया, गांव-गांव और गली-गली जाकर चुपचाप पार्टी के लिए काम किया। अखिलेश पिछले नौ साल से सपा के साथ राजनीति में सक्रिय हैं और दो बार से सांसद हैं। लेकिन नौ सालों में कभी अखिलेश ने मीडिया अटेंशन प्राप्त करने की कोशिश नहीं की। मीडिया को राहुल को युवराज-युवराज कहकर पुकार रही थी, लेकिन यूपी के असली युवराज अखिलेश साबित हुए। ऐसा नहीं है कि अखिलेश ने ग्रासरूट लेवल पर जाकर काम नहीं किया, उन्होंने कस्बाई स्तर तक जाकर जमकर काम किया लेकिन राहुल की तरह कभी कैमरे के सामने नहीं किया। शायद वो जानते थे कि दिखावे पर मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ। बेहद संयत भाषा में, बेहद विनम्र तरीके से वो जनता के बीच अपना काम करते रहे और छह मार्च को जनता ने उनके हक में परिणाम दे दिया। तब जाकर देश की मीडिया को एहसास हुआ कि देश में राहुल के अलावा भी एक और युवा नेता है। लेकिन अखिलेश ने अभी भी अपनी भाषा का संयम नहीं खोया, न माया के खिलाफ और न कांग्रेस के खिलाफ। चुनौतियाः लेकिन अखिलेश के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां इंतजार कर रही हैं। सपा के जिस गुंडाराज की बात हमेशा विपक्ष और मीडिया करता आया है, उसका एक ट्रेलर चुनावी नतीजे सामने आते ही दिखने लगा। शाम होते-होते यूपी के तमाम जिलों से हिंसा और मौतों की खबरें आने लगीं। अखिलेश में जो संमय और समझदारी है उस स्तर का संयम सपा के कार्यकताओं में ला पाना बेहद मुश्किल है, क्योंकि सपा का जनाधार समाज के बेहद निचले स्तर तक है, जहां सत्ता का मतलब केवल अहंकार के मद में चूर रहना होता है। अगर सपा के कार्यकर्ताओं ने इस बार भी थानों पर कब्जे, गुंडागर्दी और दबंगई दिखाई तो जनता सपा को 2014 में सबक सिखाने से गुरेज नहीं करेगी। ये एक तरह से अच्छा निर्णय है कि मुलायम मुख्यमंत्री बनेंगे, इससे अखिलेश को अपने संगठन को शक्ति देने का वक्त मिलेगा। लेकिन अखिलेश ने संगठन को संयमित करने के लिए कदम नहीं उठाए तो उनके लिए भारी पड़ सकता है। अखिलेश को देखना होगा कि वो राहुल गांधी की तरह पार्टी के कुछ चुनिंदा नेतओं के हाथों की कठपुतली न बनें, बल्कि इसी संयम और विवेक के साथ पार्टी को सीख देते रहें। प्रदेश ने जितनी बड़ी जीत दी है तो जनता अखिलेश से उतनी ही बड़ी उम्मीदें रखेगी। अगर वो जिलास्तर तक अपनी पार्टी के छुटभैये नेताओं को कंट्रोल करने और भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में सफल रहते हैं तो हो सकता है कि यूपी की जनता उन्हें दिल्ली की उस कुर्सी पर बिठा दे जिस पर राहुल की नजरें हैं।

बहुजन समाज पार्टीः बसपा को जिस नाज के साथ यूपी की जनता ने 2007 में लखनऊ के तख्त पर बिठाया था, बसपा उस जनता के लिए कुछ खास करने में विफल रही। जनता के करोड़ों रुपये खर्च करके अपने पुतले खड़े करवाकर माया ने भले ही खुद को और अपने एक खास वोट बैंक को भले ही खुश कर दिया हो, लेकिन प्रदेश की आम आवाम को ये शाही खर्च कतई पसंद नहीं आया। सत्ता में आते ही सबसे पहले माया द्वारा अपना बंगला बनवाना, जन्मदिन पर नोटों का हार पहनना, प्रशासनिक अधिकारियों से ब्रीफकेस लेना, भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए हुई हत्याएं जनता के गले नहीं उतरीं। कांग्रेस के नेता भले ही कह रहे हों कि भ्रष्टाचार चुनावों में मुद्दा नहीं था, लेकिन अन्ना हजारे द्वारा चलाई गई भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का प्रदेश की जनता पर साफ-साफ असर दिखा। मायावाती जिस दलित समाज के कंधे पर पांव रखकर चार बार सत्ता पर काबिज हुईं उस दलित समाज की स्थिति में उनके इस पांच साल के शासन में कोई खास फर्क पड़ता नहीं दिखाई। दलित समाज की माली हालत सुधरी हो या न सुधरी हो, लेकिन मायावती की आर्थिक स्थिति आज बेहद मजबूत है। माया जिस सख्त शासन के लिए जानी जाती हैं, अगर उस सख्ती का लाभ उन्होंने प्रदेश को सुशासन देने में उठाया होता तो यूपी की तस्वीर आज कुछ और होती। लेकिन उन्होंने इन पांच सालों को केवल निजी लाभ उठाने के लिए इस्तेमाल किया। जिस लाड़ के साथ जनता ने उनको 206 सीटें देकर सत्ता सौंपी थी, माया ने उस सत्ता को प्राप्त करके न तो विनम्रता दिखाई और न बड़प्पन, पांच साल तक केवल ऐंठ और अहंकार नजर आता रहा। वो देश की पहली ऐसी नेता बनीं जिसने जीते जी पार्कों में अपनी मूर्तियां ठुकवाईं, वो थोड़ा बहुत नहीं बल्कि करोड़ों का राजस्व खर्च करके। मंच पर खड़े होकर सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का नारा चिल्लाने से सर्वजन सुखी नहीं हो सकता। सर्वजन को सुखी करने के लिए कुछ करना भी पड़ता है। माया का थैली और ब्रीफकेस के प्रति प्यार प्रदेश में किसी से नहीं छिपा। टिकट बेचने से लेकर जन्मदिन के उपहारों तक। प्रशासन पर केवल सख्ती बरतने से सुधार नहीं हो सकता, प्रशासनिक अधिकारियों के मन में प्रदेश के मुखिया के प्रति सम्मान भी होना जरूरी है। वो सम्मान थैलियां बटोरने से तो नहीं आ सकता था। माया अगर ये सोच रही हों कि तमिलनाडु की तरह यूपी की सत्ता एक-एक बार सपा और बसपा को मौका देती रहेगी, तो भी ये उनकी भूल होगी। भाजपा और कांग्रेस अभी भी खेल में बनी हुई है। माया को चाहिए कि वो नारों को छोड़कर हकीकत में दलितों के उत्थान के लिए कुछ करके दिखाएं। उनका सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर सुधारने के लिए जरूरी नहीं कि माया सीएम की कुर्सी पर बैठी हों, एक संगठन और आम नागरिक के तौर पर भी वो दलितों के उत्थान के लिए काफी कुछ कर सकती हैं, क्योंकि अभी काफी कुछ करना बाकी है। बसपा के लिए खुशी की बात यही है कि उसकी सत्ता रहे न रहे लेकिन हाथी और मूर्तियां बनी रहेंगी।

भारतीय जनता पार्टीः भारतीय जनता पार्टी के लिए गोवा को छोड़कर कहीं भी खुश होने की स्थिति नहीं है। यूपी में 51 से घटकर 47, पंजाब में 19 से घटकर 12 और उत्तराखंड में पार्टी 31 पर सिमट गई है। अटल बिहारी वाजपेयी के जाने के बाद भाजपा में जो शून्य पैदा हुआ है उसको भर पाना नामुमकिन लग रहा है। आदर्श, सिद्धांत और त्याग की बात करने वाली पार्टी की अंदरूनी हालत ऐसी हो गई है कि पदलोलुपता, टांग खिंचाई, भितराघात जैसी बीमारियां सिर चढ़कर बोल रही हैं। भाजपा आज एक डिवाइडेड हाउस नजर आ रही है। उत्तराखंड में निशंक ने अंदरखाने खंडूरी को हरवाने के पूरे प्रयास किए। वरुण गांधी, मेनका गांधी, योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी ने यूपी के प्रचार में भाग नहीं लिया। ये भाजपा के वो नाम हैं जिनको जनता पसंद करती है। लेकिन फिर पार्टी ने आपसी सौहार्द कायम करने की दिशा में कदम नहीं उठाए। पार्टी के खुद के नेता भाजपा के हारने की भविष्यवाणी कर रहे थे। वरुण ने कहा कि पार्टी में सीएम पद के 55 उम्मीदवार हैं, योगी ने कहा कि भाजपा हारेगी, संघ के काशी प्रचारक का बयान आया कि भाजपा हार ही जाए तो अच्छा। दरअसल ये सभी पार्टी का बुरा नहीं चाहते, बल्कि ये उनके अंदर का गुस्सा और पार्टी की कार्यप्रणाली के प्रति उनकी खुंदक बोल रही थी। यूपी में उमा भारती और राजनाथ सिंह सीएम पद के दावेदार थे, वरुण गांधी और मेनका गांधी भी महत्वपूर्ण भूमिका की चाहत में मुंह फुलाए थे। 2009 के आम चुनाव में आडवाणी के नाम पर भाजपा को जनता का मैंडेट नहीं मिला। अब पार्टी के अंदर पीएम पद के तमाम दावेदार हैं- मोदी, सुष्मा, राजनाथ, जेटली, मुरली मनोहर जोशी, ऐसे में पार्टी एकजुट होकर कभी चुनाव लड़ ही नहीं सकती। पार्टी की हार-जीत की तरफ किसी का ध्यान नहीं, सबको सीएम और पीएम बनना है। सीएम-पीएम न भी बनें तो दावेदार तो बनना ही बनना है। ऐसी परिस्थिति में भाजपा को अमेरिकी पार्टियों से सीख लेनी चाहिए और सीएम-पीएम पद के लिए चुनावों से पहले इंटरनल इलेक्शन करा लेना चाहिए। डिवाइडेड हाउस के तौर पर चुनाव लड़ने से अच्छा है कि एक बार इंटरनल डिविजन ही करवा लिया जाए। दूसरे भाजपा को अब मुसलमानों के प्रति जो उसकी छवि बना दी गई है, उस छवि को सुधारना होगा। ऐसा नहीं है कि भाजपा मुसलमानों के प्रति दुर्भावना से काम करती है। वाजपेयी सरकार के सात साल, और तमाम प्रदेशों में भाजपा की सरकारों के काम को देखा जाए तो भाजपा ने कहीं भी दुर्भावाना से काम नहीं किया है। गुजरात के दंगों को लेकर जरूर हायतौबा मची है। इस्लाम के प्रति भाजपा के मन में दुर्भावना होती तो वाजपेयी बस लेकर लाहौर न जाते, पाकिस्तान के फौजी तानाशाह को आगरा बुलाकर मुर्गमुसल्लम न खिलाते और आडवाणी-जसवंत जिन्ना की तारीफ में कसीदे न पढ़ते। भाजपा को अपना राष्ट्रवादी एजेंडा लोगों के बीच ले जाने की जरूरत है और राम मंदिर के मुद्दे को आपसी समझौते से सुलझाने की आवश्यकता है। भाजपा को अपना हाई प्रोफाइलपना छोड़कर आम लोगों के बीच पहुंच बनानी चाहिए। भाजपा को शहर की चमक से निकलकर गांवों की धूल भी छाननी चाहिए। भाजपा में धन को इतना महत्व दिया जा रहा है कि वो बनियों और उद्योगपतियों की पार्टी बनकर रह गई है। धन बहुत बड़ा फैक्टर होता है, लेकिन टिकट बांटते समय जनाधार वाले नेताओं को दरकिनार न किया जाए।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसः इन चुनावों में सबसे पतली हालत अगर किसी की हुई तो वो है कांग्रेस। इस राष्ट्रीय पार्टी ने इन चुनावों में गिरावट के सारे कीर्तिमान तोड़ दिए। चुनाव आयोग को चुनौतियां दीं, खराब भाषा का इस्तेमाल किया, आस्तीनें चढ़ाईं, विरोधियों का माखौल उड़ाया, उनका मेनिफेस्टो फाड़े, आरक्षण का ओछा कार्ड खेला, लेकिन कुछ काम नहीं आया। राहुल गांधी 39 साल की उम्र में भी काफी अपरिपक्व नजर आ रहे थे। जो परिपक्वता अखिलेश ने इन नौ सालों में चुपचाप हासिल की, उस स्तर की परिपक्वता राहुल तमाम मीडिया मैनेजमेंट के बावजूद हासिल नहीं कर पाए। चमचागीरी सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई। हार का तमगा टांगने के लिए पार्टी के तमाम बड़े नेता राहुल के चरणों में लंबलेट होने को तैयार हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ किया गया कांग्रेस का बुरा सलूक वोटों में ऐसा तब्दील हुआ कि दोनों भाई-बहन रायबरेली की इज्जत भी नहीं बचा पाए। कांग्रेस की केंद्र सरकार में लगातार उजागर हो रहे भ्रष्टाचार के मामले जनता को कतई पसंद नहीं आ रहे। राहुल गांधी मायावती के भ्रष्टाचार पर उंगलियां उठाने से पहले अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार पर लगाम कसते तो लोग उनपर कहीं ज्यादा पसंद करते। शायद ये पहली बार ही हुआ है कि सत्ता में रहते हुए किसी सरकार के कई मंत्री सलाखों के पीछे पहुंचे। लाख मुकदमों के बावजूद सुरेश कलमाड़ी को अभी तक कांग्रेस से निकाला नहीं गया है। लगातार बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से लोग परेशान हैं। उस पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों के साथ कांग्रेस ने जो बर्ताव किया वो बेहद निंदनीय है। सोते हुए लोगों पर लाठचार्ज करना किसी तानाशाही की याद दिलाता है। ये बात सही है कि कांग्रेस का अस्तित्व नेहरू-गांधी परिवार के बिना खतरे में पड़ जाता है। नरसिंह राव और सीताराम केसरी के जमाने में लगने लगा था कि कांग्रेस खत्म हो गई समझो। लेकिन सोनिया के बागडोर संभालने के बाद पार्टी में नई जान आई और उसके नेता फिर से कमाने खाने लगे। लेकिन गांधी परिवार का मतलब ये नहीं कि चमचागीरी की सारी हदें पार कर दी जाएं। आज कांग्रेस का एक-एक नेता रीढ़विहीन इंसान की तरह हो गया है, जो हर समय मैडम और बाबा के चरणों में गिरने को तैयार रहता है। प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री जिस तरह राहुल की तारीफों के पुल बांधते हैं उसे देखकर लगता है कि सबकी आंखों में काला चश्मा चढ़ा है जिसमें से सिर्फ राहुल ही राहुल नजर आते हैं। राहुल के हावभाव से यही लगता है कि भारतीय राजनीति के लिए राहुल अभी कतई तैयार नहीं है। हालांकि यही बात इंदिरा गांधी के शुरुआती दिनों में भी कही जाती थी, लेकिन बाद में वो एक परिपक्व राजनीतिज्ञ साबित हुईं। लेकिन इन चुनाव परिणामों को देखकर कांग्रेस को हवा का रुख समझना चाहिए। जनता को आज वो कांग्रेस चाहिए जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था। जिसकी पहुंच गांव-गांव तक थी। जो सत्य, अहिंसा और त्याग की बुनियाद पर खड़ी थी। जहां पद की लोलुपता के लिए जगह नहीं थी। कांग्रेस को पार्टी और यूपीए के अंदर खाओ और खाने दो की प्रवृत्ति पर लगाम कसनी होगी। अन्यथा देश के साथ-साथ पार्टी का भी बंटाधार हो जाएगा। दूसरी बात, मुसलमानों के लिए मंच से बड़ी-बड़ी बातें करके उनको वोटबैंक बनाने से बेहतर होगा कि पार्टी मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने के लिए हकीकत में कोई दूरगामी कदम उठाए। केवल कर्जा माफी, आरक्षण और पैसा बांटने से किसी समुदाय का विकास नहीं हो सकता। मुसलमानों के बीच जो अशिक्षा है सबसे पहले उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

Sunday, February 19, 2012

जायका रेलगाड़ी काः फिर चल पड़ा घर से आलू-पूड़ी और अचार बांधकर चलने का चलन...

आजकल फेसबुक पर आईआरसीटीसी की गुणवत्ता की पोल खोलता एक चित्र काफी चर्चित हो रहा है। इसमें आईआरसीटीसी का वेंडर यात्रियों को बेचने वाली चाय तैयार करते दिखाया है। महाशय नहाने का पानी गर्म करने वाली इमरशन राॅड से चाय बना रहे हैं। डिटेल में गया तो पता चला कि तस्वीर काफी पुरानी है, लेकिन फेसबुक पर पदार्पण के बाद खासी चर्चा में है। इमरशन राॅड से पक रही चाय को देखकर आप सोचने को मजबूर हो सकते हैं कि क्यों न स्टेशन पर कुछ भी खाने से परहेज किया जाए?

पानी गर्म करने वाली इमरशन राॅड से चाय पकाने की नौबत तकरीबन तीन साल पहले रेलवे के उस फैसले से आई जिसमें प्लेटफाॅर्म के ऊपर गैस सिलेंडर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। आगजनी के भय से रेलवे ने ये फैसला किया था कि प्लेटफाॅर्म पर केवल पका हुआ खाना ही बेचा जाएगा। चलते ठेलों पर किसी भी प्रकार का ज्वलनशील आइटम न लगाया जाए। रेहड़ी वालों को अगर अपने पकवान बेचने हैं तो बाहर से तैयार करके लाएं। इस प्रतिबंध के बाद प्लेटफाॅर्म पर रेहड़ी और ठेला लगाने वालों ने आरोप लगाया था कि ये आईआरसीटीसी के दबाव में रेलवे ने ये कदम उठाया है। क्योंकि आईआरसीटीसी देशभर के स्टेशनों की कैटरिंग हथियाना चाहता है। रेहड़ी वाले आईआरसीटीसी की कमाई में सबसे बड़ा रोड़ा हैं और अपना रास्ता साफ करने के लिए ही आईआरसीटीसी ने लाॅबीइंग करके प्लेटफाॅर्म से सिलेंडर हटवाने का फैसला करवाया है। हालांकि बर्निंग ट्रेन तो कई बार सुनी लेकिन बर्निंग प्लेटफाॅर्म कभी नहीं सुना। फिर भी प्लेटफाॅर्म से सिलेंडर हटाए गए, इसलिए ठेले वालों के आरोप में दम तो नजर आता था। लेकिन ठेले वालों की एक नहीं सुनी गई। धन बल के सामने जन बल हार गया। सिलेंडर का इस्तेमाल पर प्रतिबंध आज भी जारी है। कोई गुपचुप इस्तेमाल कर रहा हो तो दीगर बात है।

अगर बात हाईजीन और गुणवत्ता की करें तो रेलवे स्टेशनों और ट्रेनों में मिलने वाले खाद्य पदार्थों में लगातार गिरावाट आ रही है। कमाई के इस दौर में अगर आप स्वादिष्ट और शुद्ध भोजन की अपेक्षा लेकर रेलवे स्टेशन की तरफ रुख कर रहे हैं तो ये आपकी अच्छी बात नहीं है। वे लोग चार पैसे कमाने बैठे हैं या आपकी इच्छाओं का ख्याल रखने के लिए। दिल खोलकर खर्च करने के बावजूद आप भारतीय रेल में जायका खोजते रह जाएंगे। शायद इंडिया का जायका खोज-खोज कर दर्शकों तक पहुंचा रहे विनोद दुआ ने रेलवे स्टेशनों के जायके पर नजर नहीं डाली है। इंडियन रेलवे का स्वाद चखने के बाद वो सारे इंडिया का जायका ही भूल जाएंगे।

प्लेटफाॅर्म पर बिकने वाली कुल्हड़ वाली चाय और पत्ते के दौने में मिलने वाली आलू-पूड़ी रेल के सफर की पहचान थीं। लेकिन न कुल्हड़ रहे और न दौने। लालू यादव ने कुल्हड़ को जिलाने की कोशिश भी की, लेकिन दुकानदारों को प्लास्टिक और थर्मोकाॅल के सामने मिट्टी महंगी पड़ी। मैं रेल के सफर का पुराना शौकीन हूं। पहले कुछ स्टेशनों पर अच्छी चाय मिल जाती थी। लेकिन अब तो दिल्ली का स्टेशन हो या कटिहार का आपको अच्छी चाय नसीब नहीं हो सकती। इसे आप ग्लोबलाइजेशन कहें या कहें कि पूरे कुएं में ही भांग घुली है। जायके की बात करने पर कुछ लोग ये कहेंगे कि मियां सफर में पेट भर जाए ये ही बहुत है, बड़े आए स्वाद खोजने वाले। चलिए साहब पेट भरने के लिए ही सही, लेकिन चीज शुद्ध तो मिले। जाने कौन से तेल में खाना तैयार होता है कि उसे पचाने के लिए आपकी जेब में डाबर का हाजमोला होना जरूरी है।

लेकिन इस मिलावटखोरी और कमाईखोरी के खेल में एक नया ट्रेंड फिर से देखने को मिल रहा है और जो काफी सुखद भी है। लोगों ने अब फिर अपने घर से खाना बांधकर चलना शुरू कर दिया है। आलू-पूड़ी और आम के अचार की खुशबू जो कुछ समय के लिए रेल के डिब्बे से गायब हो गई थी, अब फिर से लौट आई है। मैं तो कहता हूं कि ये ट्रेंड खूब चले। हम भारतीय तो घर से इतना खाना लेकर चलते थे, कि अपने साथ-साथ आसपास रो रहे किसी बच्चे का भी पेट भर देते थे। लेकिन बीच में ये पैकेज्ड फूड का जमाना आ गया और हम भेड़ चाल के शिकार हो गए। इलीट क्लास में दिखने के लिए जबरदस्ती उस बेस्वाद खाने को मुंह लगाया। और यात्रियों को घटिया माल परोसने वाली आईआरसीटीसी को भी ये बात याद रखनी चाहिए कि उपभोक्ता सबसे शक्तिशाली है। ये किसी को अपनाता है तो आसमान पर बैठा देता है और किसी को पछाड़ता है तो मिट्टी में मिला देता है। चाय-चाय चिल्लाते रह जाओगे, कोई खरीददार नहीं मिलेगा!

स्टैण्डर्ड हाई रखने के वास्ते!!!

मेरा नाई मुझसे खुश नहीं रहता। क्योंकि मैं उससे केवल बाल कटवाता हूं और दाढ़ी बनवाता हूं, फेशियल, फेस मसाज, स्क्रब, थ्रेडिंग, ब्लीच जैसे चोंचले नहीं करवाता। दरअसल बात ये है कि आजकल रेस्तरां और नाई की दुकान पर एक ट्रेंड जड़ जमाए जमाए हुए है कि रेस्तरां में अगर आप खाने के लिए दाल मांगते हो और नाई की दुकान पर केवल बाल या दाढ़ी बनवाते हो तो आपको ‘लो स्टैंडर्ड’ व्यक्ति समझा जाता हैं।

रेस्तरां के बैरे को कोई दाल आॅर्डर करे तो वो उसको हेय दृष्टि से देखेगा। वहीं आप अगर पनीर या मलाई कोफ्ता या जैसे व्यंजन आॅर्डर करते हो तो उसकी नजरों आपकी इज्जत खुद-ब-खुद बढ़ जाएगी। भले ही इस इज्जत के लिए आपको सिंथेटिक पनीर खाना पड़े जिसके ऊपर मिलावटी क्रीम तैर रही हो। इसी तरह नाई की दुकान पर आपकी शेव बनाने के बाद नाई बड़े प्यार से पूछता है, ‘सर मसाज कर दूं?’ अगर आपने मना कर दिया तो वो मन ही मन आपसे कुढ़ जाता। क्योंकि उसे आपकी शेव के 15 रुपये की भूख नहीं, बल्कि उसकी प्यास है बड़ी। और अगर आपने मसाज या फेशियल के लिए हां कर दी, फिर आपके चेहरे की शामत आ गई समझो। अच्छा नब्बे के दशक तक भारत में इस तरह के चोंचले हाई क्लास लड़कियों तक ही सीमित थे। लेकिन इसे ग्लोबलाइजेशन का असर कहें या देश की आर्थिक तरक्की का या फिर होई प्रोफाइल दिखने की होड़, कि देश का मिडिल क्लास भी इस तरह के चाोंचलों में अच्छी तरह फंसता जा रहा है।

नब्बे के दशक तक भारतीय मिडिल क्लास में सुंदर दिखने के उपाय लड़कियां ही किया करती थीं। लेकिन भला हो विज्ञापन और मार्केटिंग की दुनिया का कि इन्होंने लड़कों को भी इसकी चपेट में ले लिया। जो पसीना मेहनतकश इंसान की पहचान होता था, उस पसीने में धीरे धीरे सबको बदबू आने लगी और आज काॅलेज जाने वाले अधिकांश लड़के बगल में फुस्स-फुस्स लगाकर घर से निकलते हैं। गोरी चमड़ी के तो हम आज तक इतने कायल हैं कि अब लड़कों के लिए स्पेशल फेयरनेस क्रीम बाजार में हैं। शाहरुख खान और जाॅन अब्राहम विज्ञापन में अपनी सुंदरता का श्रेय इन फेयरनेस क्रीमों को ही देते हैं। मतलब उनके माता पिता के जींस का इसमें कोई योगदान नहीं. भारत में गोरेपन की होड़ किस हद तक है इसका अंदाजा आप जुलाई 2011 में छपी एक मार्केट रिसर्च से लगा सकते हैं जिसमें बताया गया कि भारत में 2200 करोड़ के काॅस्मेटिक बिजनेस में फेयरनेस क्रीम का बिजनेस 1800 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है और हर वर्ष 31 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है।

हालांकि भारतीय घरों में लड़कियां बेसन, चंदन और मुल्तानी मिट्टी जैसे घरेलू नुस्खों से अपने चेहरे की रंगत निखारने के उपाय किया करती थीं, लेकिन अब पार्लर में जाकर केमिकल प्रोडक्ट्स लिपवाने का जमाना है। और इस पार्लरमेनिया में लड़के भी फंस गए। नाई की दुकान पर जितने भी क्रीम, पाउडर, ब्लीच के डिब्बे होते हैं, उन पर आपको फलों के चित्र छपे मिलेंगे। जो आपको ये बताने की कोशिश करते हैं कि ये प्रोडक्ट बिल्कुल नैचुरल व हर्बल है, केमिकल रहित है और उनसे आपके चेहरे को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा। लेकिन उन फल-फूल के चित्रों के पीछे असलियत में केमिकल्स ही होते हैं। कुछ-कुछ भारत के संविधान की तरह जिसमें पहले ही पेज पर लिख दिया गया है कि देश धर्मनिर्पेक्ष है, सब नागरिक बराबर हैं, आजाद हैं, सबको न्याय का समान अधिकार है वगैराह, वगैराह, लेकिन असलियत में ऊपर से लेकर नीचे तक असमानता और अन्याय है।

नाई की दुकान पर एक-दो बार मेरे चेहरे की भी शामत आ चुकी है। हाल ही में मुरादाबाद गया था, तो मेरा चेहरा नाई के हाथों का शिकार बना। शेव बनाने के बाद नाई ने बड़े अदब के साथ बोला- ‘सर आपका चेहरा बड़ा रफ हो रहा है। मसाज कर देता हूं। हमारे यहां केमिकल्स वाले प्रोडक्ट यूज नहीं होते। ये देखिए ये स्क्रब इंडिया का नहीं है अरब का है। मैं 12 साल अरब में ही था। अब वापस मुरादाबाद आकर अपनी दुकान खोली है’। मैं बोला- यार मैं ये सब नहीं करवाता, तो जनाब ने कहा कि एक बार करवाकर देखिए। मैंने कहा- करवाकर देख चुका हूं, बमुश्किल 24 घंटे चेहरा चमकता है और फिर वैसा का वैसा। लेकिन उसने कुछ इतना अनुनय-विनय किया कि मैं उस अरबी स्क्रब के लिए तैयार हो गया। उसने झट से लड़कियों वाला हेयर बैंड मेरे बालों में जड़ दिया और लगा चेहरे को लेपने। उसके बाद पांच मिनट तक चेहरे को रगड़ता रहा। वो उस दानेदार स्क्रब को मेरे चेहरे पर रेगमाल की तरह रगड़ रहा था। इतने पर भी उसका जी नहीं भरा और उसने दराज में से एक मशीन निकाली। झनझनाहट मशीन, बोले तो वाइब्रेटर। उसको हाथ में पहना और पाॅवर स्विच आॅन कर दिया। अब उसके हाथ के दबाव से मेरा पूरा चेहरा झनझना रहा था। आंखें खोलूं तो हर चीज हिलती दिख रही थी, सो आंखें बंद ही कर लीं। चेहरा साफ करते-करते उसने उस झनझनाहट मशीन के साथ एक उंगली मेरे कान में घुसा दी। एक पल को ऐसा लगा मानो कोई कान में सुरंग खोद रहा हो। मैंने जोर से खोपड़ी हिलाकर मना किया। मेरी समझ में नहीं आया कि वो कान के अंदर कौनसी मसाज कर रहा था और न ही वो मुझे समझा पाया।

खैर, 15 मिनट के उस फिजिकल अत्याचार के बाद मैं नाई के चंगुल से आजाद था। चेहरा पहले से थोड़ा चमक तो रहा था, लेकिन इतना भी नहीं जितने वो मुझसे पैसे मांग रहा था। शेव$इंपोर्टेड स्क्रब के 150 रुपए मात्र। इलीट क्लास सोसायटी का एक अलिखित नियम है कि जब आपको कोई बार-बार ‘सर’ कहकर सम्मान दे तो आप उसके साथ पैसों के लिए ज्यादा झिकझिक नहीं कर सकते। आपको स्टाइल में अपना बटुआ खोलकर उसके हाथ पर पैसे रख देने होते हैं। खैर, मैं ऐसा करने वाला नहीं था, 150 की जगह 120 रुपए दिए। और उसने ये क्या सर, ये क्या सर कहते हुए पैसे दराज में रख लिए।

Friday, February 17, 2012

‘ऐसे बेटे के होने से तो उसका न होना अच्छा...!’

भारतीय जनता पार्टी की स्थिति आज बड़ी अजीबो-गरीब है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में उसके अपने ही नेता बार-बार उसके हारने के कयास लगा रहे हैं। सबसे पहले गोरखपुर में योगी ने कहा कि त्रिशंकु विधानसभा आएगी और भाजपा की जीत के आसार नहीं हैं, फिर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने भी भाजपा को तीसरे पायदान पर बताया, और अब खबरें आ रही हैं कि आरएसएस के काशी प्रांत प्रचारक कह रहे हैं कि- भाजपा जीती तो अच्छा होगा, हारी तो बहुत ही अच्छा!

ये हालत उस पार्टी की है जो 1998 से लेकर 2004 तक दावा करती रही कि ‘वी आर पार्टी विद ए डिफरेंस’। तो आज पार्टी विद ए डिफरेंस में उसके नेताओं के बीच ‘डिफरेंसेज’ सबके सामने हैं। न वो सिंह सी दहाड़ें हैं, न जोश है, न उत्साह, न उम्मीदें, न उल्लास, ऐसा लगता है मानो भाजपा केवल फर्ज निभाने के लिए इलेक्शन लड़ रही है। ये वही भाजपा है जिसने 1998 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 85 में से 57 सीटें जीतकर अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली के तख्त पर बैठाया था। तो फिर आज वही भाजपा वोटों की मोहताज क्यों बन गई है। ऐसा भी नहीं है कि सात साल का एनडीए का शासन खराब था। आज भी लोग गाहेबगाहे अटल जी के सात सालों के शासन को याद करते हैं। चाहे वो देश में सड़कों का जाल बिछाना हो, सूचना क्रांति हो, परमाणु परीक्षण हो, गांवों को सड़कों से जोड़ना हो या गैस सिलेंडर की भरपूर आपूर्ति हो, लोगों को अब भी वो सात साल याद हैं।

फिर क्या है कि 2004 में लोगों ने भाजपा को टाटा कहकर कांग्रेस का दामन थाम लिया, और यूपीए की लाख खामियों के बावजूद 2009 में भाजपा को फिर से नकार दिया। पार्टी ने लाख चिंतन बैठकें की, बार-बार अध्यक्ष बदले, लेकिन गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ को छोड़कर पार्टी किसी राज्य में मजबूती से नहीं खड़ी दिखती, कर्नाटक और उत्तराखंड में भी नहीं। दरअसल इस राष्ट्रीय पार्टी को आज बाहर से नहीं अंदर से खतरा है। आदर्शों और सिद्धांतों की बात करने वाली भाजपा में पद की चाह सिर चढ़कर बोल रही है। 2004 में वाजपेयी के ‘न टायर्ड, न रिटायर्ड’ कहकर आगे भी कंटीन्यू रखने की इच्छा जताने से आडवाणी खेमे में ठंडक पसर गई और इसका असर 2004 के चुनावों में साफ दिखा, जब पार्टी ने एक डिवाइडेड होम की तरह चुनाव लड़ा। उस समय फील गुड फैक्टर ऐसा सिर चढ़कर बोल रहा था कि जमीनी हकीकत न किसी ने जानने की कोशिश की और न किसी ने धरातल पर काम किया। हवाहवाई तरीकों से प्रचार हो रहा था, बढ़-बढ़ कर बातें बोली जा रही थीं, प्रचार के लिए टीवी और मोबाइल पर निर्भरता कुछ ज्यादा ही दिखी। पार्टी में जो एकजुटता दिखनी चाहिए थी, वो कहीं नजर नहीं आ रही थी। उसका परिणाम सामने आ ही गया।

भाजपा के सात साल के शासन के बारे में कहा जाता है कि पार्टी ने अपने लोगों को खाने का मौका नहीं दिया। फिर भी जिला स्तर की लीडरशिप इसलिए साथ दे रही थी, क्योंकि पार्टी से देश के लिए उम्मीदें थीं। लेकिन वे उम्मीदें तब कमजोर पड़ गईं, जब ‘पार्टी विद है डिफरेंस’ में भी पद को लेकर तू-तू-मैं-मैं साफ नजर आने लगे, जब खबरें आने लगें कि सेकेंड लाइन में कौन है और थर्ड लाइन में कौन, जब पुत्रों और पुत्रियों को प्रमोट किया जाने लगा, तो जिला स्तर की लीडरशिप को लगा कि इससे तो दूसरे दल भले हैं, कम से कम खाने का तो मौका मिलता है। आज अगर जिला स्तर पर नजर डाली जाए तो भाजपा के दिग्गज चेहरे उसका साथ छोड़ चुके हैं। ऐसे लोगों की भी निष्ठाएं डोल गईं जो पांच-पांच बार विधायक और सांसद रह चुके थे। राष्ट्रीय स्तर पर बैठे चंद चेहरे, जिला स्तर पर आकर संगठन को मजबूती देना मुनासिब नहीं समझते। या फिर ऐसा भी कहा जा सकता है वाजपेयी के बाद पैदा हुआ शून्य कोई भर नहीं पा रहा है।

ऐसा भी नहीं है कि आज आम लोग परेशान नहीं हैं और बदलाव नहीं चाहते। लोग परेशान हैं इसीलिए अन्ना हजारे की आवाज पर सड़कों पर उतर कर आए। आज लोग अपने राजनीतिक दलों में वही प्योरिटी चाहते हैं, जो अन्ना हजारे की बातों में है। लेकिन अफसोस यही है कि अन्ना की प्योरिटी के सामने संसद में बैठा एक भी दल नहीं ठहरता। जब भाजपा के नेता मंचों से सिद्धांतों और आदर्शों की बात करते थे, तो लोग उनसे उसी प्योरिटी की उम्मीद करते थे, जो अन्ना में है। भाजपा वह प्योरिटी देने में विफल रही, यही कारण है कि आज संघ की ओर से ऐसे बयान आ रहे हैं कि- ‘ऐसे बेटे के होने से तो उसका न होना अच्छा...!’

Tuesday, February 14, 2012

पूरे भारतीय समाज का दर्शन एक छुक-छुक गाड़ी में!


भारतीय रेल के प्रति मेरा लगाव बचपन से रहा है। रेल की मस्ती भरी चाल, धड़धड़ाती आवाज, तेज गति में पटरियों के बीच बदलाव, पहाड़ों के बीच खुदी गुफाएं, नदी पर बने पुलों की गड़गड़ाहट, हरी-लाल झंडियां, इंजन का जोरदार भौंपू, प्लेटफाॅर्म पर गूंजने वाला ‘टिंग-टांग-टिंग’, चाय वालों की ‘चाय-चाय’, यात्रियों की ‘कांय-कांय’ इस सबमें एक अजीब सी कशिश होती है। ट्रेन को देखकर अब बच्चों की तरह किलकारी तो नहीं मार सकते, लेकिन उसको देखकर मन में अभी भी वही रोमांच होता है। हम आज की नई पीढ़ी से आज ये गर्व से कह सकते हैं कि बचपन में हमने कोयले की इंजन वाली ट्रेनों में भी सफर किया है। कितनी बार किया ये तो याद नहीं, लेकिन हरिद्वार से ऋषिकेश जाने वाली पैसेंजर ट्रेन का सफर खासतौर से याद है, जो पहाड़ों के बीच दो गुफाओं से होकर गुजरती थी। आज वो गुफाएं भी हैं, वो पैसेंजर ट्रेन भी है, लेकिन कोयले का इंजन या काला इंजन नहीं है। नई टेक्नोलाॅजी के साथ भारतीय रेल भी लगातार बदल रही है। यात्रियों के बढ़ते दबाव के मद्देनजर अब डबल डेकर डिब्बे आने वाले हैं। कोच के अंदर के ऐशो-आराम बढ़ाए जा रहे हैं। तेल की खपत को देखते हुए धीरे-धीरे डीजल के इंजनों पर भी निर्भरता कम की जा रही है और रेलवे लाइनों को विद्युतीकरण तेजी से किया जा रहा है। ये तो तय है कि आने वाले समय में तेल की खपत और पर्यावरण की दृष्टि से डीजल इंजन भी भारतीय रेल का साथ छोड़कर संग्रहालयों का हिस्सा बन जाएंगे। जिस दिन भारत ने बिजली उत्पादन में अपना निर्धारित लक्ष्य प्राप्त कर लिया तो उस दिन भारतीय रेल पूरी तरह बिजली के भरोसे ही दौड़ेगी। तब वर्तमान पीढ़ी के लोग अगली पीढ़ी से कहा करेंगे कि हमने डीजल के इंजन देखे हैं।

एक आम भारतीय रेल पूरे भारतीय समाज का प्रतिबिंब होती है। अगर भारत के आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक विविधता के बारे में जानना और सीखना है तो प्लेटफाॅर्म पर खड़ी किसी भी ट्रेन को आगे से पीछे तक देख लेना, तो सब समझ आ जाएगा। शताब्दी, राजधानी, एसी स्पेशल, गरीब रथ, दुरंतो आदि ट्रेनों को छोड़ दिया जाए तो बाकी किसी भी एक्सप्रेस ट्रेन से आप भारत को समझ सकते हैं। साधारणतयः एक एक्सप्रेस ट्रेन में सबसे आगे इंजन लगता है, उसके पीछे पार्सल यान (जिसमें आधा डिब्बा महिलाओं और विकलांगों के लिए आरक्षित होता है), उसके बाद होती हैं दो जनरल बोगी, फिर लगती हैं रिजव्र्ड स्लीपर क्लास बोगी, चार पांच स्लीपर क्लास के बाद फस्र्ट एसी-सेकेंड एसी-थर्ड एसी, इसके बाद फिर से बची हुई स्लीपर क्लास, अंत में फिर से दो जनरल बोगी और सबसे अंत गार्ड साहब का डिब्बा। कुल मिलाकर लंबी दूरी की एक नाॅर्मल ट्रेन तकरीबन 20 डिब्बों को जोड़कर बनती है।

इन एक्सप्रेस ट्रेनों में जुड़े डिब्बों के क्रम को देखकर ही आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था को देख सकते हैं। टेªन के शुरुआत और अंत में लगे जनरल डिब्बे भारत के लोअर क्लास को प्रदर्शित करते हैं। उसके अंदर घमासान भीड़, दरवाजों पर टंगे लोग, पांव रखने की जगह नहीं, इंच भर स्थान के लिए जद्दोजहद, शोर-शराबा, गाली-गलौज, पसीने की महक, टीटी का यात्रियों को डपटना और उन पर ऐंठना, यात्रियों का एक-एक रुपए के लिए वेंडर्स से झगड़ना, जनरल डिब्बे का ये दृश्य देश के लोअर क्लास को दर्शाता है। इस क्लास को हर जगह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है। ट्रेन में जनरल डिब्बे सबसे डेंजरस जोन में जोड़े जाते हैं। यानि सबसे आगे और सबसे पीछे। अगर ट्रेन की आगे से टक्कर हुई तब भी और अगर किसी ने पीछे से किसी ने दे मारी तब भी, सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं डिब्बों में बैठे यात्रियों को होता है। उसी तरह आम जीवन में भी जो देश का गरीब तबका है वो हर क्षण डेंजरस जोन में ही जीता है।

उसके बाद होते हैं स्लीपर क्लास, इनकी संख्या सबसे ज्यादा होती है। अमूमन दस डिब्बे होते हैं। ये देश की मिडिल क्लास को प्रदर्शित करते हैं। इसमें सांस लेने के लिए जगह होती है, बहुत आरामदायक तो नहीं पर दरवाजों पर टंगने की नौबत नहीं होती, शोर-शराबा कम होता है, लोग किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर बहस करते पाए जा सकते हैं, टीटी इस डिब्बे में ऐसे बात करता है जैसे अपने समकक्षों से बात कर रहा हो, लेकिन कोई चूं-चपड़ करे तो उसको डांट भी देता है। यहां वेंडर यात्रियों के साथ थोड़ा अदब से पेश आते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से स्लीपर क्लास न तो सेफ जोन में होता है और न डेंजरस जोन में। भारतीय मिडिल क्लास का आम जीवन देखा जाए तो आपको ऐसा ही मिलेगा, उसके घर बहुत बड़े तो नहीं पर उसमें पर्याप्त जगह होगी। उसे अपने आप से और देश से काफी उम्मीदें हैं। वो समाज में एक सम्मानित जीवन जीने के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है।

स्लीपर क्लास के बाद होता है थर्ड एसी। इस डिब्बे में बाहर के कोलाहल और मौसम का कोई फर्क नहीं पड़ता। आप शांति से अपनी यात्रा कर सकते हैं। थर्ड एसी देश के हायर मिडिल क्लास को प्रदर्शित करता है। इसमें बैठे लोग थोड़ा साॅफिस्टिेकेटेड दिखने की कोशिश कर रहे होते हैं। लेकिन उनकी बनावट साफ दिख जाती है। वैसे तो लोग शांत बैठने की कोशिश करते हैं, लेकिन कुछ सीटों पर बैठे लोग कभी-कभी चिल्लाकर बात करके जता देते हैं कि अपन तो देसी लोग हैं, भले ही एसी में बैठे हों। यहां टीटी और वेंडर यात्रियों के साथ पूरी अदब के साथ बात करते हैं। किसी बात का उजड्ड जवाब नहीं देते। कुछ ऐसी ही हालत कमोबेश सेकेंड एसी की होती है। बस उसमें जगह थोड़ी ज्यादा होती है। लोग थोड़े ज्यादा खामोश होते हैं।


फिर होता है फस्र्ट ऐसी। भारतीय ट्रेन की सर्वोच्च क्लास जो देश की हाई सोसायटी को प्रदर्शित करता है। अलग-अलग चैंबर्स में चैड़ी-चैड़ी सीटें, हाइली इलीट क्लास लोग, कोई किसी कंपनी का सीईओ, कोई राजनेता, तो कोई बड़ा बिजनेसमैन, सब अपने-अपने में सीमित, बेहद शांत वातावरण, बात करने में अंग्रेजीदां अंदाज, कोई उजड्डई नहीं, अगर कोई उजड्डई दिखाए भी तो सब उसको ऐसे देखते हैं मानो किसी जानवर को देख रहे हो, टीटी इस डिब्बे के यात्रियों से बात करते वक्त कमर तक झुक सकता है, उनकी डांट भी खा सकता है, वेंडर को तो बात-बात पर डांट पड़ती ही है। तो इस डिब्बे में आप देश की हाई सोसायटी के दर्शन कर सकते हैं। एसी डिब्बे ट्रेन के बीचोंबीच सबसे सेफ जोन में लगाए जाते हैं। ताकि एक्सीडेंट की स्थिति में सबसे कम नुकसान हो। दूसरे ये डिब्बे बीच में होने के कारण हमेशा प्लेटफाॅर्म पर पुल के पास या दरवाजे के पास रुकते हैं, इससे इनमें बैठे यात्रियों को उतरने के बाद ज्यादा दूर चलना भी नहीं पड़ता।

इस संडे को आनंद विहार-काठगोदाम एसी एक्सप्रेस से मैंने गाजियाबाद से मुरादाबाद तक का सफर किया। मेरी साइड अपर बर्थ थी, सो मैं नीचे वाली बर्थ खाली देखकर उस पर लेट गया। संयोग से वो बर्थ स्टाफ सीट थी। कोच के अटेंडेंट ने बैठने की इच्छा जाहिर की तो मैंने उसको साथ में बैठा लिया और उससे बातचीत शुरू की। उसके जीवन व रेल के बारे में कई प्रश्न किए। तब उसने मुझे एक बड़ी रोचक जानकारी दी। बोला, ‘सर एसी कोच में बेडिंग के साथ तौलिया भी दी जाती है। लेकिन तौलिए की चोरी बहुत होती है। सो हम केवल फस्र्ट एसी में ही टाॅवल देते हैं। थर्ड और सेकेंड ऐसी में टाॅवल देनी बंद कर दी है। थर्ड एसी में 72 बर्थ होती हैं अगर मैं टाॅवल दे दूं तो कम से कम 35 टाॅवल गुम हो जाएंगी। अब मैं किसी के बैग तो नहीं चेक कर सकता न सर!’ तो आप कोच अटेंडेंट के इस खुलासे से भी भारतीय समाज के बारे में सीख, समझ और अंदाजा लगा सकते हैं।

कोच अटेंडेंट से बातचीत में मिली जानकारी पर अभी और लिखना बाकी है।