Monday, October 31, 2011

दिग्विजय सिंह और एडवर्टाइजिंग का सिद्धांत!!



एडवर्टाइजिंग के क्षेत्र में एक सिद्धांत प्रचलित है- ‘एक झूठ को अगर 100 बार कहा जाए तो  वो सच बन जाता है।’ कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह आजकल इसी सिद्धांत पर खेल रहे हैं। बाबा रामदेव और अन्ना के आंदोलन ने जब कांग्रेस की पूरे देश में थू-थू कराई तो कांग्रेस ने अपने सिपेहसालार दुर्मुख दिग्विजय के माध्यम से हमेशा की तरह संघ कार्ड चला दिया। पहले उन्होंने बाबा रामदेव के आंदोलन में संघ का हाथ बताकर मीडिया के सामने चिल्लाना शुरू किया और फिर बाद में अन्ना के अनशन की सफलता में भी संघ का हाथ-पांव बता दिया (वैसे मैडम ने तो उनसे कहा था कि ये भी बोल दें कि कांग्रेस के झंडे में जो हाथ है वो भी संघ का है)। दोनों ही आंदोलनों में जो कार्यकर्ता दिन-रात पसीना बहा रहे थे वे तमाम संगठनों से आए थे और उनमें संघ के कार्यकर्ता भी शामिल थे। तमाम काॅर्पोरेट हाउसों से लेकर देश के आम आदमी तक सभी इन आंदोलनों के समर्थन में थे। कांग्रेस के वे नेता जो देश में सुधार देखना चाहते हैं वे भी अपनी-अपनी तरह से इन आंदोलनों का समर्थन कर रहे थे। लेकिन केवल संघ का नाम लेकर आंदोलन के उद्देश्य से ध्यान हटाने की जो दिग्गी-कोशिश हो रही है वो एक कुंठाग्रस्त स्थिति को प्रदर्शित करती है। संघ विश्व का सबसे बड़ा संगठन है। देश का हर तीसरा-चैथा आदमी या तो उसका कार्यकर्ता है, या उसकी विचारधारा को मानने वाला है, या किसी न किसी रूप में उससे जुड़ा है। जब राष्ट्र निर्माण और चरित्र निर्माण की बात हो तो उसमें कहीं न कहीं संघ की उपस्थिति मिल ही जाएगी। तो इस दृष्टि से संघ की उपस्थिति को इन दोनों आंदोलनों में नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन ये कहना कि पूरा आंदोलन ही संघ का था या रिमोट कंट्रोल संघ के हाथ में था ये बेहद बचकाना और मूर्खतापूर्ण है।

ये तो नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस महासचिव बौखलाहट में इस तरह के बयान जारी कर रहे हैं। मध्यप्रदेश से स्थाई देश निकाला मिलने के बाद दिग्विजय सिंह की मानसिक स्थिति में बहुत छटपटाहट तो है, उस पर केंद्र सरकार में उनको मंत्री भी नहीं बनाया गया, और फिर वो अभी इतने बूढ़े भी नहीं हुए हैं कि उनको कहीं का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जाए। वैसे भी राज्यपाल तो बेहद धीर-गंभीर और कम बोलने वाले व्यक्तित्वों के लिए बना पद है, अब दिग्विजय तो उसमें कहीं फिट नहीं बैठते। वर्तमान में कांग्रेस के अंदर सबसे ऊट-पटांग बोलने वाली लीग के अग्रणी नेता दिग्विजय ही हैं। कांग्रेस ने सोच-समझकर उनको अपना मोहरा बनाया है, लेकिन दिग्विजय अपने बड़बोलेपन में ये नहीं देख रहे हैं कि वे अपना कितना निजी नुकसान कर रहे हैं। वे उन लोगों पर उंगलियां उठा रहे हैं जिनपर न केवल भारत के लोगों ने बल्कि विदेशी भारतीयों और विदेशी नागरिकों ने भी भरोसा जताया है। दिग्विजय चुन-चुनकर अन्ना, रामदेव और श्री श्री पर उंगलियां उठा रहे हैं (लेकिन कोई ये न कहे की वो किसी का सम्मान नहीं करते , वो आतंकियों का पूरा सम्मान करते हैं) । इन तीनों के अनुयाई पूरे विश्व में मौजूद हैं। और ये लोग कोई पाप तो नहीं कर रहे? जो काम देश की राजनीति को करना चाहिए था आज वो काम सामाजिक संगठनों को हाथ में लेना पड़ा है। आज भ्रष्टाचार के मसले पर देश में ऐसी जागरुकता है जैसी कभी नहीं थी। भारत गरीब देश नहीं है बल्कि उसको जानबूझकर गरीब बनाए रखा गया। और क्योंकि आजादी के 64 सालों में अधिकांश राज कांग्रेस का रहा है तो देश की वर्तमान पीड़ाओं के प्रति सबसे ज्यादा जवाबदेही कांग्रेस की ही बनती है। इसमें कांग्रेस को तिलमिलाने की कोई जरूरत नहीं है। अच्छा होता कि कीचड़ उछालने का खेल खेलने के बजाय कांग्रेस ने गंभीरता से स्थिति पर विचार किया होता। विदेश में जमा काला धन देश में वापस लाने या भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में केवल और केवल भारत की जनता की भलाई है। प्रत्येक भारतीय की भलाई है। न किसी जाति विशेष की और न ही किसी धर्म विशेष की। लेकिन कांग्रेस ने अन्ना को गिरफ्तार करके और बाबा पर लाठी भांजकर अपनी छवि को और भी ज्यादा मिट्टी में मिला दिया। इसका जवाब जनता समय आने पर जरुर देगी।

दरअसल कांग्रेस का संचालन उसके नीति निर्धारकों के साथ-साथ पब्लिक रिलेशन कंपनियां भी देख रही हैं। दिग्विजय सिंह को मोहरा बनाने की सलाह किसी पब्लिक रिलेशन फर्म की ही रही होगी। और संघ कार्ड खेलने की सलाह भी उन्ही की देन है, जो पूरी तरह एडवर्टाइजिंग के सिद्धांत पर आधारित है। पर न जाने ये लोग दिग्विजय से किस जन्म का बदला ले रहे हैं। पार्टी ने एक इंसान को छुट्टा बोलने की इजाजत दे रखी है और वो इंसान इतना ज्यादा बोल रहा है कि तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मोस्ट हेटेड पर्सनेलिटी बन गया है। शायद दिग्गी राजा को ये अंदाजा भी नहीं होगा कि जिस दिन कांग्रेस सत्ता से हाथ धोएगी उस दिन उनका एक भी समर्थक नहीं बचेगा. जब कहीं बहस चलती है तो खुद दिग्गी के समर्थक भी उनका बचाव करने के लिए शब्द नहीं ढूंढ पाते हैं। लेकिन अभी दिग्गी के चेहरे पर सत्ता की चमक है। जिस दिन सत्ता हाथ से जाएगी तो उनका क्या भविष्य होगा कहा नहीं जा सकता!!

Friday, October 28, 2011

राग दरबारी की स्वर्गयात्रा!!


आज जब हिंदी जगत के वरिष्ठ साहित्यकार श्री लाल शुक्ल की मृत्यु की खबर मिली तो अचानक मुझे अनुराग की बात याद हो आई जो उसने ‘राग दरबारी’ के बारे में कही थी। मेरठ में पत्रकारिता के दिनों में एडिशन छोड़ने के बाद रात के 12 बजे जो बैठकी जमती थी उसमें अक्सर राग दरबारी और श्री लाल शुक्ल की चर्चा उठती थी। राग दरबारी भले ही 1968 में लिखी गई हो लेकिन वो आज भी वर्तमान पत्रकारिता को आइना दिखा सकने की कुव्वत रखती है। अनुराग का कहना था कि राग दरबारी पढ़ते वक्त बार-बार ऐसे मौके आए जब वो ठठ्ठा मार कर हंस पड़ता था। घर वाले भी उसकी ओर हैरत से देखने लगते थे कि ऐसी कैसी किताब है कि अच्छे-खासे शांत इंसान को बार-बार हंसने पर मजबूर कर रही है। अनुराग की सभी पत्रकारों को राय थी कि हर एक पत्रकार को राग दरबारी अवश्य पढ़नी चाहिए वो भी मांगकर नहीं खरीदकर। मेरे कई साथी पत्रकारों के पास राग दरबारी थी, लेकिन मांगने पर किसी ने पढ़ने के लिए नहीं दी। क्योंकि गई हुई किताब के वापस लौटने के चांस न के बराबर होते हैं और राग दरबारी ऐसी किताब नहीं जिसको खो दिया जाए।

जब कंडवाल जी ने एक बार राग दरबारी का जिक्र किया जो उनके मुख से सीधे ये निकला कि जिस किताब के पहले ही पृष्ठ पर भारतीय सड़कों की दुर्दशा के बारे में इतना तगड़ा व्यंग्य लिखा हो कि ‘ट्रक का जन्म ही सड़कों का बलात्कार करने के लिए हुआ है’, तो अनायास ही उसको और भी ज्यादा पढ़ने की इच्छा जागृत हो जाती है। कंडवाल जी की इस प्रशंसा में उनका अपना दर्द भी छिपा था, क्योंकि दिन भर बाइक पर रिपोर्टिंग करने वाला रिपोर्टर जब अपनी खबरें पंच करके देर रात घर लौटता है तो उसके आगे-आगे सड़क की धूल उड़ाते ट्रकों का सबसे ज्यादा शिकार वही बनता है। श्री लाल शुक्ल का यही अंदाज था कि उनकी लेखनी हर इंसान के दिल की बात या दिल के दर्द को बयां करती थी। आप चाहे किसी भी क्षेत्र से जुड़े हुए हो आप उनकी रचनाओं में खुद को कहीं न कहीं फिट कर ही लोगे।

सबसे मजेदार बात ये कि शुक्ल जी ने एक खास पद पर रहते हुए आम आदमी की बात कही। सिविल सर्वेंट को भारतीय समाज में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है और शुक्ल जी जिस जमाने में सिविल सर्वेंट थे उस जमाने में तो सिविल सर्वेंट होने का मतलब आप समझ ही सकते हैं। प्रशासकों पर अक्सर ऐसे आरोप लगते हैं कि वे आम आदमी की भावनाओं को नहीं समझते, लेकिन शुक्ल जी ने न केवल आम आदमी की भावनाओं को समझा बल्कि उसको बखूबी अपनी लेखनी के दम पर किताबों में उतारा भी। रिटायर होने के बाद या रिटायरमेंट के आसपास प्रायः अधिकांश प्रशासक लेखक बन ही जाते हैं, लेकिन वो अलग किस्म का लेखन होता है, जिसको एक इलीट वर्ग ही समझ सकता है। लेकिन शुक्ल जी ने पद पर रहते हुए ऐसे व्यंग्य लिखे जो जनसाधारण के दिलों को छू गए, ये उनकी अपनी विशेषता थी। शुक्ल जी भले ही मृत्युलोक से स्वर्गलोक की यात्रा पर चले गए हैं, लेकिन इतना तय है कि उनका व्यंग्य राग सुनकर वहां विराजमान ब्रह्मदेव की भी हंसी छूट जाएगी।

Sunday, October 23, 2011

आओ मनाएं मिलावटी दीवाली!!!



त्योहारों का मौसम है! मन में ढेर सारी खुशियां हैं (खासतौर से बच्चों के, बड़े तो खुश होने का केवल अभिनय करते हैं) और जेब में ढेर सारे पैसे हैं (मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए 32 रुपयों से कहीं ज्यादा)। महंगाई भी है, लेकिन दीवाली तो हमने तब भी मनाई थी जब पूरे विश्व में महामंदी का दौर था। हमें हमारे त्योहार मनाने से कोई नहीं रोक सकता। इस देश के माता-पिता कमाते ही त्योहार मनाने के लिए हैं। बच्चों को कतई मायूस नहीं कर सकते। प्रेमचंद की ईदगाह में भी गरीबी के दिन झेल रही दादी ने हामिद के हाथ पर ईद मनाने के लिए तीन पैसे रखे थे। वो बात दीगर है कि वो ईदगाह के मेले से अपने लिए खिलौने लाने के बजाय अपनी दादी के लिए चिमटा लेकर आया था। ये तो हमारे रिश्तों की मिठास है। त्योहार तो भारत की पहचान हैं। हम उनको मनाए बिना नहीं रह सकते, चाहे प्रधानमंत्री हमारे हाथ पर 32 रुपए रखें और चाहे पश्चिमी देश महामंदी में डूब जाएं।

दीवाली तो सबकी है (जेल में बंद यूपीए के मंत्रियों को छोड़कर) और सभी मनाने को उत्सुक हैं। माल तैयार है और बाजार सजे पड़े हैं। बाजार के बाजीगरों ने ग्राहकों को लुभाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। सबकी पौ बारह है। हालांकि महंगाई नंगी होकर भूतनी की तरह नाच रही है। इस महंगाई से निपटने में भारत सरकार भले ही विफल रही हो, लेकिन चीन हम भारतीयों का दर्द भलीभांति समझता है। उसने हमारे दर्द को समझते हुए अपने यहां से सस्ता माल भारत भेज दिया है। पता नहीं क्यों विशेषज्ञ लोग यूं ही कहते रहते हैं कि चीन भारत का दुश्मन है! इस चुड़ैल महंगाई से निपटने में तो चीन भारतीयों का दोस्त ही साबित हो रहा है! मूर्तियां, बिजली की टिमटिमाती लडि़यां, पटाखे, इलेक्ट्राॅनिक्स, चीन ने सबकुछ भेज दिया है आपके लिए।

अब जो चीजें चीन से नहीं भेजी जा सकतीं, उन चीजों में भारतीय मिलावट कर-कर के लोगों की दीवाली मनवा रहे हैं। नकली मावा, नकली मिठाई, नकली सोना-चांदी, सबकुछ मिलावटी। हालात इतने सड़ गए हैं कि किसी भी चीज पर भरोसा नहीं किया जा सकता। कल बात छिड़ी तो आंटी बताने लगीं कि बाजार में डाई मिली हुई मेहंदी आ रही है, जिससे किसी भी गृहणी का हाथ हल्का न रचे। डाई के असर से सबके हाथ स्याह सुर्ख रचते हैं। पहले कहते थे कि जिन पति-पत्नी में ज्यादा प्यार होता है उनकी मेहंदी ज्यादा रचती है। अब तो प्यार भी नकली है देखने में पता ही नहीं चलेगा कि सच्चा या झूठा। तो मेहंदी भी अगर झूठ बोल रही है तो गुरेज क्या है? मिलावटी मावा और मिठाइयां तो अब पुरानी बात हो चुकी हैं। लोगों ने मिठाइयों का विकल्प भी खोज लिया है। मुंह मीठा कराने की जगह नमकीन कराया जा रहा है- कुरकुरे, लेहर, हल्दीराम वगैराह-वगैराह!!

पिछले दिनों रिश्तेदारी में एक बच्चे का जन्म हुआ तो सोचा कि चांदी की नजरियां भेंट कर दी जाएं, ताकि उसे दुनिया की नजर न लगे। मुरादाबाद में था, सो वहीं के एक सुनहार की दुकान पर गया और एक जोड़ा पसंद करके उसके दाम पूछे। उसने उन रजत कंगनों को इलेक्ट्राॅनिक तराजू में ऐसे तौला मानो अपनी ईमानदारी का परिचय दे रहा हो। बोला जी 600 रुपये के पड़ेंगे। मैंने कहा- भाई मिलावटी तो नहीं है। चांदी में बहुत मिलावट सुनने को मिल रही है। बोला- भाई साहब आपको पूरे बाजार में असली चांदी मिलने की ही नहीं है। सब 60 परसेंट है। हम तो बताकर बेचते हैं। चांदी का असली वाला क्वीन विक्टोरिया का सिक्का 1200 रुपए का पड़ेगा। कौन ग्राहक दे देगा इत्ते रुपए। सबको 500-600 वाले चाहिए। अब मेरठ में हू-ब-हू वैसा ही सिक्का तैयार हो रहा है। आप पहचान नहीं सकते। बस 600 रुपए का है। दीवाली पे जमके बिकेगा। मैंने मन में सोचा जब ये इन कंगनों को अपने मुंह से 60 परसेंट प्योर बता रहा है तो हरगिज ये 20 परसेंट ही प्योर हैं। मेरी उसके साथ कोई नाते-रिश्तेदारी तो थी नहीं जो वो मुझसे हरीशचंद्रपना दिखाएगा। सो मैंने कहा 500 रुपये लगाओ, एक नोट में काम चलाओ। न नुकुर करते हुए उसने 500 पकड़ ही लिए और अपन ये जानते हुए भी कि माल नकली है खुशी-खुशी घर आ गए।

भयानक स्थिति है। इंसान से लेकर मशीन तक, भावनाओं से लेकर चरित्र तक, फलों से मिठाइयों तक, दूध से लेकर दही तक, पानी से लेकर खून तक, मंत्री से लेकर संत्री तक, खुशियों से लेकर दुःख तक, नौकरी से लेकर छोकरी तक, सरकार से लेकर संस्थाओं तक, धर्म से लेकर न्याय तक, हंसी से लेकर आंसुओं तक सबकुछ मिलावटी है हो गया है इस देश में। तो साथियों आप सभी को मिलावटी दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!!!!!!!!

Thursday, October 20, 2011

त्योहार और नेताओं की शुभकामनाएं!!!!


आप लोगों को पता है कि आप लोगों के त्योहार इतने मंगलमय और शुभ क्यों होते हैं? क्योंकि हमारे नेतागण हम सबको त्योहारों की हार्दिक शुभकामनाएं जो देते हैं। शहर में जिधर निकल जाओ उधर बोर्ड ही बोर्ड लगे हैं, जिन पर विभिन्न पार्टियों के छुटभैये नेता अपना फोटो लगाकर आपको त्योहारों की शुभकामनाएं दे रहे हैं वो भी थोक में। फ्लैक्स बोर्ड के आ जाने से इनको बड़ा आराम हो गया है। लेकिन बार-बार पैसा न खर्च करना पड़े तो एक ही बोर्ड पर भविष्य में आने वाले ढेर सारे त्योहारों की बधाई एक साथ दे देते हैं। आ तो रही है दीवाली पर गाजियाबाद से लेकर मेरठ तक लगे बैनर और बोर्ड चीख-चीख कर नववर्ष 2012 तक की शुभकामनाएं एडवांस में आपको दे रहे हैं। बोर्ड का रंग देखकर ही आपको उनकी पार्टी का पता चल जाएगा। कोई नीला, कोई भगवा, कोई तिरंगा तो कोई हरा। क्योंकि यूपी में चुनावी साल है, तो अपनी-अपनी पार्टी से ‘टिकटेच्छु’ नेता दिल खोलकर आपको अपनी शुभकामनाएं दे रहे हैं। बोर्ड पर शुभकामना के उस नेता का फोटो जिसके खर्च पर बोर्ड लगा है, उसके बगल में उसकी पार्टी के किसी बड़े नेता का फोटो, जिसके दम पर टिकट मिलने की उम्मीद है, और फिर सबसे नीचे कतार में कुछ छुटभैयों के फोटो। शहर की सड़कों पर लगे अपने फोटो देखकर इन महानुभावों के कलेजों को वैसी ही ठंडक पहुंचती है जैसी किसी नौजवान को कोकाकोला पीने के बाद मिलती है।

मैं तो यही सोचकर रह जाता हूं अगर हमारे ये शुभचिंतक और परमहितैषी नेतागण आम लोगों को त्योहारों की शुभकामनाएं न देते तो हमारे त्योहार शुभ कैसे होते? ये इन लोगों की शुभकामनाओं का ही नतीजा है कि आम जनमानस के त्योहार शुभ और मंगलमय होते हैं। बधाई और शुभकामनाएं देने में डिस्ट्रिक्ट लेवल के लीडरान बड़े आगे होते हैं। पार्टी के अध्यक्ष का बर्थडे हो या किसी मंत्री या मुख्यमंत्री का, पूरा शहर बधाइयों से पटा नजर आएगा। मजेदार बात ये कि एक आदमी जो जनप्रतिनिधि भी नहीं है, पूरे शहर की तरफ से बधाई दे देता है। खुद ही पूरे शहर की नुमाइंदगी करने लगता है और अगर नेता जी पर बोर्ड लगवाने के पैसे न हों तो शहर के किसी लाला जी को पकड़कर उनसे पैसा खर्च करवाता है और बोर्ड के नीचे छोटा-छोटा लिखवा देता है- सौजन्य से फलाने लाला जी झानझरोखा वाले।

इन होर्डिंग्स को देखकर ही शहर वालों को अंदाजा लग जाना चाहिए कि उनके नेता उनकी कितनी चिंता करते हैं। ये उनकी बधाइयों और शुभकामनाओं का ही नतीजा है कि उनके त्योहार इतने अच्छे बीतते हैं। साथ ही हर शहरवासी का यह कर्तव्य भी बनता है कि इन बधाइयों के पीछे छिपी नेताओं की इच्छाओं को भी पहचानें और उन इच्छाओं को पूरा भी करें। आखिर कोई आपके लिए इतने पैसे खर्च कर रहा है, आपके त्योहार की चिंता कर रहा है, तो आपका इतना तो फर्ज बनता ही है न कि आप उसकी इच्छाओं का भी ख्याल करो। ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम उस बोर्ड को ध्यान से पढ़ तो सकते ही हो जिस पर आपके के त्योहार के लिए शुभकामना लिखी है। अब ये मत बोलना कि महंगाई की वजह से त्योहार मनाना मुश्किल है। महंगाई और बधाई में कैसा रिश्ता? नेताओं का काम है शुभकामना देना। अब अगर आपके पास अपने बच्चों को त्योहार पर खुश करने लायक पैसे नहीं हैं तो ये आपकी परेशानी है इसमें महंगाई का क्या रोल है। इसलिए आम लोगों की तरह मत सोचो, हर समय महंगाई और पैसे का रोना मत रोओ। जैसे नेताओं ने एक बोर्ड लगाकर आपको कहा हैप्पी दीवाली आप भी वैसे ही घर में एक बोर्ड लगाकर अपने बच्चों को बोलो हैप्पी दीवाली!!!

Thursday, October 13, 2011

नारायण का वर्क लोड!



नारायण! नारायण! अपनी वीणा के तारों को झंकारते हुए नारद मुनि ने बैकुंठ के द्वार पर कदम रखा तो अपने भगावन को थोड़ा चिंतित देखा। उनसे रहा न गया और पूछ बैठे- आपके माथे पर ये चिंता की लकीरें कैसी भगवन?

मानो भगवान विष्णु इसी प्रश्न को सुनने को बेचैन थे- क्या बताऊं मुनि श्रेष्ठ मेरे ऊपर वर्क लोड बढ़ता ही जा रहा है। परम पिता ब्रह्मा ने जिस सृष्टि की रचना की थी उसका संचालन दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है।

इस पर नारद जी ने पूछा- ऐसा क्या हो गया जिसने सर्वशक्तिमान, अखिल ब्रह्मांड नायक, देवादिदेव, स्वयं नारायण को चिंता में डाल दिया है।

भगवान बोले- हे! मुनि ये तो आप जानते ही हैं कि मृत्युलोक में पब्लिक लगातार बढ़ रही है और उसी के साथ बढ़ रही हैं उनकी डिमांड भी। मैं सबकी डिमांड पूरी करने में असमर्थ महसूस कर रहा हूं, भक्तों की डिमांड लगातार बढ़ रही हैं। डिमांड और सप्लाई का गैप भी लगातार बढ़ता ही जा रहा है। बैकलाॅग में करोड़ों एप्लीकेशन पड़ी हुई हैं। लेकिन मनुष्य की इच्छाएं खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं। एक वो जमाना था जब मेरा भक्त कहता था भगवान मुझे एक नौकरी दो। मैं उसकी प्रार्थना सुनता और एक नौकरी लगवा देता और वो पूरी जिंदगी उसी नौकरी में बिता देता। फिर कभी वो दोबारा मुझसे नौकरी की डिमांड नहीं करता था। लेकिन आज का मनुष्य बड़ा अजीब है। एक नौकरी में टिकता ही नहीं है। एक लगवाई तो फिर दूसरी मांगता है, दूसरी का इंतजाम किया तो तीसरी मांगता है, चैथी, पांचवीं, छठी... कोई अंत ही नहीं है। न लगवाओ तो उलाहने देता है कि भगवान तेरे यहां देर भी है और अंधेर भी। पहले इंसान एक लड़की से प्यार करता था और मुझसे उसी का हाथ मांगता था और उसके साथ शादी करके जिंदगी भर निभाता था। लेकिन अब तो अजीब चलन चल पड़ा है शादी तो बहुत बाद की चीज रही, मल्टीपल गर्लफ्रेंड की डिमांड रखता है। कभी इस लड़की के लिए प्रार्थना करता है, कभी दूसरी लड़की के लिए। अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं बिल्कुल। अब तुम ही बताओ नारद कि इतने वर्क प्रेशर में मैं कैसे काम करूं।

नारद बोले- भगवन समस्या तो गंभीर है, लेकिन यदि आप ही परेशान होने लगे तो संसारियों का क्या होगा?

भगवान ने पूछा- तो तुम ही बताओ मुनि क्या उपाय किया जाए? आप तो संसार भर में विचरते हो, आप ही कुछ सुझाओ!

नारद मुने कहने लगे- प्रभु पृथ्वी पर कंज्यूमरिज्म का दौर चल रहा है। रिश्ते-नाते, आचार-विचार-व्यवहार सब कुछ कंज्यूमरिज्म की चपेट में है। वहां की अर्थव्यवस्था को पंख लगाने के लिए कंजंप्शन को बढ़ावा देना बेहद जरूरी है। इसके चलते एक नौकरी में भला इंसान कैसे संतुष्ट रह सकता है। वो तो आपसे मांगने के लिए मजबूर है प्रभु!

भगवान बोले- अगर वहां कंज्यूमरिज्म बढ़ रहा है तो उसके लिए वहां की सरकारें जिम्मेदार हैं। उसका खामियाजा मुझे क्यों भुगतना पड़ रहा है।

नारद जी ने कहा- ये तो आप भली-भांति जानते हो प्रभु की धरती पर लोकतांत्रिक सरकारें किस तरह काम कर रही हैं। अगर वे ही ठीक से काम कर रही होतीं तो आज आपके इतने भक्त न होते। सब खुश, संतुष्ट और संपन्न होते। ये वहां की सरकारों की कुव्यवस्था का ही परिणाम है कि आप पर विश्वास करने वालों की संख्या हर रोज बढ़ रही है।

इस पर भगवान ने कहा- फिर भी मुनि श्रेष्ठ मांगने की कोई लिमिट होती है। मेरी भी अपनी कुछ लिमिटेशंस हैं कि नहीं?

नारद जी मुस्कुराए- प्रभु आपके भक्त तो सिर्फ इतना जानते हैं कि आपकी कोई लिमिट नहीं है। आपका तो न आदि है और न अंत।

मुनि के जवाब में भगवान ने खुद को फंसा हुआ महसूस किया- ठीक बात है, लेकिन फिर भी मुनि सोच कर देखो, परिवार के मुखिया से परिवार की डिमांड पूरी नहीं हो रहीं, मोहल्ले के पार्षद से मोहल्ला नहीं संभल रहा, जिलाधिकारी जैसे-तैसे काम को निपटा रहे हैं, धुरंधर से धुरंधर पुलिस अधीक्षक अपराध नहीं रोक पा रहे, राज्य सरकारें विफलता का राग गा रही हैं (गुजरात को छोड़कर), और देश का मुखिया भी खुद को मजबूर बता रहा है। तो आप बताओ की लोग मुझसे क्यों इतनी उम्मीद रखते हैं?

नारद जी फिर मुस्कुराए- प्रभु! लोग आपसे इसीलिए उम्मीद रखते हैं क्योंकि आप ही सचमुच उनकी आखिरी उम्मीद हो। आप भलीभांति जानते हो कि आप सर्वशक्तिमान और सामथ्र्यवान हो, लेकिन फिर भी अगर आप उनकी इच्छाएं पूरी नहीं कर रहे हो, तो इसमें भी आपकी दूरदृष्टि ही है। रही बात आपकी परेशानी की। तो आप अपने दिल पर हाथ रख कर देखिए आप वर्कलोड से परेशान नहीं हो आप परेशान हो लोगों की बढ़ती अपेक्षाओं से। अधिकांश मनुष्य अपने लक्ष्य को छोड़कर जिस मार्ग पर चल निकले हैं, आप कहीं न कहीं उनकी अधोगति से परेशान हो।

भगवान बोले- हे मुनि आपकी बात कुछ हद तक ठीक है, लेकिन ये मेरी समस्या का समाधान नहीं है।

नारद ने कहा- भगवन आप की परेशानी ये है कि आप हर चीज पर गंभीरता से विचार करते हैं। आप भी धरती की सरकारों की तरह हो जाइए। सरकार सिर्फ गंभीर होने का दिखावा करती है। आप भी वैसा ही कीजिए। जब भी कहीं त्रासदी होती है तो मंत्रीगण अपने शब्दों से गंभीर शोक प्रकट करते हैं। उनकी जीभ के सिवा वह शोक उनके तन पर कहीं भी नजर नहीं आता। घायलों का हाल जानने के लिए मंत्रीगण ऐसे अस्पतालों में घूमते हैं मानो मुगल गार्डन में घूम रहे हों। वे बार-बार ऐसा करते हैं, लेकिन सुधार फिर भी नहीं होता। आप भी चीजों को दिल पर मत लो। लोकतांत्रिक सरकार की तरह बनो नाथ।

भगवान ने कहा- यही तो दिक्कत है नारद मुनि की मैं वैसा नहीं बन सकता। मैं सरकार नहीं हूं मैं तो इस संसार का पालनहार हूं। मैं आंखें नहीं मूंद सकता, न खुद को मजबूर बता सकता हूं, इस सृष्टि को नियमानुसार चलाना ही मेरा कार्य है।

Tuesday, October 11, 2011

अतिथि ‘कस्टमर’ भवः


भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता का दर्जा दिया गया है। अतिथि ही को क्या, हर उस चीज को जिसकी मर्यादा की रक्षा जरूरी थी उसे देवी-देवता का दर्जा दे दिया गया। चाहे वह वन देवता हो, ग्राम देवता या जल देवता, भाव यही था कि इंसान इन की अहमियत समझे। लेकिन इस भाव को समझे बगैर मशीन की तरह मंत्रों को याद कर लिया और लगे रटने। अतिथि देवो भवः के पीछे कहीं न कहीं पर्यटन की बेहद गहरी सोच छिपी थी और यही कारण है कि पर्यटन मंत्रालय इस मंत्र को जगह-जगह विज्ञापनों में इस्तेमाल भी करता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सचमुच बेचारे अतिथि को ‘देव’ समझा जा रहा है। जहां तक पर्यटन का सवाल है तो पर्यटक स्थलों पर आने वाले सैलानियों को केवल ग्राहक की नजर से देखा जाता है। हालात इतने बुरे हैं कि अच्छे से अच्छा घूमने के शौकीन का मन मैला हो जाए। लेकिन ये सब अनुभव करने के लिए आपको कम बजट में एक आम सैलानी की तरह घूमने जाना होगा, अगर किसी वीआईपी तमगे के तले या फिर बोरे में नोट भरकर आप जाते हैं तो कोई दिक्कत नहीं।

रेलवे स्टेशन पर उतरते ही आॅटो और रिक्शे वालों के छल-कपट से लेकर अतिथि को सू-सू कराने वाले सुलभ शौचालयों तक और शुद्ध शाकाहारी भोजनालय से लेकर समर्पित धर्मशालाओं तक हर जगह सेवा भाव की जगह लूट भाव आ चुका है। किसी भी पर्यटक स्थल के रेलवे स्टेशन या बस स्टेशन पर पर्यटक के उतरते ही तमाम अतिथि सेवक उसको गिद्धों की तरह घेर लेते हैं। और अगर आप उस शहर में पहली बार घूमने गए हैं तो इन आॅटो और रिक्शे वालों का सहारा लेने के सिवा आपके पास कोई दूसरा चारा नहीं होता। ‘सर’ और ‘मैडम’ जैसे अति सम्मानित शब्दों के साथ वे एक झूठी मुस्कुराहट के साथ आपके पथप्रदर्शक बनने के लिए उत्सुक हैं। आपको होटल चाहिए या लाॅज, धर्मशाला चाहिए या मुसाफिरखाना इनकी हर जगह, हर रेंज में जान पहचान होती है। बस आपको अपना बजट बताना है बाकी अपना कमीशन तो ये होटल वाले से ले ही लेंगे।
स्टेशन के मुहाने पर इन अतिथि सेवकों से बात करते-करते अगर आपको प्यास लग आए तो ये आपकी गलती है। अब वहीं पास वाले खोखे से खरीदो पानी की बोतल जो प्रिंट रेट से 2-3 रुपए महंगी मिलेगी। अगर आप उस इज्जतदार खोखे वाले को टोकोगे तो दो बातें होंगी। या तो वो आपको यह कहकर झिड़क देगा कि- यहां तो इतने की ही मिलेगी, लेनी है लो, नहीं लेनी मत लो! या फिर कुटिलता से मुस्कुराकर कहेगा- दो-तीन रुपये ही तो कमाने हैं, वैसे भी धंधा एकदम मंदा चल रहा है। और आप उसे कानून पढ़ाने की कोशिश तो कतई न करें। यानि उसको एमआरपी का अर्थ समझाना मतलब भैंस के आगे बीन बजाना।

फिर जैसे-तैसे जब आप होटल पहुंचोगे तो वहां होटल वाला आपकी गर्दन का नाप लेकर उसी हिसाब से आपकी जेब ढीली करवा लेगा। अगर आप मिडिल क्लास से बिलांग करते हैं तो आपके मन में ये ख्याल जरूर आएगा- साला कहां तो हमारे यहां पूरे महीने का किराया 1200 रुपए होता है और कहां ये कमबख्त एक रात के 1200 मांग रहा है। पर मरता क्या न करता, तिस पर सफर की थकान, सो आप कलेजे पर पत्थर रखकर उसके हाथों में एडवांस थमा देंगे, क्योंकि होटल वाला आपको बताना नहीं भूलेगा कि पीक सीजन चल रहा है। इससे कम कहीं नहीं मिलने वाला।

फिर साहब आप थोड़ा कूल होकर जब शहर घूमने निकलेंगे तब? तब फिर दो बातें होंगी- अगर आप किसी धार्मिक नगरी में गए हैं तो पंडे आपके पीछे पड़ जाएंगे और अगर किसी हिल स्टेशन पर गए हैं तो गाइड, ट्रैवल एजेंट आपके पीछे पड़ेंगे। पंडित जी भी आपको ‘सर’ कहकर ही बुलाएंगे। हमारे संविधान में तो साफ-साफ लिखा गया है कि ‘सर’ और ‘लाॅर्ड’ जैसे टाइटल देश में नहीं दिए जाएंगे। लेकिन ‘सर’ नाम का टाइटल जितना भारत में पाॅपुलर है उतना शायद ही विश्व के किसी कोने में हो। सब के होठों पर मीठे-मीठे बोल और दिल में आपके पैसे ठंडे कराने की हसरत।

घूमने गए हैं तो खाए बिना तो काम चलेगा नहीं। अव्वल तो घर से खाना लेकर चलने का चलन खत्म हो चुका है अगर कोई लेकर चलता भी है तो कितना चलेगा। रेस्तरां में खाने जाइये तो साहब पता चलेगा कि कोई भी सब्जी हाफ प्लेट नहीं मिलेगी और जब छोटी सी कटोरी में फुल प्लेट लग कर आएगी तो आप समझ जाएंगे कि हाफ प्लेट क्यों नहीं मिलती। मेन्यू में सबसे सस्ती सब्जी खोजते-खोजते आपकी आंखें तरस जाएं और जब हारकर दाल की तरफ देखों तो दाल फ्राई भी 80 रुपए प्लेट। दाल मक्खनी की तरफ देखना भी गुनाह। जिस आलू को कोई नहीं पूछता वही आलू जीरा के नाम से 60 रुपए में बिक रहा है। सलाद चाहिए तो पैसे अलग से देने होंगे। बाकी बची रोटी तो साहब प्लेन रोटी 8 रुपए और बटर रोटी 10 रुपए। बटर और प्लेन में सिर्फ दो रुपए का अंतर इसलिए रखा गया है ताकि आप दो रुपए बचाने की कोशिश न करें और सीधे बटर रोटी ही आॅर्डर करें।

घूमते-घूमते यदि आपको लघुशंका लग आए तो फिर से दो बातें होंगी। अगर आप थोड़े से बेशर्म टाइप होंगे तो आपके लिए किसी भी पेड़ या दीवार का सहारा काफी है। लेकिन अगर आप थोड़े से शर्मदार हैं और खुद को सभ्य कैटेगरी में समझते हैं तो आप सुलभ शौचालय खोजेंगे। शौचालय के द्वार पर एक मेज होगी और उस मेज के पीछे एक काला सा व्यक्तित्व आपकी मजबूरी का फायदा उठाने के लिए बैठा होगा, जो आपको सू-सू कराने के एवज में कम से कम दो रुपए और अधिकतम पांच रुपए चार्ज करेगा।

इन सब हालातों से जूझते-जूझते जब आप घर वापस लौटोगे तो आपकी जेब जरूरत से ज्यादा ठंडी होगी। घर वाले जब इस उम्मीद से आपकी तरफ देखेंगे कि आप उनके लिए क्या लाए तो आपके पास सुनाने के लिए बातों के अलावा कुछ नहीं होगा। अंततः आपको घुमक्कड़ मन आपको आपकी घुमक्कड़ी के लिए घुड़केगा।