Sunday, October 3, 2010

हम अपने पिता का कहना नहीं मानते!

महात्मा गांधी का सपना था कि भारत में रामराज्य की स्थापना हो और उन्होंने ये सपना भारत के लोगों को भी दिखाया। १५ अगस्त १९४७ से लेकर अब तक भारत में गाहे-बगाहे राम राज्य की चर्चा किसी न किसी मंच से होती आई है। लेकिन अगर पॉलिटिकल पंडितों की मानें तो 'राम राज्य' एक यूटोपिया है, एक ऐसा काल्पनिक शब्द जिसका इस्तेमाल कर राजनीतिज्ञ आवाम को भ्रम में रखते हैं। फिर भी राम राज्य आज भी भारत की आवाम का सपना है। एक ऐसा सपना जो दिमाग में खिंची धर्म की दीवारों को तोड़ चुका है। राम मंदिर पर भले ही तलवारें खिंची हों, लेकिन राम राज्य भारत में आए इसपर सब सहमत हैं। पहले ये सपना गांधी ने दिखाया और फिर भाजपा ने। लेकिन ये सपना केवल मंच, माइक और रैलियों तक ही सिमटा रहा। इसको हकीकत में बदलने की कोशिश न महात्मा गांधी की कांग्रेस ने ही की और न भाजपा ने। भाजपा भले ही केंद्र में लंबे समय तक न रही हो, लेकिन कई राज्यों में वह लगातार कब्जा जमाए है और वहां भी राम राज्य की दिशा में कोई ठोस प्रयोग होता नहीं दिखता। शायद यही कारण है कि राम राज्य को यूटोपिया का दर्जा दिया गया।

यहां संक्षेप में ये भी बताते चलें कि जिस राम राज्य की बात गांधी से लेकर आज तक के नेता करते आए हैं, आखिर उसमें ऐसा क्या था कि हम आज भी वैसे शासन की इच्छा रखते हैं। संदर्भ के लिए अगर केवल तुलसी की रामचरितमानस को ही लें तो हम पाएंगे कि राम के शासन में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं था। न तो कोई किसी से बैर रखता था और न किसी तरह का भेदभाव था। सभी को समान अधिकार प्राप्त थे। सब अपने-अपने धर्म (कर्तव्यों) का भली-भांति पालन करते थे। न वहां भय था न कोई रोग और न शोक. न तो शारीरिक कष्ट थे और न सांसारिक, प्राकृतिक आपदाएं भी नहीं आती थीं। समय से बारिश होती थी और पशु-पक्षी स्वच्छंद रूप से विहार करते थे। यानि प्रकृति एकदम संतुलित थी। सभी नागरिक ज्ञानी, चरित्रवान और परोपकारी थे। यानि शिक्षा व्यवस्था बेहद उच्च स्तर की थी। सबसे बड़ी बात जो कही वो ये कि अल्पमृत्यु भी नहीं थी। सुनने में ये सब शायद एक सपनों की दुनिया लगे, लेकिन जरा सोच कर देखें कि उस शासन का कैसा सिस्टम रहा होगा? अगर आज की जुबान में कहें तो एकदम फूलप्रूफ सिस्टम।

इसके उलट जरा आज के भारत पर नजर डालते हैं। आजादी से लेकर आज तक भारत सरकार के सामने समस्याओं का अटंबार लगता जा रहा है, लेकिन किसी भी समस्या का कोई ठोस निराकरण नहीं निकल पा रहा। प्राकृतिक आपदाएं हों, अंदरूनी समस्याएं या फिर बाहरी खतरे हर मोर्चे पर हम ढुलमुल खड़े हैं। न तो हम अपने लोगों की बीमारियों से रक्षा कर पा रहे हैं और न तरह-तरह के आतंकवादियों से। कश्मीर से लेकर आसाम तक, आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद तक हम हर समस्या के सामने घुटने टेक कर खड़े हैं। हम कोई समाधान नहीं निकाल पा रहे, न तो शक्ति के बल पर और न प्रीति के बल पर। ऊपर से तुर्रा ये कि हम विकास कर रहे हैं, विश्व में एक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। आर्थिक विकास का छद्‌म चश्मा उतार कर देखें तो दिखेगा कि हम एक मुगालते में जी रहे हैं। ये एकदम २००४ के इंडिया शाइनिंग के माफिक है।

राष्ट्र निर्माण करते-करते हम चरित्र निर्माण करना भूल गए। आज हमने नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर तो खड़ा कर लिया है लेकिन देश   के पास नेशनल कैरेक्टर नहीं बचा। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि तमाम योजनाओं में करोड़ों बहाने के बावजूद उसका लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंच पाता। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि आज कॉमनवेल्थ खेलों में ७० हजार करोड का खजाने खोलने के बावजूद हमारे पांव थर-थर कांप रहे हैं और देश की इज्जत दाव पर है। इस सबकी जड में कहीं न कहीं हमारे एजुकेशन सिस्टम का ही दोष है। जिन बालकों के संग खेलते वक्त पंडित नेहरू उन्हें देश का भविष्य कहकर पुकारते थे, उन बालकों को हम अच्छा नागरिक बनने की दिशा ठीक से नहीं दे पाए। अब वही बालक विभिन्न पदों पर बैठे देश का बंटाधार कर रहे हैं।

गांधी ने अपने राम राज्य का खाका सत्य और अहिंसा की नींव पर खड़ा किया था। वो चाहते कि विकास की बयार गांव से शहर की ओर बहे। बेहूदे विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड न किया जाए। नागरिक तप और त्याग का जीवन जिएं। ऐसी अर्थव्यवस्था हो जो सबका पेट भर सके। लेकिन हुआ क्या? सत्ता मिलते ही गांधी के विचार को दरकिनार कर दिया गया और विकास का पश्चिमी मॉडल अपनाया गया। विकास शहरों से शुरू किया गया और गांव पिछडते चले गए, जिसका परिणाम निकला पलायन। स्थिति ये बन गई कि बार-बार दिल्ली की मुखयमंत्री को कहना पड़ा कि दिल्ली अब और लोगों को जगह नहीं दे सकती, कृपया दूसरे राज्यों से लोग यहां आकर न बसें।

हम अपनी नदियों, पहाड़ों और जंगलों को नहीं बचा पा रहे। गंगा-यमुना को साफ करने के नाम पर बार-बार प्रोजेक्ट लांच कर खानापूर्ति की गई लेकिन उनको गंदा करने वाली इंडस्ट्रीज के मालिकों से चुनावी फंड पाने के लिए राजनीतिज्ञ गलबहियां करते रहे। बाजारवाद और भोगवाद इतनी गहराई तक फैल गया कि तप और त्याग की बातें बेहद दकियानूसी लगीं। प्रकृति के साथ तो हमने ऐसा घिनौना बर्ताव किया कि हम उसको अपनी दासी मान बैठे हैं। हालांकि प्रकृति बार-बार अपनी ताकत का ऐहसास कराकर चेताने की कोशिश भी करती है, लेकिन हम उसके इशारे को नहीं समझ पाते। इस साल के मॉनसून ने समूचे उत्तर भारत को पानी पिला दिया। कॉमनवेल्थ की आयोजन कमेटी को तो ये मॉनसून खासतौर से याद रहेगा। खैर, जीव जंतुओं और पर्यावरण की रक्षा तो हम बाद में करेंगे, पहले तो हमारे नागरिक ही देश की सीमाओं में सुरक्षित नहीं हैं। हमको कोई भी, कभी भी, कहीं भी मार जाता है और सरकार के पास बयानों के मलहम के सिवा कुछ नहीं होता। शायद इसीलिए अब ये जुमला आम हो चला है कि भारत राम भरोसे चल रहा है।

जहां तक बात अल्पमृत्यु की है तो आज भारत में वह भी चर्म पर है। अल्पमृत्यु का सबसे बड़ा कारण बन रहे हैं तमाम तरह के हादसे और जानलेवा बीमारियां। हमने आज तक लड़े गए युद्धों में इतनी जानें नहीं गंवाई जितने नागरिक हमने देश की सडकों पर गंवा दिए। हमने ऐसी-ऐसी कारों को अपनी सडकों पर दौडने की इजाजत दे दी जिनके लिए भारतीय सडकें बिल्कुल अनुकूल नहीं हैं। हाईवे पर अधिकतम गति सीमा ६० किमी प्रति घंटा की है लेकिन गाडियों के अंदर २०० किमी प्रति घंटे तक का प्रावधान है। हाई स्पीड पर गाड़ी चलाने पर हम चालक का तो चालान काटते हैं, लेकिन गाड़ी में हाई स्पीड का प्रावधान देने वाली कंपनी के प्रति हमारा रवैया क्या होना चाहिए? वैसे इसपर कोई यह भी सवाल उठा सकता है कि देश का नागरिक कम उम्र में मरता है या उम्र पूरी करके, इसमें शासन की भूमिका कहां पर है। दरअसल यहीं पर राम राज्य का अंतर छिपा है। हम भारत पर भारतीयता की दृष्टि से शासन करने के बजाय एक विदेशी चश्मा लगाकर राज कर रहे हैं। गांधी के स्वदेशी मंत्र में केवल विदेशी चीज़ों की होली जलाना भर नहीं था, उनके 'स्वदेशी अपनाओ' में गहरा दर्शन छिपा था।

१९४७ से लेकर आज तक भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा। पिछले ६३ सालों से हम अलग-अलग सुरों में देश के अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार का रोना रो रहे हैं। लेकिन आज तक उसका खात्मा करने की दिशा में सिवाय असफलता के कुछ नहीं मिला। सर्वोच्च स्थानों से लेकर निचले तबके तक निजी हितों ने राष्ट्र हितों के ऊपर वरीयता प्राप्त कर ली है। उपभोक्तावाद ऐसा बढ़ा है कि हम अब केवल मुनाफे की भाषा बोलते और समझते हैं। बिना फायदे के तो अब हम ईश्वर को भी नहीं पूजते। राष्ट्रपिता ने तो बताया तप और त्याग का जीवन लेकिन राष्ट्र को दिया गया भोग और विलास का जीवन। धन और संपदा का लोभ इतना सिर चढ़ा कि जो धन राष्ट्र के विकास में लगना चाहिए था वह स्विस बैंकों में पड़ा सड़ रहा है। देश का शासक स्वयं देश के लिए घुन बन गया और लगातार उसको खोखला कर रहा है।

राम राज्य में दंड का भी प्रावधान था, लेकिन प्रजा इतनी अनुशासित थी कि दंड देने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। पर राजा राम ने बार-बार इस बात पर बल दिया कि अगर उचित समय पर उचित दंड दे दिया जाए तो बाकी प्रजा में उसका गहरा असर होता है। लेकिन आजाद भारत में न्यायिक प्रक्रिया किस तरह काम करती है ये बताने की आवश्यकता नहीं। देश की अस्मिता पर हमला करने वाले आतंकवादियों को सजा सुनाई गई, लेकिन उसको अमलीजामा पहनाने में सरकार के हाथ कांप रहे हैं। ऐसे में आम लोगों का देश के कानून में विश्वास कैसे दृढ बने। इसीलिए लोग कानून तोडने से भी नहीं डरते।

राजा राम का एक और विशेष गुण था। चक्रवर्ती सम्राट होने के बावजूद वे स्वयं अयोध्या के लोगों के बीच जाकर उनकी समस्याओं का आकलन करते थे। लेकिन आज के शासक ने आम लोगों से बहुत बड़ी दूरी बना ली है। राजा राम के दरबार में हर रोज कार्यार्थियों के काम और शिकायतें सुनने का प्रावधान था। वे लक्ष्मण को द्वार पर देखने को भेजते कि कहीं कोई अपना काम लेकर तो नहीं आया। लेकिन लक्ष्मण को द्वार पर कभी कोई नहीं मिलता। इसका अर्थ ये नहीं कि लोगों को बोलने का अधिकार नहीं था। राजा राम के शासन में प्रजा की राय सर्वोपरि थी, जिसके कारण राम को सीता का भी परित्याग करना पड़ा। द्वार पर कोई फरियादी न होने का अर्थ है कि निचले पदों पर बैठे राजा राम के प्रशासक बखूबी अपने काम को निभा रहे थे। आज उसका उल्टा है। जिला स्तर पर देखें तो डीएम और एसएसपी के ऑफिस में सुबह से ही शिकायत लेकर आए लोगों का जमावड़ा लग जाता है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि डीएम् एसएसपी से नीचे बैठे कर्मचारी अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं कर रहे।

इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर साइंटिफिक स्प्रिचुअलिज्म के संयोजक डॉ. गोपाल शास्त्री से जब मैंने राम राज्य के बाबत पूछा तो उनका कहना था कि राम राज्य तब आया जब अयोध्या के लोगों ने १४ वर्ष तक राम के इंतजार में कठिन तप किया। सभी अयोध्यावासियों ने कठोर तप करके राम के प्रति अपना समर्पण प्रदर्शित किया। उस १४ वर्ष के तप और त्याग ने अयोध्यावासियों को हर दृष्टि से एक श्रेष्ठ इंसान बनाया। जबकि उधर स्वयं राम वनवास में और अयोध्या के कार्यवाहक राजा भरत नंदिग्राम में तपस्वी का जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब राजा और प्रजा दोनों ने १४ वर्ष तक कठोर तप और त्याग के जीवन का अनुसरण किया तो अयोध्या में राम राज्य की स्थापना हुई। एक ऐसा राज्य जो राम के पिता दशरथ के शासन से भी श्रेष्ठ सिद्ध हुआ और एक मिसाल बन गया। आज तक लोग उस शासन का सपना देख रहे हैं।

हमने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा तो दे दिया। लेकिन तप और त्याग के जीवन का जो उदाहरण गांधी ने पेश किया उसको न तो देश के शासक ने अपनाया, न प्रशासक ने और न आम लोगों ने। हमने अपने बीच से एक श्रेष्ठ पुरुष को चुन लिया और अखिल विश्व को दिखाने के लिए उसको राष्ट्रपिता का दर्जा दे दिया, लेकिन हम अपने राष्ट्रपिता की वे संतानें हैं जो अपने पिता का कहना मानने को तैयार नहीं।

3 comments:

  1. पिता का कहना मानना तो अब दकियानूसी हो गया है। जब हमने त्‍याग की जगह भोग और सत्ता की भाषा को मान्‍यता दे दी है तब कैसे हमें बापू याद रहेंगे? उनके नाम लेने से सत्ता मिलती है बस यही तक उनके नाम का उपयोग है। बहुत अच्‍छा आलेख, बधाई।

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  2. bhiya maja aa gaya bohat acha lekh tha behad santulit.

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  3. @kamal: ye article "khabar indiya" online magazine ne bhi cover story banaya hai-
    http://khabarindiya.com/index.php/emagazine/index/8/2

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