Friday, October 22, 2010

जयंती तो वाल्मीकि की है, फिर चौपाइयां तुलसी की क्यों?

आज महर्षि वाल्मीकि जी की जयंती है. अवकाश भी है और उल्लास भी. हर साल की तरह इस बार भी अख़बारों में विज्ञापन दिए गए हैं. वाल्मीकि जयंती पर दिए जाने वाले विज्ञापनों में जो गलती मैं  हर साल देखता हूँ वही इस बार भी दिखी, तो सोचा इस बारे में लिख ही दिया जाए.

दरअसल हर बार महर्षि वाल्मीकि जी के चित्र के साथ उनकी जयंती की बधाई दी जाती है. रामायण लिखते हुए उनका पारंपरिक चित्र. लेकिन उनके समक्ष जो रामायण होती है वो वाल्मीकि रामायण की जगह तुलसी रामायण होती है, जिसमें तुलसी की चौपाइयां लिखी होती हैं. ये चीज़ आपको तमाम जगह देखने को मिल जाएगी. भगवन वाल्मीकि के कैलेंडरों से लेकर उनकी जयंती पर दिए जाने वाली विज्ञापनों तक. आज भी दिल्ली सरकार का जो विज्ञापन दिया गया है (चित्र देखें हिंदुस्तान टाइम्स  में छपा विज्ञापन) उसमें महर्षि वाल्मीकि के समक्ष जो रामायण रखी है उस पर तुलसी की चौपाई- "रघुकुल रीत सदा चल आई..." लिखी है. जबकि महर्षि वाल्मीकि की रामायण संस्कृत में है.

इस कन्फ्यूज़न को दूर करना जरूरी है. क्योंकि छोटे बच्चे इन्हीं सब चीज़ों से अपनी संस्कृति के बारे में सीखते हैं. गोस्वामी तुलसीदास और महर्षि वाल्मीकि की रामायण में अंतर हमें पता होना चाहिए. तुलसी की रामचरितमानस अवधी में है और वाल्मीकि रामायण संस्कृत में. इसलिए महर्षि वाल्मीकि के चित्र में वाल्मीकि रामायण के श्लोकों का समावेश करना चाहिए. इससे वाल्मीकि रामायण की जानकारी  का भी प्रसार होगा. कम से कम सरकारी विज्ञापन में इस तरह की गलती की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. उम्मीद है आगे इस बात का ख्याल रखा जायेगा. दिल्ली सफाई कर्मचारी कमीशन की ओर से जारी इस विज्ञापन में मुख्यमंत्री का चित्र लगा है साथ में कमीशन के चेयरमैन स्वरुप चंद राजन और सदस्य गण राजू सारसर और बीरपाल गहलोत का नाम छपा है. मुझे पूरी उम्मीद है कि ये गलती केवल दिल्ली सरकार के विज्ञापन में ही नहीं बाकि प्रदेश सरकारों और संस्थाओं द्वारा जारी विज्ञापनों में भी होगी.

Tuesday, October 5, 2010

अयोध्या का फैसला!

श्री राम लला विराजमान 
जून की तपिश तो थी ही, लेकिन अयोध्या में विवादित भूमि के मालिकाना हक के मसले पर सुनवाई कर रहे इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के तीनों जज दोहरी तपिश झेल रहे थे. जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एस यू खान और जस्टिस धर्मवीर शर्मा तीनों लम्बे समय से इस केस की सुनवाई कर रहे थे. लेकिन अब इस केस को और ज्यादा खींचना नामुमकिन था. दोनों पक्ष अपनी अपनी ओर से पूरी सफाई पेश कर चुके थे. अब कहने सुनने को कुछ रह नहीं गया था. यूँ तो मालिकाना हक के तमाम केस देश की अदालतों में चल रहे हैं, तमाम केसों में फैसले भी दिए जा चुके हैं. बिरला खानदान से लेकर नुक्कड़ के छग्गन तक तमाम मामलों में अदालत ने मालिकाना हक के फैसले सुनाये हैं. लेकिन इस केस का फैसला सुनाने में अदालत को पसीने भी आ रहे हैं और उसको नर्वेसनेस भी है. कहने को तो ये मामला अयोध्या के बेहद आम लोगों ने ही दर्ज कराया था. लेकिन ये मुकदमा इतना ख़ास हो चुका था की इससे ७५ करोड़ से ज्यादा हिन्दू और 25 करोड़ से ज्यादा मुसलमान खुद-बा-खुद जुड़ते चले गए. किसी एक के हक में फैसला देने का मतलब था एक बहुत बड़े तबके को खुश करके एक बहुत बड़े तबके को नाराज करना. तीनों ही जज धर्मसंकट में थे. करें तो क्या करें. ये भावनाओं से जुड़ा मुद्दा था, आस्था से जुड़ा मामला था, और भारत जैसे भावनात्मक देश में आस्था बहुत ज्यादा मायने रखती हैं. आस्था के लिए इस देश के नागरिक कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं. और फिर इसका फायदा उठाने वाले भी कम नहीं हैं. उनको तो बस एक मौका चाहिए लोगों की भावनाओं को हवा देने का. इस देश में इतने दंगे यूँ ही नहीं हो गए.

आज फिर अयोध्या मामले की तारीख है. तीनों जज अपने-अपने चैंबर में पहुँच गए हैं. जून की तपती गर्मी और उस पर अयोध्या का केस. सुनवाई में अभी वक़्त है. तीनों जज समय से पहले ही पहुँच गए हैं. जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने अपने चपरासी को भेजकर चाय के बहाने अयोध्या केस की सुनवाई कर रहे बाकी के दोनों जजों को भी अपने चैंबर में बुलवा लिया. थोड़ी ही देर में दोनों जज जस्टिस अग्रवाल के चैंबर में पड़ी मेज एक इर्द-गिर्द बैठे थे. जस्टिस अग्रवाल ने चपरासी को चाय के लिए इशारा किया और अपने दोनों साथियों से बतियाने लगे. शुरुआत हल-चाल पूंछने से हुई और धीरे धीरे गंभीर डिस्कशन होने लगा, जो घूमते-घूमते अयोध्या केस पर आकर टिक गया. इतने में चपरासी चाय लेकर आ गया. जस्टिस अग्रवाल ने उसको निर्देश दिया कि अभी किसी को अन्दर नहीं आने देना, जरूरी मीटिंग चल रही है.

"तो फिर खान साहब अब इस मामले में क्या किया जाये" , जस्टिस शर्मा ने जस्टिस खान से पूछा.

"देखिये अब और तारीख देना मुमकिन नहीं है. अब तो गेंद पूरी तरह हमारे ही पाले में है. ६० साल हो गए हैं, फैसला तो देना ही होगा.", जस्टिस खान ने अपनी राय दी.

जस्टिस अग्रवाल ने आगे जोड़ा "लेकिन फैसले का मतलब समझते हैं न आप. मामला कितना सेंसिटिव है ये तो हम सभी समझते हैं."

"सेंसिटिव होने का मतलब ये तो नहीं कि फैसला नहीं दिया जायेगा. अदालत को तो अपना काम करना ही पड़ेगा. बाकी जिम्मेदारी सरकार की है." जस्टिस शर्मा ने थोड़ा मजबूती से कहा.

"दरअसल, हम तीनों ही इस केस की संजीदगी को अच्छी तरह समझते हैं. अदालत की सुनवाई पूरी तरह से निष्पक्ष रूप से चली है. उस पर कोई ऊँगली नहीं उठा सकता. लेकिन जैसे ही फैसला किसी एक के पक्ष में आएगा उस पर थोड़ी बेचैनी जरूर हो सकती है.", जस्टिस खान ने फैसले के बाद के हालातों की हलकी सी विवेचना की.

"कहाँ खान साहब. अब ज्यादा गर्मी बची नहीं है. ६० सालों में दोनों पक्षों के अन्दर की बेचैनी तकरीबन ख़त्म हो चुकी है. अब वो लोग भी इस मुक़दमे को और लम्बा नहीं खींचना चाहते. सब के सब फैसला सुनना चाहते हैं. मुझे नहीं लगता कि कोई बहुत ज्यादा असर पड़ने वाला है.", जस्टिस खान की बात पर जस्टिस शर्मा ने अपने ख्याल जताए.

इस पर जस्टिस अग्रवाल ने सुझाया, "देखिये, है तो ये मामला पूरी तरह संवेदनशील ही. ये किसी की संपत्ति की बंटवारे के मानिंद तो है नहीं कि थोड़ा एक भाई को दे दिया थोड़ा दूसरे को. नेताओं ने इस मुद्दे को जिस तरह हवा दे राखी है उससे इस मामले का फैसला अब भारत की सीमाओं से बहार भी असर डालेगा. इसलिए मुझे तो लगता है कि इस मसले पे फैसला देते वक़्त हमें बीच का रास्ता अख्तियार करना चाहिए."

"बीच का रास्ता मतलब?" जस्टिस शर्मा ने थोड़ा अचरज से पूछा.

"मतलब ये कि इतने सैकड़ों साल बाद इस बात का निर्णय करना कि ये जमीन किसकी है एक कठिन काम है. खासतौर से जब मामला धर्म से जुड़ा हो. इसलिए ऐसा फैसला आना चाहिए कि किसी एक पक्ष के फेवर में फैसला सुनाने के बजाय दोनों पक्षों को कुछ कुछ हिस्सा दे दिया जाए.", जस्टिस अग्रवाल ने साफ़ किया.

"लेकिन क्या ये न्याय होगा, ६० साल तक क्या दोनों पक्ष ऐसे ही फैसले के लिए लड़ रहे हैं. ये तो फिर से वैसी ही स्थिति हो जाएगी.", जस्टिस शर्मा ने थोड़ी आपत्ति की.

"देखिये आप खुद ही मान रहे हैं कि मसला संवेदनशील है. किसी एक पक्ष को पूरी जमीन का मालिकाना हक़ देने से गड़बड़ हो सकती है. अगर फैसला एक के हक़ में दिया जाए तो हिन्दुओं का पक्ष मजबूत है. चाहे सबूत देखे जाएँ या फिर इतिहास. वैसे भी अयोध्या और राम का नाता मुग़लों के आने से हजारों साल पहले का है. उस दृष्टि से पूरी की पूरी अयोध्या राम की ही है. लेकिन बाबरी मस्जिद से मुसलमानों की भी भावनाएं जुडी हैं. मस्जिद के गिराए जाने से एक ठेस उनको पहले ही पहुँच चुकी है. इस तरह का फैसला देकर उनको एक और ठेस लगेगी. तो सोच लीजिये. आप बताइए जस्टिस खान क्या मैं गलत कह रहा हूँ."

"नहीं जनाब, गलत तो नहीं कह रहे. अगर केवल हिन्दुओं के पक्ष में फैसला दिया गया तो आने वाली मुस्लिम पीढियां मेरा नाम ले-लेकर मुझे कोसेंगी. बात आपकी सही है. बीच का रास्त अख्तियार करके मामले को निबटाया जाए. बाकी का सुप्रीम कोर्ट जाने. हमारे पाले से गेंद निकल जायेगी.", जस्टिस खान ने जस्टिस अग्रवाल से इत्तेफाक जताया.

"देखिये हम तीनों एक केस की बारीकियां अलग अलग दर्ज कर ही रहे हैं. फैसला भी अलग अलग सुनाया जाए.", जस्टिस अग्रवाल ने अपना प्लान बताया.

"सो किस तरह", जस्टिस शर्मा ने पूछा.

"देखिये शर्मा जी, आप १ अक्टूबर को रिटायर हो रहे हैं, तो आप पूरी तरह हिन्दुओं के पक्ष में फैसला सुनाएँ. जस्टिस खान अपने फैसले में थोड़ा मुस्लिमों का पक्ष लेते नज़र आयें और मैं आप दोनों के बीच का रास्ता ले लूँगा. इससे बात थोड़ी बन जाएगी." जस्टिस अग्रवाल ने सुझाया.

"लेकिन राम लला का क्या? वो वहां रहेंगे या हटाये जायेंगे? असली मसला तो यही है.", जस्टिस शर्मा ने पूछा.

"राम लला को हटाया जाना ठीक नहीं है. अपनी ही अयोध्या में रहने के लिए राम लला को केस लड़ना पड़ रहा है. वो जगह तो राम लला को ही मिलनी चाहिए. बाकी की जगह को बाँट दो. इसमें तीन पक्ष हैं. तीनों को बराबर बराबर दे दो." जस्टिस अग्रवाल ने स्पष्ट करते हुए जस्टिस खान की ओर देखा.

"हम्म! देखिये पहले रहा तो वहां पर मंदिर ही होगा. मस्जिद तो बाद में ही बनी है. लेकिन किसने मंदिर गिराया और किसने मस्जिद बनाई इसको लेकर मैं अभी भी क्लियर नहीं हूँ. तो इस लिहाज से अगर मुख्य स्थान राम लला को दे भी दें तो चलेगा. लेकिन ये स्थान उनको देने के पीछे मेरे पास अलग कारण होंगे. मैं वो कारण नहीं मानता जो हिन्दू पक्ष के वकील दे रहे हैं." जस्टिस खान ने अपनी स्थिति साफ़ की.

"लो फिर तो मसला हल ही हो गया. फिर ऐसा ही करते हैं हम तीनों अलग अलग फैसला लिख लेते हैं. फैसला सुनाने की तारीख जस्टिस शर्मा की रिटायर्मेंट डेट के आस-पास रख लेते हैं. इससे दो बातें होंगी. एक तो ये कि रिटायर्मेंट डेट के चलते फैसला सुनाना मजबूरी हो जाएगी और दूसरा ये कि जस्टिस शर्मा हिन्दुओं का साफ़ फेवर करके रिटायर हो जायेंगे. इससे आगे उनकी निष्पक्षता पर आगे कोई ऊँगली भी नहीं उठाएगा." जस्टिस अग्रवाल ने ख़ुशी जाहिर की.

"हम्म! अगर परिस्थितियों ने साथ दिया और हम इस पेचीदे केस का फैसला सुनाने में सफल रहे तो इतना तो तय है कि हम तीनों एक इतिहास रचेंगे. हमारे नाम हमेशा के लिए इस केस के साथ जुड़ जायेंगे.", थोड़ी ख़ुशी जस्टिस शर्मा को भी थी.

"बिलकुल सही फरमा रहे हैं आप. लेकिन हमारा रास्ता इतना आसान है नहीं जितना जस्टिस अग्रवाल को लग रहा है." जस्टिस खान ने कहा.

"आसान तो कुछ भी नहीं खान साहब. फैसले की डेट तो दो, उसका रियक्शन देख कर पता चल जायेगा कि राह कितनी कठिन है. चलिए कागज पत्तर संभालिये, कोर्ट का समय हो गया है."

और दोनों जज अपने-अपने चैंबर में चले गए. कुछ मिनट बाद तीनों अपने चैम्बरों से निकले और कोर्ट में सुनवाई के लिए चल दिए, जहाँ अयोध्या मसले पर दोनों पक्ष उनका इंतजार कर रहे थे.

तभी मेरे मोबाइल में अलार्म बजा और मेरी आंख खुल गयी. सुबह के ६:०० बजे थे. लेकिन मुझे अपने कई सवालों का जवाब मिल चुका था.

Sunday, October 3, 2010

हम अपने पिता का कहना नहीं मानते!

महात्मा गांधी का सपना था कि भारत में रामराज्य की स्थापना हो और उन्होंने ये सपना भारत के लोगों को भी दिखाया। १५ अगस्त १९४७ से लेकर अब तक भारत में गाहे-बगाहे राम राज्य की चर्चा किसी न किसी मंच से होती आई है। लेकिन अगर पॉलिटिकल पंडितों की मानें तो 'राम राज्य' एक यूटोपिया है, एक ऐसा काल्पनिक शब्द जिसका इस्तेमाल कर राजनीतिज्ञ आवाम को भ्रम में रखते हैं। फिर भी राम राज्य आज भी भारत की आवाम का सपना है। एक ऐसा सपना जो दिमाग में खिंची धर्म की दीवारों को तोड़ चुका है। राम मंदिर पर भले ही तलवारें खिंची हों, लेकिन राम राज्य भारत में आए इसपर सब सहमत हैं। पहले ये सपना गांधी ने दिखाया और फिर भाजपा ने। लेकिन ये सपना केवल मंच, माइक और रैलियों तक ही सिमटा रहा। इसको हकीकत में बदलने की कोशिश न महात्मा गांधी की कांग्रेस ने ही की और न भाजपा ने। भाजपा भले ही केंद्र में लंबे समय तक न रही हो, लेकिन कई राज्यों में वह लगातार कब्जा जमाए है और वहां भी राम राज्य की दिशा में कोई ठोस प्रयोग होता नहीं दिखता। शायद यही कारण है कि राम राज्य को यूटोपिया का दर्जा दिया गया।

यहां संक्षेप में ये भी बताते चलें कि जिस राम राज्य की बात गांधी से लेकर आज तक के नेता करते आए हैं, आखिर उसमें ऐसा क्या था कि हम आज भी वैसे शासन की इच्छा रखते हैं। संदर्भ के लिए अगर केवल तुलसी की रामचरितमानस को ही लें तो हम पाएंगे कि राम के शासन में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं था। न तो कोई किसी से बैर रखता था और न किसी तरह का भेदभाव था। सभी को समान अधिकार प्राप्त थे। सब अपने-अपने धर्म (कर्तव्यों) का भली-भांति पालन करते थे। न वहां भय था न कोई रोग और न शोक. न तो शारीरिक कष्ट थे और न सांसारिक, प्राकृतिक आपदाएं भी नहीं आती थीं। समय से बारिश होती थी और पशु-पक्षी स्वच्छंद रूप से विहार करते थे। यानि प्रकृति एकदम संतुलित थी। सभी नागरिक ज्ञानी, चरित्रवान और परोपकारी थे। यानि शिक्षा व्यवस्था बेहद उच्च स्तर की थी। सबसे बड़ी बात जो कही वो ये कि अल्पमृत्यु भी नहीं थी। सुनने में ये सब शायद एक सपनों की दुनिया लगे, लेकिन जरा सोच कर देखें कि उस शासन का कैसा सिस्टम रहा होगा? अगर आज की जुबान में कहें तो एकदम फूलप्रूफ सिस्टम।

इसके उलट जरा आज के भारत पर नजर डालते हैं। आजादी से लेकर आज तक भारत सरकार के सामने समस्याओं का अटंबार लगता जा रहा है, लेकिन किसी भी समस्या का कोई ठोस निराकरण नहीं निकल पा रहा। प्राकृतिक आपदाएं हों, अंदरूनी समस्याएं या फिर बाहरी खतरे हर मोर्चे पर हम ढुलमुल खड़े हैं। न तो हम अपने लोगों की बीमारियों से रक्षा कर पा रहे हैं और न तरह-तरह के आतंकवादियों से। कश्मीर से लेकर आसाम तक, आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद तक हम हर समस्या के सामने घुटने टेक कर खड़े हैं। हम कोई समाधान नहीं निकाल पा रहे, न तो शक्ति के बल पर और न प्रीति के बल पर। ऊपर से तुर्रा ये कि हम विकास कर रहे हैं, विश्व में एक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। आर्थिक विकास का छद्‌म चश्मा उतार कर देखें तो दिखेगा कि हम एक मुगालते में जी रहे हैं। ये एकदम २००४ के इंडिया शाइनिंग के माफिक है।

राष्ट्र निर्माण करते-करते हम चरित्र निर्माण करना भूल गए। आज हमने नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर तो खड़ा कर लिया है लेकिन देश   के पास नेशनल कैरेक्टर नहीं बचा। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि तमाम योजनाओं में करोड़ों बहाने के बावजूद उसका लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंच पाता। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि आज कॉमनवेल्थ खेलों में ७० हजार करोड का खजाने खोलने के बावजूद हमारे पांव थर-थर कांप रहे हैं और देश की इज्जत दाव पर है। इस सबकी जड में कहीं न कहीं हमारे एजुकेशन सिस्टम का ही दोष है। जिन बालकों के संग खेलते वक्त पंडित नेहरू उन्हें देश का भविष्य कहकर पुकारते थे, उन बालकों को हम अच्छा नागरिक बनने की दिशा ठीक से नहीं दे पाए। अब वही बालक विभिन्न पदों पर बैठे देश का बंटाधार कर रहे हैं।

गांधी ने अपने राम राज्य का खाका सत्य और अहिंसा की नींव पर खड़ा किया था। वो चाहते कि विकास की बयार गांव से शहर की ओर बहे। बेहूदे विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड न किया जाए। नागरिक तप और त्याग का जीवन जिएं। ऐसी अर्थव्यवस्था हो जो सबका पेट भर सके। लेकिन हुआ क्या? सत्ता मिलते ही गांधी के विचार को दरकिनार कर दिया गया और विकास का पश्चिमी मॉडल अपनाया गया। विकास शहरों से शुरू किया गया और गांव पिछडते चले गए, जिसका परिणाम निकला पलायन। स्थिति ये बन गई कि बार-बार दिल्ली की मुखयमंत्री को कहना पड़ा कि दिल्ली अब और लोगों को जगह नहीं दे सकती, कृपया दूसरे राज्यों से लोग यहां आकर न बसें।

हम अपनी नदियों, पहाड़ों और जंगलों को नहीं बचा पा रहे। गंगा-यमुना को साफ करने के नाम पर बार-बार प्रोजेक्ट लांच कर खानापूर्ति की गई लेकिन उनको गंदा करने वाली इंडस्ट्रीज के मालिकों से चुनावी फंड पाने के लिए राजनीतिज्ञ गलबहियां करते रहे। बाजारवाद और भोगवाद इतनी गहराई तक फैल गया कि तप और त्याग की बातें बेहद दकियानूसी लगीं। प्रकृति के साथ तो हमने ऐसा घिनौना बर्ताव किया कि हम उसको अपनी दासी मान बैठे हैं। हालांकि प्रकृति बार-बार अपनी ताकत का ऐहसास कराकर चेताने की कोशिश भी करती है, लेकिन हम उसके इशारे को नहीं समझ पाते। इस साल के मॉनसून ने समूचे उत्तर भारत को पानी पिला दिया। कॉमनवेल्थ की आयोजन कमेटी को तो ये मॉनसून खासतौर से याद रहेगा। खैर, जीव जंतुओं और पर्यावरण की रक्षा तो हम बाद में करेंगे, पहले तो हमारे नागरिक ही देश की सीमाओं में सुरक्षित नहीं हैं। हमको कोई भी, कभी भी, कहीं भी मार जाता है और सरकार के पास बयानों के मलहम के सिवा कुछ नहीं होता। शायद इसीलिए अब ये जुमला आम हो चला है कि भारत राम भरोसे चल रहा है।

जहां तक बात अल्पमृत्यु की है तो आज भारत में वह भी चर्म पर है। अल्पमृत्यु का सबसे बड़ा कारण बन रहे हैं तमाम तरह के हादसे और जानलेवा बीमारियां। हमने आज तक लड़े गए युद्धों में इतनी जानें नहीं गंवाई जितने नागरिक हमने देश की सडकों पर गंवा दिए। हमने ऐसी-ऐसी कारों को अपनी सडकों पर दौडने की इजाजत दे दी जिनके लिए भारतीय सडकें बिल्कुल अनुकूल नहीं हैं। हाईवे पर अधिकतम गति सीमा ६० किमी प्रति घंटा की है लेकिन गाडियों के अंदर २०० किमी प्रति घंटे तक का प्रावधान है। हाई स्पीड पर गाड़ी चलाने पर हम चालक का तो चालान काटते हैं, लेकिन गाड़ी में हाई स्पीड का प्रावधान देने वाली कंपनी के प्रति हमारा रवैया क्या होना चाहिए? वैसे इसपर कोई यह भी सवाल उठा सकता है कि देश का नागरिक कम उम्र में मरता है या उम्र पूरी करके, इसमें शासन की भूमिका कहां पर है। दरअसल यहीं पर राम राज्य का अंतर छिपा है। हम भारत पर भारतीयता की दृष्टि से शासन करने के बजाय एक विदेशी चश्मा लगाकर राज कर रहे हैं। गांधी के स्वदेशी मंत्र में केवल विदेशी चीज़ों की होली जलाना भर नहीं था, उनके 'स्वदेशी अपनाओ' में गहरा दर्शन छिपा था।

१९४७ से लेकर आज तक भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा। पिछले ६३ सालों से हम अलग-अलग सुरों में देश के अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार का रोना रो रहे हैं। लेकिन आज तक उसका खात्मा करने की दिशा में सिवाय असफलता के कुछ नहीं मिला। सर्वोच्च स्थानों से लेकर निचले तबके तक निजी हितों ने राष्ट्र हितों के ऊपर वरीयता प्राप्त कर ली है। उपभोक्तावाद ऐसा बढ़ा है कि हम अब केवल मुनाफे की भाषा बोलते और समझते हैं। बिना फायदे के तो अब हम ईश्वर को भी नहीं पूजते। राष्ट्रपिता ने तो बताया तप और त्याग का जीवन लेकिन राष्ट्र को दिया गया भोग और विलास का जीवन। धन और संपदा का लोभ इतना सिर चढ़ा कि जो धन राष्ट्र के विकास में लगना चाहिए था वह स्विस बैंकों में पड़ा सड़ रहा है। देश का शासक स्वयं देश के लिए घुन बन गया और लगातार उसको खोखला कर रहा है।

राम राज्य में दंड का भी प्रावधान था, लेकिन प्रजा इतनी अनुशासित थी कि दंड देने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। पर राजा राम ने बार-बार इस बात पर बल दिया कि अगर उचित समय पर उचित दंड दे दिया जाए तो बाकी प्रजा में उसका गहरा असर होता है। लेकिन आजाद भारत में न्यायिक प्रक्रिया किस तरह काम करती है ये बताने की आवश्यकता नहीं। देश की अस्मिता पर हमला करने वाले आतंकवादियों को सजा सुनाई गई, लेकिन उसको अमलीजामा पहनाने में सरकार के हाथ कांप रहे हैं। ऐसे में आम लोगों का देश के कानून में विश्वास कैसे दृढ बने। इसीलिए लोग कानून तोडने से भी नहीं डरते।

राजा राम का एक और विशेष गुण था। चक्रवर्ती सम्राट होने के बावजूद वे स्वयं अयोध्या के लोगों के बीच जाकर उनकी समस्याओं का आकलन करते थे। लेकिन आज के शासक ने आम लोगों से बहुत बड़ी दूरी बना ली है। राजा राम के दरबार में हर रोज कार्यार्थियों के काम और शिकायतें सुनने का प्रावधान था। वे लक्ष्मण को द्वार पर देखने को भेजते कि कहीं कोई अपना काम लेकर तो नहीं आया। लेकिन लक्ष्मण को द्वार पर कभी कोई नहीं मिलता। इसका अर्थ ये नहीं कि लोगों को बोलने का अधिकार नहीं था। राजा राम के शासन में प्रजा की राय सर्वोपरि थी, जिसके कारण राम को सीता का भी परित्याग करना पड़ा। द्वार पर कोई फरियादी न होने का अर्थ है कि निचले पदों पर बैठे राजा राम के प्रशासक बखूबी अपने काम को निभा रहे थे। आज उसका उल्टा है। जिला स्तर पर देखें तो डीएम और एसएसपी के ऑफिस में सुबह से ही शिकायत लेकर आए लोगों का जमावड़ा लग जाता है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि डीएम् एसएसपी से नीचे बैठे कर्मचारी अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं कर रहे।

इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर साइंटिफिक स्प्रिचुअलिज्म के संयोजक डॉ. गोपाल शास्त्री से जब मैंने राम राज्य के बाबत पूछा तो उनका कहना था कि राम राज्य तब आया जब अयोध्या के लोगों ने १४ वर्ष तक राम के इंतजार में कठिन तप किया। सभी अयोध्यावासियों ने कठोर तप करके राम के प्रति अपना समर्पण प्रदर्शित किया। उस १४ वर्ष के तप और त्याग ने अयोध्यावासियों को हर दृष्टि से एक श्रेष्ठ इंसान बनाया। जबकि उधर स्वयं राम वनवास में और अयोध्या के कार्यवाहक राजा भरत नंदिग्राम में तपस्वी का जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब राजा और प्रजा दोनों ने १४ वर्ष तक कठोर तप और त्याग के जीवन का अनुसरण किया तो अयोध्या में राम राज्य की स्थापना हुई। एक ऐसा राज्य जो राम के पिता दशरथ के शासन से भी श्रेष्ठ सिद्ध हुआ और एक मिसाल बन गया। आज तक लोग उस शासन का सपना देख रहे हैं।

हमने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा तो दे दिया। लेकिन तप और त्याग के जीवन का जो उदाहरण गांधी ने पेश किया उसको न तो देश के शासक ने अपनाया, न प्रशासक ने और न आम लोगों ने। हमने अपने बीच से एक श्रेष्ठ पुरुष को चुन लिया और अखिल विश्व को दिखाने के लिए उसको राष्ट्रपिता का दर्जा दे दिया, लेकिन हम अपने राष्ट्रपिता की वे संतानें हैं जो अपने पिता का कहना मानने को तैयार नहीं।