Monday, September 27, 2010

बातों के बतोले और राष्ट्रीय चिंतन

जिन्दगी में गपरचौथ  का बड़ा महत्व होता है. हर कोई कहीं न कहीं गपरचौथ जरूर  करता है. चाहे ऑफिस में या चाय की दुकान पर, गाँव हो तो किसी पेड़ के नीचे, कॉलेज में हो तो कैंटीन में, यानि सबके पास गपरचौथ के अपने अपने अड्डे हैं. अब आप पूछेंगे गपरचौथ क्या? तो जी हमारे यहाँ गपरचौथ यानि बातों के बतोले फोड़ना, खाली वक़्त की पंचायत या बैठकी. अमूमन इस तरह की गपरचौथ में इधर-उधर की बुराई और एक-दूसरे की टांग खिंचाई होती है. लेकिन अगर गंभीर विषय छिड़ जाये तो कई बार अच्छे अच्छे विचारों का भी आदान प्रदान हो जाता है. मेरठ में पत्रकारिता के दौरान इस गपरचौथ का आनंद लिया जाता था रात को अखबार निकालने के बाद. ऑफिस के पास चाय की दुकान पर. अमूमन १२-१ बजे से शुरू होकर ये गपरचौथ २-३ बजे तक चलती. इस गपरचौथ के मुखिया होते हमारे मकेश सर. इस बैठकी के सबसे बड़े रसिया थे अनुराग और कपिल जी. अन्य लोग जो साथ निभाते उनमें सुशील, संतोष, सचिन त्यागी,  कुशल जी, मैं और विवेक जी. इस गपरचौथ की संख्या ५ से कम कभी नहीं घटी. सबकी चाय का प्रबंध हर रोज मुकेश सर की ओर से रहता. इस बैठकी में मुख्य मुद्दा होता आज के दौर की पत्रकारिता और पत्रकार. इसके बाद नम्बर था समसामयिक मुद्दों और देश की अन्य समस्याओं का. हलकी-फुलकी चुहलें और थोड़ी टांग खिंचाई.

दिल्ली आकर एनजीओ से जुड़ने के बाद अब मुझे इस गपरचौथ के लिए नयी जगह मिल गयी. अब हमारी बैठकी अक्सर आंटी के घर जुटती है. अक्सर रात के खाने के बाद सबका उनके घर हालचाल जानने के बहाने आना होता है. और अगर बहस का मुद्दा गर्म हो तो समझो जम गयी पंचायत. अलग-अलग टेस्ट के लोग होने के कारण इस बहस में पक्ष और विपक्ष भी बन जाता है. आंटी के घर की गपरचौथ में भाग लेने वालों में हमारे अंकल जोकि डॉक्टर हैं और आंटी के अलावा, भगवन अंकल, तेजेश मामा, मैं और टीनू भैया. जिस दिन की बहस में टीनू भैया शामिल होते हैं उस दिन समझो रात को तीन बजने ही बजने हैं. बुधवार के दिन मेरी छुट्टी होती है तो मंगलवार रात को अगर बहस छिड़ जाए तो फिर मत पूछो. एक दिन मंगलवार को मृगांक भी आया हुआ था उस दिन फिल्मों से लेकर खाने-पीने तक के मुद्दों पर ऐसी चर्चा छिड़ी कि जब मैं रात को वहां से उठ कर अपने रूम की तरफ बढ़ा तो बहार पेड़ों पर चिड़ियाँ बोल रही थीं. घर जाकर समय देखा तो तडके के ४:३० बजे थे. चद्दर तान के ऐसा सोया कि सुबह १० बजे आँख खुली.

चलती बहस में से बार बार उठने की कोशिश भी करो लेकिन फिर सबका अनुग्रह-  "अरे बैठो अभी...", "घर जाकर सोना ही तो है...", "चले जाना, थोड़ी देर और रुको ज़रा....", ऐसा दबाव होता है कि उठ-उठ कर बैठना पड़ता है. टीनू भैया तो ऐसे चटकारे छोड़ते हैं कि बीच में छोड़ भी नहीं सकते. और फिर थोड़ी-थोड़ी देर के अंतर पर आंटी की चाय, साथ में उनकी रसोई के नए- नए प्रयोग. रात का खाली समय, चाय, नाश्ता और बातें करने के लिए रोचक लोगों की बैठक और भला क्या चाहिए. क्लीनिक से आकर अंकल भी फुल चर्चा करने के मूड में होते हैं. बस कोई कह दे एक बार ज़रा. अंकल के जो भी तर्क होते हैं वो विज्ञान और अध्यात्म का मिला-जुला मिश्रण होते हैं. मेरा पक्ष पूरी तरह अध्यात्मिक, आंटी का भावनात्मक और टीनू भैया का एकदम व्यावहारिक. जब भगवन अंकल होते हैं तो वे गरमा गर्मी हो जाने पर बीच-बचाव करते हैं, खासतौर से जब बात शाकाहार बनाम मांसाहार पर चल रही हो. मैं और भगवन अंकल शाकाहार का पक्ष लेते हैं और टीनू भैया और डॉक्टर अंकल मांसाहार के पक्ष में एक से बढ़कर एक तर्क पेश करते हैं. लेकिन जब बात राष्ट्रीय समस्याओं पर चल रही हो तो सबका व्यू-पॉइंट तकरीबन एक सा ही है. विचारधारा की दृष्टि से देखा जाए तो मोटे तौर पर इस बैठकी में सब दक्षिणपंथी ही हैं, मेरठ गपरचौथ में एक-दो वामपंथी भी थे तो बहस में छौंक ज्यादा तगड़ा लगता था.

खैर कल आंटी के घर आजकल के सबसे गर्म मुद्दे पर हलकी सी चर्चा छिड़ी- यानि कॉमनवेल्थ खेलों पर. टीनू भैया नहीं थे वरना  कल पूरी रात कम पड़ जाती. मामला था कि ऑस्कार के लिए इस बार भी जो फिल्म "पीपली लाइव" भेजी गयी है उसमें भी भारत की निगेटिव इमेज विश्व के सामने जाएगी. बाकी की इमेज पर कॉमनवेल्थ का आयोजन पानी फेर ही रहा है. हलकी सी बहस छिड़ी सबकी यही राय कि ऐसी फिल्मों को भेजने से बचा जाये जो भारत को पिछड़ा, गरीब और बेकार देश होने की छाप छोड़ती हों. इतने में आंटी ने एक बेहद तार्किक और व्यावहारिक बात कह डाली. उसी बात को लिखने के लिए मैंने ये पूरी पोस्ट लिखी है.

बात थी विश्व में ख़राब तस्वीर पेश करने वाली चीज़ों की. आंटी ने इसके लिए सबसे बड़ा दोष रेलवे के सर मढ़ा और वो भी पर्याप्त कारणों के साथ. उन्होंने कहा कि बाहरी लोगों के सामने देश की ख़राब तस्वीर पेश करने में यहाँ के रेलवे स्टेशनों का सबसे बड़ा हाथ है. वैसे तो रेलवे भारत की पूरी जी-जान से सेवा कर रहा है. उसकी सेवाओं में दिन-प्रतिदिन सुधार भी हो रहा है, लेकिन हर शहर में रेलवे स्टेशन से दो-तीन किलोमीटर पहले और बाद में ट्रैक के दोनों तरफ का एरिया इतना गन्दा और भद्दा होता है कि चाहकर भी आप उस शहर के बारे में अच्छा तो सोच ही नहीं सकते. भारत की राजधानी के मुख्य स्टेशन से लेकर छोटे से कसबे के हॉल्ट तक हर जगह पटरियों के आस-पास गंदगी का अटम्बार, झुग्गियां और अपने पेट को हल्का करते हुए भारतीय नज़र आएंगे. भला ऐसे में उस शहर के बारे में अच्छी इमेज कैसे बने. तमाम विदेशी पर्यटक भरता में ट्रेन से सफ़र करते हैं. रेल खिडकियों पर बैठे-बैठे अपने कैमरे से यही तसवीरें खींचकर वो अपने ब्लॉग पर, अपनी किताबों में या फिर प्रदर्शनियों में लगते हैं.

रेलवे अपनी पटरियों के आसपास से अवैध कब्जों को हटाने की तमाम दफै नाकाम कोशिश कर चुका है. लेकिन कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं इन अवैध कब्जों की. हटायें तो हटाये भी कैसे? किसी को इन कब्जों में वोट नज़र आते हैं, किसी को सर्वहारा, किसी को अपनी कौम,  तो किसी को बहुजन समाज. तमाम रेलवे स्टेशनों पर आपको पटरियों के बीचों-बीच मंदिर और मस्जिद भी मिल जायेंगे. इस सबके चक्कर में रेलवे का मनोबल इस दिशा में क्षीण पड़ जाता है. अब तो दिल्ली की मेट्रो ट्रेन ने इस मामले में भारतीय रेल के सामने एक नजीर भी पेश कर दी है. उससे भी गाइडलाइन ली जा सकती है. वैसे साफ़ सफाई के मामले में कुछ रेलवे स्टेशनों की भी स्थिति बेहतर है. रेलवे अपने ट्रैक के किनारे जट्रोफा के पेड़ उगाने का भी एक असफल प्रयास कर चुका है. लेकिन मुख्य बात है स्टेशन से कुछ किलोमीटर पहले और बाद में  पसरी गंदगी और अवैध कब्जों की. अगर इसका कोई उपाय खोज लिया जाए तो लोगों के मन में अपने शहर और अपने देश के बारे में नकारात्मक छवि न बने. किसी भी स्टेशन पर ट्रेन का स्वागत ग्रीनरी और अच्छी लाइटिंग से हो तो तस्वीर कुछ सुधरे.

खैर  ऊषा आंटी की ये चिंता कब तक दूर होगी ये तो नहीं कह सकते, फिलहाल तो रेलवे के ही सिपहसलार रेलवे स्टेशनों की दीवारों पर नारे लिख रहे हैं और दीवारों पर पीक मार रहे हैं.

Sunday, September 26, 2010

फिर मिल सकती है ऑस्कार वाली नंगी मूर्ती....



शनीचर का अखबार देख के पेड़ के नीचे बैठे चचा चिल्लाये  "अरे ओ कलुआ! अपने देस की एक और पिच्चर ऑस्कार मै जा रई  है.  अरे वोई वारी जा मै अपने गाम की कहानी ही- "पीपली लाइव", जा मै महंगाई डायन वारो गानो हो."

"हाँ चचा जो खबर तौ है अख़बार मै. पर चचा ऑस्कार तो बड़ी चीज़ होवै है. पिच्चर बनान वारे कौ एक नंगी सी मूर्ती मिलै ईनाम मै. सब खूब ताली पीटैं  और चुम्मा लेवै सब एक दूसरे को. और फिर वो नंगी मूर्ती हाथ मैं लेकै अंग्रेजी में शटाक शटाक बोलैं."

"तोय बड़ी पते हैं जे सब बातें. पूरो सलमान खान है रओ  है." चचा थोड़े तुनके.

"का चचा! तुम भी बस. पिछली दफै टीवी पै देखो हो. अपनी एक और पिच्चर कौ मिलो हो जोई वारो ईनाम.  ऐसो ही कुछ नाम हो.. ऐं... का कैवें वो.. हाँ... स्लमडौग करोडपति.... तौ चचा बड़ो सोर मचो हो. तब मोय पते चली कै जो ऑस्कार बड़ी चीज़ होवै है."

"अच्छा! अच्छा! ज्यादा जानकारी न झाड़, मोय भी पते हैं. मै भी रेडू सुनौ हौं रात कौ. वा मै रहमान को मिलो हो जो ईनाम. वा नै गानो बनाओ हो वो वारो का कैवें- जय हो-जय हो..."

"हाँ चचा! का बात, तुम तौ बड़े छुपे रुस्तम हौ. सब जानौ  हौ इन फिल्मन के बारे मै. और बताओ और का पते हैं ."

"और तो बस जे पते हैं कै अबके भी जो ईनाम हमैं मिलैगो."

"अजी हाँ! अब तुम ज्यादा लम्बी फैंक रये हौ चचा. तुम सै पूछ कैई तो दिंगे. तुम नै तो ऐसै कह दई जैसे तुम्हारे घर की खेती है. पते भी हैं पूरी दुनिया से फिल्में आवैं हैं वहां. सब कौ न मिलै करतो. चचा छोटी फैंक लो."

"हाँ! हाँ! सब जानौ हौं! जे बाल नौई न सफ़ेद है गए. असली बात जे है कै वा करोडपति वारी पिच्चर और जा वारी पिच्चर मै एक चीज़ कतई मिलती जुलती है. वोई देख कै मोय लग रओ है कै अबके भी वो नंगी मूर्ती हमै मिल जागी."

"अच्छा! चचा! सई  मै! तुम तौ बड़े ज्ञानी निकले चचा. जरा जल्दी सै बताओ तौ कौनसी बात मिलती जुलती है." कलुआ ने हैरत में पूछा.

"अरे दोनों पिच्चारों मै अपने देस की गरीबी, भुखमरी, बेकारी, पिछ्ड़ोपन दिखाओ गओ है. मोय एक फेर मास्टर जी बता रे हे, जे अंग्रेज लोग बात बात पै अपने देस को थर्ड ग्रेड को दिखानो चाहवें  हैं. उनै जा चीज़ मै भी अपने देस को पिछ्ड़ोपन दिखाई देवे है, वाई कौ ईनाम दे देवे हैं. तौई जो है पूरे संसार में वो चीज़ प्रिसिद्ध हो जावे है. और सब जोई समझें हैं कै भारत जो है बिलकुल पिछड़ो देस है. कोई पिच्चर हो या फिर कोई किताब हो जा मै भी भारत की बुरी बुरी बातें दिखाई जावें हैं वे अंग्रेजों को बड़ी पसंद आवैं हैं. और हम ईनाम लेकै बड़े खुस हो जावें हैं." चचा ने विस्तार से कलुआ को समझाया.

"अरे चचा. जे बात है. फिर तो तुम सई कह रे हे. अबके भी वो नंगी मूर्ती हमै ही मिलेगी फिर तौ. बताओ जो सुसरे खुद ही नंगे हैं वो हमै का ईनाम दिंगे. पर हम जावे ही क्यों हैं वहां ईनाम लेन कौ."

"जेई तौ बात है कलुआ! ईनाम मिलते ही हम पै विदेसी मोहर लग जावे है. हम जो हैं वहां जे मोहर लगवान को ही जावें हैं."

Friday, September 24, 2010

अयोध्या को बहुत कुछ चाहिए...

अयोध्या विवाद पर आने वाला फैसला एक बार फिर टाल दिया गया है. और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा, पिछले ६० सालों से ऐसा ही होता आ रहा है. हमारा सिस्टम इस मुद्दे को च्युइंगगम की तरह चबा रहा है. इशारा साफ़ मिल रहा है कि इस बार कॉमनवेल्थ के मद्देनज़र फैसला टाला गया है. अब कम से कम कॉमनवेल्थ ख़त्म होने तक तो इस फैसले को भूल ही जाइए. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को टालने में तत्परता दिखाई उसको देख कर लगता है कि देश में बन रहे हालातों के मद्देनज़र कोर्ट से कहीं न कहीं भारत सरकार ने भी फैसला टालने की अलहदा से गुजारिश की है.

भारतीय सिस्टम की सबसे बड़ी  विडम्बना यही है की वह चीज़ों को टालने में विश्वास रखता है. चाहे कश्मीर हो या नक्सलवाद, अयोध्या हो या पूर्वोत्तर राज्यों की समस्या. भारतीय सरकारें सदा से ही समस्याओं को टालने की प्रवृत्ति अपनाती आई हैं. नतीजा ये कि पीढ़ी दर पीढ़ी समस्याएं विकराल होती चली गयी.   काश अगर हमने परेशानियों को टालने की जगह उनसे मुकाबला करने का जज्बा दिखाया होता तो न बाबरी मस्जिद गिराई जाती और न आज कश्मीर सुलगता. भारतीय लोकतंत्र में वोट खोने का इतना बड़ा खौफ है कि सत्ता-हित के सामने राष्ट्र-हित दरकिनार कर दिए जाते हैं. आज देश में तमाम सुलगती समस्याओं की जड़ में यही कारण है. हमारी हिम्मत को लकवा मार गया है, हम डरपोंक हो गए हैं, हमारी रीढ़ में पानी घुस गया है.

अयोध्या मसले पर ये मुकदमा पिछले ६० साल से चल रहा है. इतने लम्बे अन्तराल में न तो सरकार और न अदालत ये निर्णय देने की हिम्मत जुटा पा रही है कि ये ज़मीन किसकी है? हालाँकि पता दोनों को है कि ज़मीन पर असली हक किसका है. यही ढीला रवैया बाबरी गिराए जाने का सबसे बड़ा कारण बना. लेकिन ये २०१० है वो १९९२ था. तब से लेकर अब तक सरयू में बहुत पानी बह चुका है. आज लोगों को गुमराह करना मुश्किल है. लोग वोटों की माया को भी समझ गए हैं. दोनों धर्मों के संतों ने नेताओं से किनारा कर लिया है. दोनों पक्ष अब फैसला चाहते हैं. लेकिन नहीं! हमारा सिस्टम किसी मुद्दे को जड़ से ख़त्म करने की इज़ाज़त नहीं देता. हम उसको लटकाए रखना चाहते हैं. ताकि लोग इन सब चीज़ों से ऊपर उठ कर न सोच सकें. १९९२ वाला सीन भी भूल जाएँ क्योंकि तमाम धार्मिक संगठन तेजी से अपनी जमीन खो रहे हैं. नयी पीढ़ी नयी सोच के साथ आगे बढ़ रही है. कम से कम उसको तो कतई गुमराह नहीं किया जा सकता. गुमराह उन्हीं इलाकों को किया जा सकता है जहां शिक्षा का अभाव है, विकास का अभाव है और जहां बेकारी है.

खैर इसी बहाने मैं आपको अपने अयोध्या के संस्मरण भी सुना देता हूँ, जो मैंने अपनी पिछली यात्रा में अनुभव किये. बचपन में जब परिवार के साथ अयोध्या  गया था उस वक़्त उम्र बहुत कम थी. बस कुछ भीनी भीनी यादें हैं. उम्र तीन साल से भी कम रही होगी. उस समय की सबसे स्पष्ट याद है भाई के साथ हनुमान गढ़ी की ऊंची सीढ़ियों पर एक एक पैड़ी को हाथ से छूकर माथे से लगाकर चढ़ना. तब के बाद फिर कई बार सोचा कि अयोध्या चला जाए, लेकिन कभी मौका नहीं लग पाया. दिल्ली आने के बाद आखिरकार मौका लग ही गया और लखनऊ में दिव्य जी से मुलाकात के बहाने अयोध्या जाना हो गया. बीती अप्रैल में मेरी ये यात्रा थोड़ी जल्दी-जल्दी में जरूर रही लेकिन मैंने उद्देश्य को पूरा कर लिया. सरयू स्नान के बाद जल्दी में ही सही मैंने सभी मुख्य मंदिरों के दर्शन कर लिए.

पूरे संसार में अयोध्या के नाम पर जितना बड़ा बवाल है मुझे अयोध्या उतनी ही छोटा और दीन लगी. ये तुलसी की अयोध्या सरीखी कतई नहीं थी. अयोध्या में जिस वैभव का वर्णन तुलसी ने अपनी मानस में किया है ये अयोध्या तो उसके पैरों की धूल भी नहीं. मेरी आँखें एक अदद वैभवशाली मंदिर देखने को तरसती रहीं. हर जगह मुझे केवल छोटे छोटे मंदिर और छोटी छोटी दुकानें ही नज़र आयीं. एक मात्र हनुमान गढ़ी का मंदिर ही थोड़ी विशालता का अहसास कराता दिखा. वर्तमान अयोध्या से कहीं ज्यादा बड़े और वैभवशाली राम मंदिर भारत के दूसरे छोटे शहरों में हैं. वर्तमान अयोध्या में गरीबी भी जमकर अपना प्रदर्शन कर रही थी. आखिर क्यों?

न तो भगवान राम की अयोध्या ऐसी थी और न राजा राम की. फिर आज की अयोध्या इतनी दीन क्यों है. कहने को पर्यटन स्थल और देखने में इतनी दयनीय. इसका जिम्मेदार कौन है? और फिर ऐसा क्या किया जाना चाहिए कि वर्तमान अयोध्या भी वैसी ही वैभवशाली बने जैसा तुलसी ने अपनी रामायण में वर्णन किया है.

अगर अयोध्या विवाद को इतना लम्बा न खींचा गया होता तो आज यहाँ भी आर्थिक विकास जोरों पर होता. अयोध्या में भी वही वैभव देखने को मिलता जो तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी और शिर्डी में देखने को मिलता है. लेकिन वर्तमान अयोध्या तो संगीनों के साए में जीती है. विश्व पटल पर नाम इतना बदनाम कर दिया गया है कि अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन यहाँ अपनी पैठ भी नहीं बना पाया है. अगर जल्द ही इस विवाद का फैसला कर दिया गया होता तो आज शायद ये दिन न देखना पड़ता.

अदालत में इस विवाद पर २८ बिन्दुओं को लेकर मुकदमा चल रहा है. इनमें से विवादित स्थल पर मस्जिद के पक्ष में बहुत कम साक्ष्य मिले हैं. कोर्ट ने फैसला लिख कर रख लिया है, बस सुनाना बाकी है. लेकिन अचानक ऊपर से लेकर नीचे तक सबकी रीढ़ की हड्डी दरकने लगी है. दर के मारे हवा ख़राब है. इसलिए कानूनी पेचों में मामले को फंसाने की कोशिश की जा रही है. किन्हीं राम भक्त त्रिपाठी जी को मोहरा बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है. उनका इस्तेमाल कौन कर रहा है. पता नहीं. हिन्दू कह रहे हैं कि वो कांग्रेस के आदमी हैं मुसलमान कह रहे हैं कि वो विहिप के आदमी हैं लेकिन वो कह रहे हैं कि मैं एक आम आदमी हूँ. 

खैर, अगर हिन्दुओं की भावना का ख्याल रखते हुए वहां समय रहते मंदिर निर्माण का रास्ता साफ़ कर दिया जाता और मस्जिद के लिए दूसरा स्थान दे दिया जाता तो आज तस्वीर दूसरी होती. पूरे संसार में साम्प्रदायिकता के नाम पर न तो भारत की छवि धूमिल होती और न किसी को राजनीति का मौका मिलता.

इस्लाम के मुताबिक विवादित स्थान पर मस्जिद नहीं बन सकती. सो, होना ये चाहिए कि वहां मंदिर का रास्ता साफ़ कर दिया जाए और मस्जिद के लिए अन्यत्र जगह प्रदान की जाये. भारत सरकार और प्रदेश सरकार दोनों पक्षों को अपने अपने धार्मिक स्थल बनाने के लिए बराबर की रकम प्रदान करे और फिर दोनों की धार्मिक स्थल इतने भव्य और दिव्य बनाये जाएँ कि वो एक मिसाल बन जाएँ. पर्यटन का ऐसा केंद्र बन जाएँ कि दूर दूर से सैलानी इनको देखने आयें. वहां पर्यटन का विकास हो, वहां के लोगों का विकास हो और गरीबी का नाश हो.

Monday, September 20, 2010

मेरा- "कॉमनवेल्थ सॉन्ग"

कॉमनवेल्थ खेलों के लिए जब सब गाने-वाने लिख रहे हैं तो मैंने भी सोचा एक गाना लिख दिया जाए. देश के इस महत्वपूर्ण पर्व में मेरा भी कुछ योगदान होना चाहिए. ऐसा मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है.  न न मुझे इस गाने के लिए कोई पैसा नहीं चाहिए. एकदम मुफ्त. पैसा तो खेल कमेटी के लिए ही कम पड़ रहा है, बेकार में क्यूँ उनकी वेल्थ में सेंध लगायी जाए. तो पेशे खिदमत है मेरा-  "कॉमनवेल्थ सॉन्ग" :   


 १. सडकें बन गईं स्विमिंग पूल,
कॉमनवेल्थ की हिल गईं चूल,
कैसे खेल करें.


२. बारिश कर रही हाहाकार,
यमुना दे रही है ललकार,
पानी कहाँ रखें.


३. डेंगू फैल रहा विकराल,
कैसे मरेंगे मच्छर यार,
बताओ क्या करें.


४. आतंकी बैठे होशियार,
अयोध्या सुलगन को तैयार,
कैसे शांत करें.


५. उड़ गई कलमाड़ी की धूल
शीला फिर भी दिख रहीं कूल
चिंता कौन करे.


६. पूरी दिल्ली में है जाम,
छुट्टी कर दी सबकी आम,
कैसे जाम खुले.


७. आ रहे भर-भर के त्योहार,
रावण फुकेंगे अपरम्पार,
इज्जत राम रखें.


८. करोड़ों बहा दिए सरकार,
फिर भी लटका कारोबार,
ढीली चाल चलें.


९. प्लेयर बैठे हैं हैरान,
गीले पड़े सभी मैदान,
कैसे पदक मिले.


१०. गाना किये एक रहमान,
कर गए हैं सबको परेशान,
कैसे मूड बने.


११. सीखें सॉरी, थैंक-यू, प्लीज़,
सब अंग्रेजों वाली तमीज,
हिंदी दूर रखें.


१२. बिछा दें सब सड़कों पर फूल,
सब कुछ दिखना चहिये कूल,
सच को साफ़ ढकें.

Saturday, September 11, 2010

लगता है प्रभु चावला को अब भारत-रत्न चाहिए!

लगता है प्रभु चावला के मन में भारत-रत्न की तीव्र ज्वाला भड़क रही है. शायद इसीलिए आज कल उनका चैनल हिंदूवादी संगठनो और साधू-संतों के पीछे पड़ गया है. उनको उम्मीद है की इससे चैनल की धर्मनिरपेक्ष छवि मजबूत होगी और पंजे की सरकार खुश होकर उनको भारत रत्न से नवाज़ देगी. आज कल उनके चैनल को कभी भगवा आतंकवाद दिख रहा है तो कभी संतों के काले कारनामे. कल (शुक्रवार, १०.९.१०) फिर देश के सबसे बड़े चैनल ने देश का सबसे बड़ा खुलासा करके अपनी पीठ थपथपाई. हाँ जी, ये था एक स्टिंग ऑपरेशन जो देश के नामी कथावाचकों और संतों की पोल खोलने के लिए रचा गया था. इतना तो तय है की ये सब अचानक नहीं हो रहा. ये सब किसी स्ट्रेटेजी के तहत ही किया जा रहा है. नोट करने की बात ये है कि इस पूरे स्टिंग में सरकारी विज्ञापन खूब दिखाए गए.

संतों पर किया गया ये स्टिंग बेहद बचकाना और हास्यास्पद था. संतों के करीबियों के माध्यम से आज तक की टीम उनसे मिली. कहीं इस टीम ने एक ऐसी लड़की के लिए पनाह मांगी जिस पर विदेश में गबन का मामला चल रहा है तो किसी से काले धन को सफ़ेद करने का तरीका पूछा. संतों ने जो भी बातें कहीं वो केवल अति विश्वास में आकर एक बेहद परेशान इन्सान को हिम्मत बंधाने के लिए कहीं. खासतौर से सुधांशु जी महाराज ने कोई भी ऐसी बात नहीं कही जिसका चैनल ने बवाल बना दिया. ये भारत की संस्कृति है कि अगर कोई परेशानी में फंसा इन्सान मदद मांगने आता है तो फिर शरण में आये व्यक्ति की मदद करना धर्म होता है. फिर आज तक ने तो संतों से मिलने के लिए उनके करीबियों को मोहरा बनाया.

फिर भारत एक ऐसा देश है जिसमें तमाम धर्मों के लोग रहते हैं. फिर हर बार हर चैनल केवल एक ही धर्म पर क्यों निशाना साधता है. अगर इन चैनलों का उद्देश्य धर्म में व्याप्त बुराइयों को उजागर करके उसके ठेकेदारों का चेहरा सामने लाना होता तो सभी धर्मों से जुड़े लोगों पर स्टिंग किया जाता. जाहिर है दूध का धुला कोई भी नहीं, हर जगह बुराइयाँ हैं, खुद आज तक में तमाम बुराइयाँ हैं. उन दोनों एंकरों से लेकर, जो इस स्टिंग को पेश कर रहे थे, तमाम लड़कियों को एंकर बनाये जाने तक बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं. जाहिर है चैनल का कोई पवित्र उद्देश्य नहीं था. लगता है अब आज तक का रिमोट कंट्रोल विडियोकौन टॉवर के बहार से काम कर रहा है.

ये तो सभी जानते है कि आज देश के अधिकांश खबरिया चैनल मानसिक दिवालियेपन से गुजर रहे हैं. ऊपर बैठे लोगों की सोच काम ही नहीं कर रही है कि आखिर २४ घंटे के चैनल पर क्या दिखाया जाए जिस से टीआरपी भी बढे विज्ञापन भी मिले. किसी को तंत्र-मंत्र का सहारा है, किसी को लाफ्टर चैलेन्ज का तो किसी को बॉलीवुड कलाकारों की निजी जिंदगी का. देश की वास्तविक समस्याओं को उजागर कर उनको दूर करने की दिशा में किसी के पास कुछ ठोस सोच नहीं.

ऊपर बैठा नीति निर्धारकों के मन में या तो राज्य सभा की सीट का लालच है या फिर पद्म-सम्मान का. वैसे एनडीए सरकार में उसके मनमाफिक काम करके प्रभु चावला पद्म सम्मान तो पहले ही झटक चुके हैं, अब राज्य सभा की सीट या भारत रत्न पक्का होता दिख रहा है. जय हो प्रभु...


आज ही किसी ने मुझे ये शेर सुनाया था-
"दूसरों की बुराई जब किया कीजिये, आईना सामने रख लिया कीजिये"
काश दूसरों में कमियां निकालने से पहले ये चैनल अपनी कमियों को दूर करते. कितने ही स्ट्रिंगरों का पैसा मार रखा है, कितनों को मामूली रुपल्ली देकर उनका शोषण किया जा रहा है, पूरा स्टाफ छुट्टी को तरसता रहता है, तमाम लोगों से मुफ्तखोरी करायी जा रही है. जिसका खुद का घर कांच का हो वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते.