Friday, December 18, 2009

पत्रकारिता को राम-राम

ओफ्फ! आखिरकार छूट ही गयी पत्रकारिता। वही पत्रकारिता जिसमें काम करने के लिए कभी मन लालायित रहता था, वही पत्रकारिता जिसके के लिए मैंने किसी कि नहीं सुनी, वही पत्रकारिता जिसके दम पर मैं समाज बदलने चला था, वही पत्रकारिता जिसमे काम करना लाल बत्ती मिलने के सामान होता है। ऐसी पत्रकारिता को अब हमने अलविदा कह दिया है। मेरठ छोड़ कर अब दिल्ली आ गए हैं, रामायण पर काम करने के लिए। रामायण सेंटर को ज्वाइन करने का अवसर पिछले एक साल से था, लेकिन पत्रकारिता छोड़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी। पत्रकारिता से बड़ी ऊब हो गयी थी। न काम करने का कोई सिस्टम, न छुट्टी, न परिवार के लिए समय, न हौबी के लिए वक़्त, न ही अच्छा सैलरी पॅकेज। अख़बारों को अब पत्रकार नहीं कम ठीक-ठाक लिखने वाले कोल्हू के बैल चाहिए। जो बिना किसी अवकाश के, न्यूनतम सैलरी में बिना किसी न-नुकुर के बस काम करते रहें। खबर के नाम पर बिकाऊ खबर ढूंढी जाती है, बाज़ार के सामने सब दंडवत हैं, आदर्शों की बात करना पाप है, बड़ी मछलियों के खिलाफ सीधे-सीधे कुछ नहीं लिखना, मुक़दमे बाज़ी से बचकर चलना है आदि-आदि नए नियम बन गए हैं। और हाँ गरीब आदमी की न्यूज़ जयादा नहीं लिखनी है। बहुत हुआ गरीबी का तमाशा। कुछ नया सोचो कुछ नया परोसो। खैर अपन तो इस सब से बहार आ गए हैं। बहार भी ऐसे आये की भड़ास पर खबर चल गयी की नयी पौध का पत्रकारिता से मोह भंग हो रहा है। तब से लोग बधाई दे रहे हैं। पत्रकारिता की दुनिया में काम करने वालों के ही फ़ोन आ रहे हैं की मैंने सही निर्णय लिया। निर्णय सही है या गलत पर इतना समझ आ गया की सडांध काफी अन्दर तक फ़ैल चुकी है। हर कोई परेशान सा नज़र आ रहा है इस फील्ड में। ऐसा क्यों है ये सब जानते हैं, लेकिन कुछ कर नहीं सकते। क्यूंकि जिस पत्रकार को पूरे समाज की लड़ाई लड़ने की ताकत प्राप्त है वह अपनी लड़ाई नहीं लड़ सकता। अगर अपनी लड़ाई लड़ने का दम दिखाया तो नौकरी भी जा सकती है और कोई साथ देनेवाला भी न होगा। जब इतनी सलाम लेने की आदत पड़ चुकी है तो भलाई इसी में है की चुप रहो, सहते रहो। खैर अपन से सहा नहीं गया। सो छोड़ दिया। अब नयी दुनिया है। भले ही कोई नमस्ते न करे पर मन को चैन तो है। खबर छूटने का डर नहीं और देर रात तक जाग कर शारीर नष्ट करने की जरूरत भी नहीं। अब कोई कुछ कहे। पत्रकारिता की अपनी खूबसूरती भी है और समस्याएं भी। लेकिन अब ये समस्याएं इतनी बढ़ चुकी हैं की पत्रकारिता का पेशा बेहद नकारात्मक लोगों का गढ़ बनता जा रहा है। और किसी भी लोकतंत्र में पत्रकारों का नकारात्मक होना अच्छा संकेत नहीं।

जय राम जी की....

Thursday, September 10, 2009

आन्दोलन

देश में यूँ तो तरह-तरह के आन्दोलन चलते ही रहते हैं। कुछ राजनीती से प्रेरित तो कुछ स्वार्थों से। लेकिन इन सब के बीच कुछ आन्दोलन ऐसे भी होते हैं जिनको सच्ची भावना के साथ, जनहित के लिए चलाया जाता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग की निजीकरण के विरोध में आजकल ऐसा ही आन्दोलन चल रहा है। स्टूडेंट्स सड़कों पर उतर आए हैं। छात्र आर-पार की लडाई मूड में हैं। उनके जोश को देखकर यही लगता है की सफलता उनकी ही है। यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले तमाम पत्रकार भी आन्दोलन को समर्थन दे रहे हैं। मेरे अख़बार के एक साथी भी छुट्टी लेके ख़ासतौर से छात्रों का मनोबल बढ़ाने इलाहाबाद गए हैं। इन्होंने वही से पत्रकारित की पढ़ाई की हैं। नीचे दिए गए लिंक्स के मध्यम से आप अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। और इस आन्दोलन का समर्थन भी कर सकते हैं.


http://naipirhi.blogspot.com/
http://virodh.blogspot.com/2009/09/blog-post_07.html
http://paniharan.blogspot.com/2009/09/blog-post.html
http://bhadas4media.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2452:au-journalism-department&catid=27:latest-news&Itemid=29
http://www.janadesh.in/InnerPage.aspx?Story_Id=1095

Friday, June 19, 2009

Curfew in Meerut


मौका मुआयना

Curfew In Meerut

हाथ में डंडा लेकर गश्त करतीं कमिश्नर राधा एस चौहान।
फोर्स के साथ गश्त पर डीएम कामिनी चौहान रतन।




Thursday, June 18, 2009

शक्ति

महिला सशक्तिकरण की आज कल खूब बातें होती हैं। गरमा गर्मी गोटी होती रहती भी गरमा गर्मी होती रहती है। कुछ लोग उनकी कार्य क्षमता पर भी प्रश्न चिह्न लगाते हैं। ऐसे लोगों के लिए मेरठ एकd बढ़िया उदहारण है। मेरठ के हालिया
दंगों में ऐसी तस्वीर सामने आई की रहा नहीं गया और लिखना पड़ा। आजकल मेरठ में एक संयोग है, जिले के तमाम महत्वपूर्ण पदों पर महिलाएं आसीन हैंशहर की डीएम हैं कामिनी चौहान रतन और कमिश्नर हैं राधा एस चौहान । प्रथम नागरिक की कुर्सी भी महिला ने संभाल rakhi है। अब इस महिला प्रधान सिस्टम में अचानक 6 जून को दंगा भड़क गया। दंगा इतना व्यापक नहीं था, माल का नुकसान तो हुआ पर जान का कोई नुकसान सामने नहीं आया। लेकिन फिर भी शहर में अहतियातन curfew लगा दिया गया। अचानक शहर का माहौल टेंस हो गया। सड़कों पर आरऐएफ़ और सीआरपीएफ की गश्त होने लगी। देर रात कई दुकानें और गाडियां आग के हवाले कर डी गयीं तो माहौल और गर्म हो गया। ऐसे माहौल में भूमिया के पुल और कांच के पुल जैसे सेंसिटिव इलाकों में डीएम् कामिनी चौहान रतन ने मौके पर पहुच कर सुरक्षा बलों के साथ मोर्चा संभाला। बिना कोई लाइफ जैकेट लिए। अगले दिन कमिश्नर राधा एस चौहान ने भी हाथ में डंडा लेकर सुरक्षा बलों के साथ दौरा किया। दोनों महिला अधिकारियों का दंगे के दौरान यह शौर्य रूप देखने लायक था। कवि ने तो लिखा था की "नारी तुम केवल श्रद्धा हो" लेकिन ये दृश्य देखकर लगा की "नारी तुम केवल शक्ति हो"।

Sunday, April 5, 2009

आज कलम धन की जय बोल

जब तक है दमड़ी, चढें लोग ड्योढी
जब हो न दमड़ी, दिखावत हैं त्योरी।
हो व्यक्ति कैसा गर हो पास पैसा,
कहता ज़माना उसे हीरे जैसा।
परदा नहीं देखा धन जैसा कोई,
सभी ऐब ढकता बड़ी साफगोई।
घर में भरा हो जो पैसा तुम्हारे,
अड़ोसी-पड़ोसी भी पांव पखारें।
मंत्री तुम्हारे संत्री तुम्हारे,
महिमा परम है पैसे की वह रे।
बातें तुम्हारी लगें सबको प्यारी,
पैसे से होती सभी रिश्तेदारी।
सब सुख जगत के चलें आगे-पीछे,
साड़ी व्यवस्था धन से ही रीझे।
बीवी तुम्हारी, बच्चे तुम्हारे,
सुबह शाम मिलकर आरती अतारें।
चौड़ा सा बंगला लम्बी सी गाड़ी,
बीवी भी पहने इम्पोर्टेड साड़ी।
गाड़ी से आना गाड़ी से जाना,
हफ्ते में छ: दिन होटल में खाना।
पैसे से जम जाए कुछ धाक ऐसी,
बनते हैं सारे दुश्मन हितैषी।
कहते हैं साधू न संग ठीक धन का,
गुरु की शरण जा मिले चैन मन का।
पर हाय रे हाय ये जालिम ज़माना,
बिना धन के मुश्किल गुरु भी बनाना
कहाँ तक लिखूं मैं धन का ये गाना,
कुछ का तो धन बिन पचता न खाना।
धन से ही खाना व धन से नहाना,
ऐसा चला है ये दौर-ऐ-ज़माना।
लक्ष्मी को पूजो, लक्ष्मी को ध्याओ,
लक्ष्मी को खोजो, लक्ष्मी को पाओ।
मन में जगा लो धन की ही ज्वाला
पीना पड़े चाहे विष का ही प्याला।

क्योंकि-
धन ही है माता, पिता भी धन है,
धन ही है बन्धु, सखा भी धन है,
धन ही है विद्या, धन ही है ज्ञाना,
चले न धन बिन कोई विधाना।

Tuesday, March 24, 2009

पानी रे पानी


रामायण में जिक्र आता है की वनवास को गए भगवान राम ने वाल्मीकि जी से पूछा की ऋषिवर अब मुझे रहने के लिए कौनसी जगह चुननी चाहिए। ऋषि वाल्मीकि हँसे और उन्होंने राम से पूछा की ये बताओ की कौनसी ऐसी जगह है जहाँ तुम नहीं हो। लेकिन बाद में उन्होंने राम को कुछ स्थानों के बारे में विस्तार से बताया की कहाँ रहना चाहिए और कहाँ नहीं।

इसी तरह की चर्चा कुछ दिन पहले किसी के साथ चल रही थी। मेरे मुंह से अचानक निकला की जिन शहरों में पानी बिकता हो, वहां रहना बेकार है। जहाँ का प्रशासन आम लोगों के लिए पीने के पानी का प्रबंध न कर पाये। जहाँ दिलों में इतनी गुंजाईश न बची हो की हम किसी को पानी पिला सकें। जहाँ के सामाजिक संगठन भी इस दिशा में विफल हों, वहन रहकर आप पैसे शायद कम लें, पर खुश नहीं रह पाएंगे। दिल्ली, नॉएडा, गाजियाबाद, गुडगाँव ऐसे ही कुछ शहर हैं जहाँ आपको आठ आने का पानी खरीद कर पीना पड़ता है। वो भी एक गिलास नहीं दो गिलास क्योंकि अट्ठन्नी अब चलती नहीं। बोतल बंद पानी तो पूरे देश में बिकता ही है। वो तो एक एलीट क्लास का पानी है, बात आम लोगों की हो रही है। शुक्र है की अभी मेरठ की सड़कों पर ये नज़ारा नहीं देखने को मिलता। यहाँ के लोग कहते हैं की यहाँ बड़ा मुश्किल है की कभी पानी बिके। मैं भी जब सामाजिक संस्थाओं के लोगों से मिलता हूँ तो ये जरूर कह देता हूँ की भाई अपने शहर में कभी ये नौबत मत आने देना.

Monday, March 16, 2009

LOVE & MARRIAGE



हमारे अख़बार में छपा एक बढ़िया दृष्टान्त...

A student asked a teacher, "What is love?"The teacher said, "in order to answer your ,1,1uestion, go to the wheat field and choose the biggest wheat and come back.But the rule is: you can go through them only once and cannot turn back to pick."The student went to the field, going through first row, he saw one big wheat, but he wondered....may be there is a bigger one later.Then he saw another bigger one... but may be there is an even bigger one waiting for him.Later, when he finished more than half of the wheat field, he started to realize that the wheat is not as big as the previous one he saw. He knew he had missed the biggest one, and he regretted.So, he ended up going back to the teacher with empty hand. The teacher told him, "...this is love... you keep looking for a better one, but when later you realise, you have already missed the person....""What is marriage then?" the student asked.The teacher said, "in order to answer your ,1,1uestion, go to the corn field and choose the biggest corn and come back. But the rule is: you can go through them only once and cannot turn back to pick."The student went to the corn field, this time he was careful not to repeat the previous mistake. When he reached the middle of the field, he picked one medium corn and came back to the teacher.The teacher told him, "this time you bring back a corn.... you look for one that is just nice, and you have faith and believe this is the best one you get.... this is marriage."

Saturday, February 28, 2009

हम से नंगा कौन....



ले, तू बेशर्म मैं महा बेशर्म। आजा मैदान में। सारी शर्म का ठेका हमने ही थोड़े ले रखा है। अधिकारी हैं तो क्या हुआ, झुंझलाहट तो हमको भाई होती है.... कुछ यही अंदाज था मेरठ के नगरायुक्त संजय कृष्ण का, जब उन्होंने सबके सामने अपने कपड़े उतर फेंके और भरपूर शारीरिक प्रदर्शन किया। हुआ ये की एक महिला पार्षद के पतिदेव अपना काम कराने नगरायुक्त के पास पहुच गए। ये वाही महोदय थे जिन्होंने अपनी पत्नी और अन्य कुछ महिलाओं को ढाल बनाकर नगरायुक्त को चूडियाँ पहनाने की कोशिश की थी। तो नगरायुक्त का झल्लाना ज़ाहिर सी बात है। दोबारा जब ये जनाब नगरायुक्त के पास पहुचे तो उन्होंने काम तो दूर बात करने से भी इंकार कर दिया। उन्होंने साफ़ कहा की पार्षद तुम्हारी पत्नी है तुम नही, कोई काम हो तो उसी के हाथ भेजो। इस पर पार्षद पति का जवाब था की वो आयेगी तो तुमको नंगा कर देगी।


उसका यही कहना नगरायुक्त को नागवार गुज़रा। नगरायुक्त संजय कृष्ण बोले वो क्या नंगा करेगी ले मैं ख़ुद ही नंगा हो जाता हूँ। और नगरायुक्त ने सर्वसमाज के सम्मुख अपने अंगों का प्रदर्शन कर डाला। वहां मौजूद सब लोग हक्के-बक्के रह गए। शुक्र तो यह रहा की वहां कोई मीडिया फोटोग्राफर नहीं था। बहरहाल ख़बर तो फ़ैल ही गई। और ऐसी फैली की अगले दिन पूरे मेरठ में चर्चा का विषय रही। अब लोग लगे हैं निंदा करने में। निंदा करने वालों में सबसे आगे सफेदपोश नेता जन हैं । पार्टी लाइन से ऊपर उठ नगरायुक्त की निंदा कर थक नहीं रहे हैं।


तो भाई लोग नंगे के इस दौर में किसी से शर्म की इच्छा न करें। पहले कहते थे की 'हमाम में सब नंगे हैं', अब बोलो भइया की 'समाज में सब नंगे हैं....'

Wednesday, February 18, 2009

एक और प्रेम कहानी का अंत


लो शहर की एक और प्रेम कहानी का अंत हो गया, वो भी वैलेंटाइन डे के दिन। किशन (२८) का ममता के साथ पिछले चार साल से "चक्कर" था और ये चक्कर काफी आगे निकल चुका था। दोनों संपन्न परिवारों से और सजातीय थे। लेकिन वैलेंटाइन डे के दिन किशन की लाश ममता के घर में मिली। चीज़ें साफ़ थीं लेकिन उस दिन कुछ खुलकर सामने नहीं आया। अगले दिन जब पुलिस ने केस खोला तो तस्वीर भयानक निकली।


दरअसल ममता ने ही किशन को ज़हर दिया था। उसका आरोप था की किशन बेवफाई कर रहा था। किशन के घर वालों ने उसकी शादी दूसरी जगह तय कर दी थी। किशन ने ममता की भावनाओं का ख्याल किए बिना शादी के लिए हाँ भी कर दी। लेकिन इसके बावजूद किशन ने ममता के साथ सम्बन्ध बरक़रार रखे। जो बातें अन्दर से छन कर आयीं उनके मुताबिक वैलेंटाइन डे के दिन किशन ने ममता के साथ यौन सम्बन्ध बनाये, जो वह पहले भी करता रहा था। और उसके बाद ममता को दूसरी जगह शादी तय होने की बात कही। ममता का आरोप है की किशन उसको लगातार ब्लैक मेल कर शारीरिक सम्बन्ध बना रहा था। सो उसने अपनी प्रेम भरी मुस्कान के साथ किशन को सल्फोस पाउडर खिला दिया।


इस तरह एक और प्रेम गाथा ख़त्म हो गई। सवाल फिर से वही है की क्या यही प्यार है। प्यार के नाम में पूरे देश में क्या हो रहा है ये सबके सामने है। बड़े शहरों का हल किसी से नही छिपा है। असल में जिस तरह का प्यार आज नज़र आ रहा है वह बाज़ार की देन है। जिसमें ग्लेमर है, उत्तेजना है, आकर्षण है, मस्ती है, झूठ है नहीं है तो बस वफादारी और सच्चाई। लेकिन भाई चुप रहो , इस तरह की बातें करने वालों को तो दकियानूसी और रुढिवादी कहा जाता है। सो जैसा चल रहा है चलने दो, जब सब बाज़ार की गिरफ्त में हैं तो तुमको ही क्या पड़ी है।

Sunday, February 1, 2009

आलोचकों को आलोचना का बहाना चाहिए


टीवी पर एक विज्ञापन आता था, जिसकी पञ्च लाइन थी "खाने वालों को खाने का बहाना चाहिए...", यह लाइन आज के आलोचकों पर फिट बैठती है क्योंकि "आलोचकों को भी आलोचना का बहाना चाहिए.... "। अच्छे से अच्छे काम की आलोचना करना उनके बाएं हाथ का खेल है। अब अपने ऐआर रहमान को ही लो, भाई ने गोल्डन ग्लोब जीता। संसार के पटल पर भारत के संगीत को पहचान मिली। लेकिन आलोचकों को इसमें भी बुरे नज़र आ रही है। लगे हैं कागज़ काले करने में, की रहमान का सिंथेसाईंज़र करोड़ों का है, पहले संगीतकार रहमान से ज्यादा बढ़िया थे। अब अगर पहले संगीतकारों को सम्मान नहीं मिला तो इसमे रहमान की तो कोई गलती नहीं है न। सजनते हैं की पश्चिमी चस्मा हमें किस तरह से देखता है। हमारी फिल्में बढ़िया हैं, संगीतकार बढ़िया हैं, कलाकार भी बढ़िया हैं, पर उनकी नज़रों में नहीं चढ़ते , क्या कर सकते हैं। अब भइया लोग लगे हैं रहमान से हिसाब बराबर करने में। "स्लम डॉग..." ने नाम क्या कमाया की उसकी तो शामत आ गई। बुराई ही बुराई झेलनी पड़ रही है... कहीं बच्चन, कहीं बच्चे, कहीं पत्रकार तो कहीं तथाकथित सामाजिक संगठन, सब कूद पड़े हैं मैदान में। फ़िल्म की स्टोरी में भारत की तस्वीर लोगों को पसंद नहीं आ रही। सही भी है, भारत अब पुराना देश नहीं रहा। लेकिन क्या सारी गलती उस विदेशी निर्देशक की है, उस लेखक का क्या करें कहानी पर फ़िल्म आधारित है। बात लेखक "विकास स्वरुप" की हो रही है। वह तो भारतीय हैं, अपनी किताब "क्यू एंड ऐ" में यह भारत की ऐसी तस्वीर उन्होंने ही पेश की है, जिसे निर्देशक ने परदे पर उतारा है। अब भाई निंदा तो उनकी ही होनी चाहिए। यानी आलोचना में भी बेइमानी चल रही है। इत्ती मिलावट ठीक नहीं।

Thursday, January 8, 2009

अलविदा गौतम



गौतम गोस्वामी कि मृत्यु हो गई वही गौतम जो पहले डॉक्टर, फिर आईपीएस में चयनित हुआ, फिर आईऐएस बना। पटना का डीएम बनकर जिसने खूब सुर्खियाँ बटोरीं। उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी की चुनावी रैली जब रात के दस बजे से लेट हुई तो गौतम ने बेझिझक कहा- सर टाइम अप। एक डीएम ने डिप्टी पीएम को कानून बताया था। अडवाणी चुपचाप मंच छोड़कर नीचे उतर गए थे। फिर बिहार में आई बाढ़ में शानदार काम कर उसी गौतम ने टाईम्स मैगजीन में जगह बनाई। फिर कुछ ऐसा हुआ कि वही बाढ़ गौतम के लिए पतन का कारण बन गई। उस पर बाढ़ के लिए आई राहत में भरी धांधली करने का आरोप लगा। बाढ़ घोटाले में गौतम ऐसा फंसा कि निकल नहीं सका। अब यह तो पता नहीं कि गौतम ने सचमुच इतना बड़ा घोटाला किया था कि नहीं। लेकिन आज का सच यह है कि गौतम गोस्वामी कैंसर से झूझते हुए, सिर्फ़ ४१ साल कि उम्र में इस दुनिया से रुखसत हो गया। बाढ़ घोटाले कि जांच चल रही है और चलती रहेगी। गौतम कि मौत कि खबरें जब अख़बारों में छपी तो उनमें कई कई बार बाढ़ घोटाले का जिक्र किया गया। गौतम कि अन्तिम संस्कार में केवल दो बड़े अधिकारी शामिल हुए। जांच पूरी होने से पहले ही गौतम को दोषी मान लिया गया था। मृत्यु के बाद भी यह लाजवाब अधिकारी वह सम्मान प्राप्त नहीं कर सका जिसका वो हक़दार था।