Wednesday, February 27, 2008

चिंता


ये समाज है। अपना समाज। समाजसुधारक कहते हैं कि समाज ठीक दिशा में नहीं जा रहा है। समाज कि चिंता करने के लिए गोष्ठियाँ होती हैं। मंच पर गणमान्य लोग बैठते हैं। उनको माला पहनाई जाती है। शाल उडाई जाती है। मिनरल वाटर पिलाया जाता है। मेहमानों की तारीफ़ में पुल बांधे जाते हैं। फिर शुरू होता है बड़ी बड़ी बातों का सिलसिला। ग़लत दिशा में जाते समाज पर लांछन लगाया जाता है। बिगड़ती स्थिति पर कभी युवाओं को ग़लत बताया जाता है। कभी सरकार को। तो कभी सिस्टम को। लोग तालियाँ बजाते हैं। इसके बाद हॉल के बाहर लॉन में रखा बढ़िया पकवान लोगों को आकर्षित करता है। जिसके स्वाद में लोग समाज की चिंता भूल के पेट की चिंता में मगन हो जाते हैं। समाज जैसा चल रहा था वैसा ही चलता रहता है। हर शहर में हो रहे हैं चिंतन। बुद्धिजीवियों की भीड़ जुटती रही है। बेचारे समाज के लिए बेहद चिंतित हैं। लेकिन उनके चिंतन में सम्मान की चिंता ज्यादा दिखाई देती है। उनको पूरा भरोसा है कि इसी तरह चिंता करते करते एक दिन उनको मिल ही जाएगा पद्मश्री।

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