भाई आज २९ फरवरी को अपने वित्त मंत्री श्री पी चिदंबरम जी ने बजट पेश किया। लुभावन ही लुभावन। रियारत ही रियारत। हमारे ऑफिस में आज अनोखी विचार गोष्ठी बुलाई गई। इसमें कोई अर्थशास्त्र का ग्याता नहीं बुलाया गया। बजट पर अपने विचार देने के लिए बुलाये गए थे आम लोग। वित्त मंत्री जी घोषणा पर घोषणा किए जा रहे थे। लोग समझने की कोशिश कर रहे थे। मजेदार बात यह रही कि कोई भी बजट को अपने आप से नहीं जोड़ पाया। उनको लग रहा था बड़ी बड़ी योजनाएं उनके किसी काम की नहीं। कहीं न कहीं उनके मन में यह बात अच्छी तरह घर कर गई थी कि सरकार का पैसा भ्रष्ट अफसरों की जेब ज्यादा गर्म करेगा, योजना में कम लगेगा। सही भी है पिछली सरकार ने देश के पांच राज्यों में एम्स अस्पताल खोलने की घोषणाकी थी। इतने साल हो गए, पता नहीं कहाँ घुस गए वो एम्स। इस देश की नई सड़कें एक बरसात नहीं झेल पातीं। बजरी ऐसे बहती है मानो सड़क पर बाजरा बिखेर दिया हो। मंत्री जी ने आज कई सपने दिखाए। लेकिन काश वो दिल्ली से बाहर आकर देश के किसी गाँव का दौरा करते। या किसी सरकारी कार्यालय में आम आदमी के तरह पंक्ति में लगते। तब उनको पता चलता कि उनके कर्मचारी तो अभी बात करना भी नही सीख पाए हैं काम क्या करेंगे। अधिकारी फाइलों में आंकडे पूरे करने में लगे रहते हैं। यार कुछ जमीन पर होना चाहिए। ये गाँधी जी ने हिंद स्वराज में देश के विकास के लिए कुछ तरीके बताये हैं। उन पर न उनके नेहरू ने ध्यान दिया। और न ही उनके बाद की सरकारों ने। चलो भाई देश तो चल ही रहा है। आगे भी चलता रहेगा। आम आदमी का क्या है। वो तो होता ही पिसने के लिए है.
Friday, February 29, 2008
बजट
भाई आज २९ फरवरी को अपने वित्त मंत्री श्री पी चिदंबरम जी ने बजट पेश किया। लुभावन ही लुभावन। रियारत ही रियारत। हमारे ऑफिस में आज अनोखी विचार गोष्ठी बुलाई गई। इसमें कोई अर्थशास्त्र का ग्याता नहीं बुलाया गया। बजट पर अपने विचार देने के लिए बुलाये गए थे आम लोग। वित्त मंत्री जी घोषणा पर घोषणा किए जा रहे थे। लोग समझने की कोशिश कर रहे थे। मजेदार बात यह रही कि कोई भी बजट को अपने आप से नहीं जोड़ पाया। उनको लग रहा था बड़ी बड़ी योजनाएं उनके किसी काम की नहीं। कहीं न कहीं उनके मन में यह बात अच्छी तरह घर कर गई थी कि सरकार का पैसा भ्रष्ट अफसरों की जेब ज्यादा गर्म करेगा, योजना में कम लगेगा। सही भी है पिछली सरकार ने देश के पांच राज्यों में एम्स अस्पताल खोलने की घोषणाकी थी। इतने साल हो गए, पता नहीं कहाँ घुस गए वो एम्स। इस देश की नई सड़कें एक बरसात नहीं झेल पातीं। बजरी ऐसे बहती है मानो सड़क पर बाजरा बिखेर दिया हो। मंत्री जी ने आज कई सपने दिखाए। लेकिन काश वो दिल्ली से बाहर आकर देश के किसी गाँव का दौरा करते। या किसी सरकारी कार्यालय में आम आदमी के तरह पंक्ति में लगते। तब उनको पता चलता कि उनके कर्मचारी तो अभी बात करना भी नही सीख पाए हैं काम क्या करेंगे। अधिकारी फाइलों में आंकडे पूरे करने में लगे रहते हैं। यार कुछ जमीन पर होना चाहिए। ये गाँधी जी ने हिंद स्वराज में देश के विकास के लिए कुछ तरीके बताये हैं। उन पर न उनके नेहरू ने ध्यान दिया। और न ही उनके बाद की सरकारों ने। चलो भाई देश तो चल ही रहा है। आगे भी चलता रहेगा। आम आदमी का क्या है। वो तो होता ही पिसने के लिए है.
Thursday, February 28, 2008
कमाई
भई ये दुनिया गज़ब कि है। हर आदमी दो के चार करने में व्यस्त नज़र आ रहा है। अपने रूटीन काम के साथ आदमी कोई न कोई तरीका ऊपर से कमाई करने का भी निकाल लेता है। अब आपको भारतीय रेल में ऊपर से कमाने के कई तरीके मालूम होंगे। मसलन टीटी की ट्रेन में उगाई । रिज़र्वेशन काउंटर पर दलालों का बोलबाला। आदि आदि। लेकिन मेरठ में रेलवे की रिपोर्टिंग के दौरान ऊपरी कमाई का एक नया तरीका देखने को मिला। अरे ये जो ट्रेनें प्लेटफॉर्म पर रूकती हैं। इसमे भी कमाई का जरिया छिपा है। प्लेटफॉर्म नम्बर एक के दुकानदार कहते हैं कि दूसरे प्लेटफॉर्म वाले स्टेशन प्रबंधन को महीना पहुचाते हैं, इसलिए ज्यादातर ट्रेनें प्लेटफॉर्म नम्बर दो और तीन से गुजरती हैं। एक नम्बर वाले कहते हैं कि मैं अपने अख़बार में छाप दूँ। लेकिन मेरे हाथ सबूत ही नहीं लगे। बड़ी गज़ब कि दुनिया है। सब कमा रहे हैं। सब मस्त हैं। और मस्त है देश की व्यवस्था। बापू। ओ बापू। कहाँ हो?
Wednesday, February 27, 2008
चिंता
ये समाज है। अपना समाज। समाजसुधारक कहते हैं कि समाज ठीक दिशा में नहीं जा रहा है। समाज कि चिंता करने के लिए गोष्ठियाँ होती हैं। मंच पर गणमान्य लोग बैठते हैं। उनको माला पहनाई जाती है। शाल उडाई जाती है। मिनरल वाटर पिलाया जाता है। मेहमानों की तारीफ़ में पुल बांधे जाते हैं। फिर शुरू होता है बड़ी बड़ी बातों का सिलसिला। ग़लत दिशा में जाते समाज पर लांछन लगाया जाता है। बिगड़ती स्थिति पर कभी युवाओं को ग़लत बताया जाता है। कभी सरकार को। तो कभी सिस्टम को। लोग तालियाँ बजाते हैं। इसके बाद हॉल के बाहर लॉन में रखा बढ़िया पकवान लोगों को आकर्षित करता है। जिसके स्वाद में लोग समाज की चिंता भूल के पेट की चिंता में मगन हो जाते हैं। समाज जैसा चल रहा था वैसा ही चलता रहता है। हर शहर में हो रहे हैं चिंतन। बुद्धिजीवियों की भीड़ जुटती रही है। बेचारे समाज के लिए बेहद चिंतित हैं। लेकिन उनके चिंतन में सम्मान की चिंता ज्यादा दिखाई देती है। उनको पूरा भरोसा है कि इसी तरह चिंता करते करते एक दिन उनको मिल ही जाएगा पद्मश्री।
Tuesday, February 26, 2008
पत्रकार
Monday, February 25, 2008
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